Friday, June 30, 2006

फुटबॉल पर एक नज़र

बहुत दिनों से सोच रहा था कि विश्वकप फुटबॉल पर कुछ लिखूंगा, लेकिन दूसरे मुद्दों के आने के कारण लिख नही पा रहा था। अभी तक के सारे मैच देखे। कुछ रिकोर्ड करके देखे कुछ सीधा प्रसारण, और कुछ रिपीट टेलीकास्ट में। बहुत सी टीमों ने प्रभावित किया। सबसे आगे थी घाना। घाना का चेक रिपब्लिक के साथ मैच तो बहुत शानदार लगा। एक गरीब सुविधाविहीन अफ्रीकी देश, जिसके राष्ट्रपति ने घोषणा की थी कि अगर एक भी मैच जीत कर वापस आये तो हर खिलाडी को २५००० डालर मिलेंगे। जीवन भर की कमाई एक मैच से, हर खिलाडी को मैच खेलते समय दिखती रही होगी। चेक रिपब्लिक को हराने के बाद हर खिलाडी जिस तरह उस मैदान को चूम रहा था वो अविस्मरणीय दृश्य था। टीम का हौसला उस मैच के बाद बढ गया और फिर उन्होने संयुक्त रास्ट्र अमेरिका को हराया। ये भी एक शानदार मैच था। सर्वशक्तिमान राष्ट्र एक गरीब पिद्दी से देश से हार गया, लोगों ने खिलाडियों की वैसी छीछालेदर की जैसी अपने यहां क्रिकेट में हार के बाद कर डालते हैं। कोच पर भी थू थू हुई।

दूसरी टीम जिसने प्रभावित किया। वो थी स्विट्ज़रलैण्ड, छोटा सा देश, जहाँ तक मुझे याद पडता है, पहली बार विश्च कप में खेला। लेकिन शानदार प्रदर्शन रहा। जर्मनी, ब्राजील और अर्जेन्टीना तो खैर बहुतों की पसंदीदा टीमें थीं। जहां इंग्लैण्ड तथा फ्रांस पहले के मैचों में प्रभावित करने में असफल रहीं, अब उन्होने भी गति पकड ली है। तीसरी टीम दक्षिण कोरिया थी, जिसके साफ सुथरे खेल और शानदार पासेस का मै पिछले विश्व कप से प्रशंसक हूं।

आज सुबह एक धमाकेदार मैच में पैनाल्टी शूटआउट में अर्जेन्टीना जर्मनी से हार गया। क्या मैच था? मैच के बाद अर्जेन्टीनी खिलाडियों को रोते देखना दारुण दृश्य था। मेरी बगल के डेस्क पर बैठने वाले महानुभाव अर्जेन्टीना के हैं और बिल्कुल पागलों की तरह अपनी टीम का समर्थन करते हैं। उन्होने मुझे कल ही बता दिया था कि अगर अर्जेन्टीना हार गया, तो मै पूरा दिन किसी से बात नही करूंगा। मै डरा हुआ था कि मै उनसे आंखें नही मिलाऊंगा, लेकिन यह क्या? हँसते हुए जनाब बोले अब मै इटली को सपोर्ट करूंगा, मेरी ससुराल की टीम (सुनील जी की तरह)। मैने डरते डरते पूछ लिया अगर मैच अर्जेन्टीना और इटली का हो तो क्या करेंगे? बोले, कुछ नही जी, हम दोनों मियां बीबी एक ही टी वी के सामने बैठ अपनी अपनी टीम का समर्थन करेंगे। फिर जिसकी टीम जीतेगी, वो खाना बनायेगा। वाह साहब वाह, रास आई मुझे "इश्टाइल"।

और इटली ने यूक्रेन को ३-० से हरा कर सेमीफाइनल में प्रवेश किया है। ये मैच मुझे घर जाकर देखना है।

बहरहाल अब मामला जर्मनी और ब्राजील के फाइनल की तरफ जाता दिख रहा है। पर इंग्लैण्ड, इटली और फ्रांस भी हैं अभी तक दावेदारी में।
अब तक का सबसे अच्छा गोल था (जो मुझे लगा), बेकहम का इक्वेडोर के खिलाफ किया गया गोल। ना देखा हो तो वीडियो क्लिप यहां देखें।
चलते चलते दो वाक्य जो मुझे पसंद आये।
१) जब स्विट्ज़रलैण्ड यूक्रेन से पैनाल्टी शूट में हारा तो एक स्विस खिलाडी ने कहा "ये सबसे ज्यादा अन्यायपूर्ण खेल है"।
२) जब घाना ने चेक रिपब्लिक को हराया, कमेंट्रेटर ने कहा "कोई भी टीम किसी विशेष दिन किसी भी टीम को हरा सकती है"।

यूरोप और दक्षिण अमेरिका की कई टीमें "सॉकर गॉड" मतलब "फुटबॉल के भगवान" कही जाती हैं, अफ्रीकी या एशियाई टीमें अभी बहुत पीछे हैं।
चलिये थोडा सा इंतजार और।

