हिंदी चिठ्ठाजगत एक शान्त पडे तालाब की तरह है। ज्यादातर चिठ्ठाकार अधिक सक्रियता नही दिखाते हुए कभी कभी कुछ चिठ्ठे लिख डालते हैं, और इस तालाब का पानी मंद मंद बहता रहता है। कभी कभी सुंदर कमल खिलते हैं, पर ज्यादातर शांतिमय वातावरण में झींगुर बोलते रहते हैं। मै समझता हूँ कि किसी महानुभाव ने जब इस
अनुगूंज नामक तत्व की परिकल्पना की होगी, तब उसके पीछे यह सतत् छाई निष्क्रियता या बोझिलता को भंग करने का विचार उसके मन में रहा होगा। खैर, अब तो हालात यह हैं कि
अनुगूंज भी बहुत से दिग्गजों को क्रियाशील नही कर पाती।
जब चिठ्ठाकारी में नया नया आया था, तब मुझे इसके इतिहास या भूगोल के बारे में ज्यादा ज्ञान न था, पर धीरे धीरे मुझे पता चला कि अतीत में बडे बडे चिठ्ठाकार हो गये हैं, जो अब नही लिखा करते। थोडा दुःख हुआ, हम उनके समकालीन होने से वंचित हो गये। न लिखने के बहुत से कारण हो सकते हैं, कुछ मजबूरियां हो सकती हैं, समय का अभाव, संसाधनों की कमी, अरुचि हो जाना आदि आदि, ये बेहद व्यक्तिगत मामला है, और अपनी अपनी मर्जी है, कोई किसी का दवाब तो है नही। मर्जी आये लिखें न मर्जी आये ना लिखिये भाई।
कभी कभी खुश होता था कि एक दिन मै भी ऐसे ही विरक्ति होने पर चिठ्ठाकारी से सन्यास ले सकता हूँ, यानी वापसी के रास्ते खुले हैं। भूमिगत (अरे अंडरवर्ल्ड भाई) अपराधों की दुनिया की तरह ये ऐसी दुनिया नही, जहाँ आप प्रवेश तो कर सकते हैं, पर बाहर नही जा सकते, नो वन वे ट्रैफिक।
फुरसतिया जी,
रवि जी एवं
सुनील जी बेहद सक्रिय चिठ्ठाकार ठहरे। जाहिर है बाकी का चिठ्ठाजगत उनके कदम से कदम नही मिला पाता।
रवि जी तो बेचारे अपने रास्ते
चलते रहते हैं, लिखते रहते हैं, बदस्तूर लिखते रहते हैं, और फिकिर नॉट टाइप से लिखते जाते हैं, कोई ज्यादा सरोकार नही रखते कि बाकी का चिठ्ठाजगत क्यों निष्क्रिय पडा है। सच्चे मायनों में "कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर" टाइप। वैसे
सुना है, उन्हे कोई
इनाम विनाम मिला है, तो कुछ फल तो मिल गया है। पता नही इसकी चिन्ता उन्हे थी या नही, अब ये तो वे ही बेहतर बता पायेंगे।
सुनील जी, नियमित
लिखते हैं, और हिंदी चिठ्ठाकारी के बेशकीमती रत्न हैं। उनके देश-विदेश के प्रवास अनुभव, बेबाक लेखन और बेहद ईमानदारी से लिखना ही ये कारण है, कि मै उनका हर चिठ्ठा पढता हूं। सुनील जी, कभी कभी अनजाने में इस शान्त पडे तालाब में पत्थर मार देते हैं, जैसे "
आपने अपने सपने पूरे किये या नही"। बहुत दिनों तक दिलोदिमाग पर छाया रहा ये वाक्य,
कुछ लोगों ने तो लिख भी डाला। बहुत कोशिश की कि मै भी लिखूँ, लेकिन वही ढाक के तीन पात.........। वैसे
सुना है कि सुनील जी को भी
इनाम मिला है। वाह भाई वाह।
रहे
फुरसतिया जी, तो मै उन्हे हिंदी चिठ्ठाजगत का आधारस्तंभ मानता हूँ। शायद ही कोई हिंदी चिठ्ठा हो, जहाँ उनकी पँहुच न हो। सबसे ज्यादा चिठ्ठाकार अगर जुडे हैं तो फुरसतिया जी से। सबसे ज्यादा टिप्पणियाँ मिली होंगी तो उन्हे और अगर की होंगी तो उन्होने ही, और शायद सबसे ज्यादा चिठ्ठाकार मिलन फुरसतिया जी ने ही किये होंगे। बेहद लंबे लेख, मगर मजाल है कि पकड छूटने पाये कहीं। किसी ने कुछ फरमाइश की, कि बेचारे फुरसतिया जी, रातों की नींद उडाकर भी
पेश करते हैं अपने चिठ्ठे पर। मुझे आश्चर्यमिश्रित दुःख हुआ, जब मैने पाया कि चिठ्ठाजगत के इस पुरोधा को पुरस्कार नही मिला। खैर ......... अब उस पर तो अपना बस नही है।
हाल ही में फुरसतिया जी ने एक बार फिर इस शान्त पडे तालाब (जो कुछ नियमित लेखकों के देसगमन के कारण और उदास सा हो गया था) में पत्थर फेंक दिया "
अमेरिका और उसके मिथक"। तालाब में हलचल मच गई, कुछ रुकी पडी लेखनियॉ हरकत में आ गईं। बात किसी एक स्टूपिड से (माफ करियेगा इसे हिंदी में नही लिख रहा क्योंकि मूर्ख लिखने से ज्यादा रस इस शब्द में है) सर्वे से शुरू हुई और ना जाने कहॉ से कहॉ पंहुच गई। मैने सोचा कुछ लिखुंगा, फिर जब कुछ लेख पढे, सोचा नही लिखुंगा, बहरहाल इस कशमकश में कुछ समय गुजर गया।
मैने सोचा नही लिखुंगा, जा, क्या होगा, अगर आपने किसी चार-पॉच वर्षीय बालक या बालिका के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त किया है, तो आपको पता होगा कि आप उसे जो भी करने को कहते हैं, वो सदैव उसका विपरीत ही करता या करती है। एक विरोधी मानसिकता, परंपराओं को तोडने की आकांक्षा। बचपन से मै किसी भी प्रकार के असाइनमेंट assignment (माफ करें समझ नही आ रहा उपयुक्त हिंदी शब्द) से चिढता रहा हूं। खुद की मर्जी आये तो ही करूंगा लेकिन कोई और मुझे करने को मज़बूर करे, जहां तक हो सके नही करूंगा, कत्तई नही करूंगा जी। कालान्तर में अभियांत्रिकी एवं मैनेजमेंट के अध्ययन के दौरान मुझे इस विरोधी विचारधारा को तिलांजलि देनी पडी। असाइनमेंट पर ही तो आधे नंबर होते हैं साहब। करो नही तो घर बैठो।
शुरू में मुझे
अनुगूंज ऐसा ही असाइनमेंट लगा। लेकिन अब नौकरी कर कर के असाइनमेंट से चिढ अगर भागी नही तो कम जरूर हो गई है, तो कभी फुरसत के वक्त लिख ही डाला। सुनील जी का सपनों पर लिखने का
आमंत्रण और अब ये फुरसतिया जी का अमेरिकी चिठ्ठाकारों को
खुली ललकार असाइनमेंट ही है हमारे लिये।
बहरहाल इधर उधर की बातें छोडकर अब मुद्दे पर आता हूँ। कृपया ये बिलकुल न समझा जाये कि ये पूरे हिंदी चिठ्ठाजगत के विचार हैं या सारे अमेरिकी चिठ्ठाकारों के विचार हैं या सारे प्रवासी भारतीयों के विचार हैं। एक बेहद सीमित बुद्धि के नाचीज़ इन्सान के विचार माने जायें, जिसने अमेरिका में थोडा वक्त ही बिताया है, और जो अपने सीमित ज्ञान के आधार पर इस विषय पर कुछ लिखने का दुस्साहस कर रहा है। मैने मूल विषय पर तो कुछ ना लिखने का फैसला किया है, क्योंकि इतना दुस्साहस मै नही कर पाया, पर मेरे सीमित निजी अनुभव के आधार पर मै फुरसतिया जी के लेख पर श्रीमान् हिंदी ब्लोगर महोदय की
टिप्पणी में उठाये प्रश्नों का उत्तर देना चाहूंगा (गलतियों के लिये पहले ही क्षमायाचना)।
हमारे ब्लॉगरों में से ज़्यादातर अमरीका में हैं. वो हमें बताएँ कि अमरीका में स्ट्रीट क्राइम की स्थिति भारत से बुरी है कि नहीं? अजी बिलकुल नही जी, भ्रम की दुनिया छोड हकीकत की दुनिया में कदम रखिये। भारत से बुरी तो कदापि नही। कुछ महानगरों में होते हैं स्ट्रीट क्राइम, पर नियंत्रण में, ज्यादातर शहर शान्त एवं सुरक्षित हैं, जहॉ एकाकी स्त्रियां या पर्यटक भी बेधडक रात्रि विचरण कर सकती हैं। मत भूलें कि अमेरिका पचास राज्यों का देश है, केवल कुछ महानगरों का नही।
जघन्य अपराधों के मामले में अमरीका को भारत से ऊपर रखा जा सकता है या नहीं?भारत से ऊपर, किस आधार पर। नरबलि यहां नही होती, हर दिन में सैंकडों बलात्कार यहां नही होते। केवल जाति या धर्म के आधार पर सौ पचास लोग पलक झपकते ही हलाल नही किये जाते यहॉ। ऐसा नही कि जघन्य अपराध नही होते यहां, पर अपराधी खुले नही घूमते या संसद/विधानसभा में नही बैठते।
वहाँ पारिवारिक समस्याएँ भारत से ज़्यादा हैं या नहीं? हैं, ज्यादा हैं, व्यक्तिवाद है। लोग एक ही शादी निभाने को बाध्य नही। नापसंद होने पर अलग हो जाते हैं। इसका बच्चों पर बुरा असर पडता है। वृद्धों को अधिकतर अकेले ही रहना पडता है। बहुत से युवा भी अकेले रहते हैं। एकाकीपन को मिटाने के लिये लोग कुत्ता बिल्ली पालते हैं, और उन्हे बच्चों से ज्यादा प्यार देते हैं।
अमरीका में अमीरों और ग़रीबों के बीच की खाई भी भारत के मुक़ाबले बड़ी है कि नहीं? नही, ये भारत के समान है। सरकार अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाती है, गरीबों को छूट देती है, भत्ते भी देती है। सभी टैक्स भरते हैं, भारत में धनी किसान भी टैक्स नही भरते, केवल नौकरीशुदा मारे जाते हैं।
एक आम अमरीकी एक आम भारतीय के मुक़ाबले ज़्यादा स्वार्थी है कि नहीं? स्वार्थी की परिभाषा क्या है? क्या सडक पर थूकना, या कचरा गंदगी फैलाना स्वार्थीपन नही। किसी का कॉच का घर बना देखकर और घर में किसी को न देखकर पत्थर मारना स्वार्थीपन नही। स्वार्थी से मतलब अगर आत्मकेंद्रित से है, तो हाँ एक आम अमरीकी एक आम भारतीय के मुक़ाबले ज़्यादा आत्मकेंद्रित है। ज्यादातर लोग किसी के फटे में बेवजह टाँग नही अडाते। मांगो नही तो मदद् भी नही करते।
भारत में आमतौर पर विदेशियों को (ख़ास कर गोरों को) जिस तरह इज़्ज़त दी जाती है क्या अमरीका में विदेशियों को (ख़ास कर भूरों को) उस दृष्टि से देखा जाता है?ये पढकर कुछ देर तक मै हँसा। इज़्ज़त? किस इज़्ज़त की बात कर रहे हैं आप? भारत में लोग गोरों को पागलों की तरह आंखें निकालकर घूरते हैं। स्ट्रीट सेल्समैन उन्हे लगभग जबरदस्ती सामान टिकाने की कोशिश करते हैं। भिखारी रटारटाया "गिव मी वन डालर" अलापते हैं। किसी भी मदद के लिये बदले में डालर पाने की आकांक्षा लिये लोग आगे पीछे घूमते हैं। मौका पाने पर हर व्यक्ति लूटने की कोशिश करता है। क्या यह इज़्ज़त है? अमरीका में हम भूरों को ही क्यों ज्यादातर कालों को भी पूरा सम्मान मिलता है। कम से कम अधिकारिक तौर पर तो मिलता है। लोग अब भूरों को भी जानते हैं, जानते हैं कि उन्हे हमें और हमें उनकी जरूरत है। जानते हैं कि ज्यादातर भूरे ही संगणक के क्षेत्र में छाये हुए हैं। होंगी एकाधी जगहें, या कुछ प्रसंग, लेकिन अगर सम्मान से आपका मतलब अमरीकी भिखारियों के हमारे आगे पीछे घूमने से है, तो हाँ वो हमें यहां नही मिलता। फिर वो तो किसी को नही मिलता यहाँ।
मै अमेरिका समर्थक नही, न ही कोई अमेरिकी प्रवक्ता हूं। लेकिन सच को सच कहना चाहता हूँ। और ये सब लिखने के बाद भी मै एक दिन अपने देश (भारत) ही वापस जाना चाहता हूँ। ऊपर मैने केवल आपके सवालों का जवाब देने की कोशिश की है। अमेरिका के बारे में मेरे अन्य विचार आप
मेरे अनुगूंज के लिये लिखे लेख में पढ सकते हैं। मेरे विचारों से किसी को ठेस पंहुचे तो क्षमा करियेगा, ये सब लिखते हुए मुझे खुद भी शर्म आती है, पर यह एक कडवा सच है कि हम अमेरिका से बहुत पीछे हैं, और हमें उसकी बराबरी करने के लिये बहुत काम करना पडेगा।