Thursday, June 29, 2006

परिपेक्ष्य सही रखें मित्रों

हमेशा होता आया है और एक बार फिर बहसों ने भद्दा रूप लिया और जैसा कि बहुत अनपेक्षित न था कुछ महानुभाव भावनायें लेकर आये बहस मुसाहिबे के बीच। बहरहाल दुःख ये देखकर हुआ कि बहुत से मित्र चीजों को सही परिपेक्ष्य में नही देख पाये। लोगों ने बडी आसानी से हमें (अमेरिकन देसियों को) लगभग देशद्रोही करार दिया। जैसा मैने पहले भी कहा था कि बात एक स्टुपिड से सर्वे से शुरू हुई और जाने कहां कहां तक चली गई। फुरसतिया जी तथा हिंदी ब्लोगर महोदय ने कुछ प्रश्न उछाले और मैने तथा अन्य साथी चिठ्ठाकारों ने पूरे देशभक्त होने के बावजूद ईमानदारी से जवाब देने की कोशिश की। मुझे पूरा पूर्वानुमान था कि सच्चाई बहुत कडवी है, लोगों को गुमान में जीने की आदत है, कुछ को बुरा लगेगा। कहीं मन में आशा की किरण थी कि सारे हिदी चिठ्ठाकार समझदार हैं, पढे लिखे हैं, बुद्धिजीवी हैं, शायद बात को समझेंगे, सही दिशा में सोचेंगे, लेकिन ............।
खैर, जो भी हुआ, अगर आप लोगों को बुरा लगा तो मुझे भी आपका बुरा मानना कुछ ज्यादा रास नही आया।

मुझे पढकर व्यथा हुई, किस तरह लोगों ने हमारे ऊपर हमारे ही देश की छवि के बारे में "भारत की छवि भिखमंगों, असभ्यों, बलात्कारियों के समाज के रूप में अंकित करनी चाही" का आरोप लगा दिया गया। मुझे नही मालूम ये निष्कर्ष इन भाइयों ने कैसे निकाला, पर मेरे लिये यह अच्छा अनुभव नही रहा।
मैने पहले ही कहा था कि "कृपया ये बिलकुल न समझा जाये कि ये पूरे हिंदी चिठ्ठाजगत के विचार हैं या सारे अमेरिकी चिठ्ठाकारों के विचार हैं या सारे प्रवासी भारतीयों के विचार हैं। एक बेहद सीमित बुद्धि के नाचीज़ इन्सान के विचार माने जायें, जिसने अमेरिका में थोडा वक्त ही बिताया है, और जो अपने सीमित ज्ञान के आधार पर इस विषय पर कुछ लिखने का दुस्साहस कर रहा है। मैने मूल विषय पर तो कुछ ना लिखने का फैसला किया है, क्योंकि इतना दुस्साहस मै नही कर पाया, पर मेरे सीमित निजी अनुभव के आधार पर मै फुरसतिया जी के लेख पर श्रीमान् हिंदी ब्लोगर महोदय की टिप्पणी में उठाये प्रश्नों का उत्तर देना चाहूंगा (गलतियों के लिये पहले ही क्षमायाचना)।"
और बाद में भी कि "मेरे विचारों से किसी को ठेस पंहुचे तो क्षमा करियेगा, ये सब लिखते हुए मुझे खुद भी शर्म आती है, पर यह एक कडवा सच है कि हम अमेरिका से बहुत पीछे हैं, और हमें उसकी बराबरी करने के लिये बहुत काम करना पडेगा।"

एक घटना याद आती है, कई साल पहले भारत में मेरे सामने एक सडक दुर्घटना हुई। एक सायकिलसवार एक कार से टकराया, उसे थोडी चोट आई, और मैने देखा कि पूरी गलती सायकलसवार की थी। भीड आई, बिना कुछ सोचे समझे लोगों ने कार वाले को दुर्घटना का जिम्मेदार माना, बेचारा धकियाया, पीटा गया, आखिर पुलिस आई। मैने जो देखा था बताया और वो छोड दिया गया। मेरी मोटरबाइक कार के बगल में ही थी और मैने बखूबी देखा था कि गलती उस कार वाले की बिल्कुल नही थी। आज भी वो घटना मुझे कई बार व्यथित करती है। उसके पिटने पर मै कुछ भी नही कर सका, भले ही मैने उसे पुलिस और आगे बचा लिया, ये मुझे कचोटता है, पर भीड .......... वो सुनती है क्या किसी की। भीडतंत्र है।

अंत में कुछ सवाल आपसे
क्या किसी भी स्वस्थ बहस में भावनायें बीच में लाना उचित है?
क्या सामने वाले के रूख से सहमत न होने पर भी, कम से कम उसकी बात सुनी नही जा सकती?


मेरे विचार से मेरे साथी अमरीकी चिठ्ठाकार इस बात से सहमत होंगे कि हमारा इरादा किसी की भावनायें आहत करने का न था।
मेरे लिये ये बहस यहीं समाप्त हो चुकी है, किसी को बुरा लगे, अच्छा लगे, भावनायें आहत हों, या कुछ और, मुझे जो सच लगा मैने कहा, और जो लगेगा आगे भी वही कहूंगा। क्या चिठ्ठाकारी इसी का नाम नही?

Monday, June 26, 2006

कुछ मेरी भीः अमेरिका

हिंदी चिठ्ठाजगत एक शान्त पडे तालाब की तरह है। ज्यादातर चिठ्ठाकार अधिक सक्रियता नही दिखाते हुए कभी कभी कुछ चिठ्ठे लिख डालते हैं, और इस तालाब का पानी मंद मंद बहता रहता है। कभी कभी सुंदर कमल खिलते हैं, पर ज्यादातर शांतिमय वातावरण में झींगुर बोलते रहते हैं। मै समझता हूँ कि किसी महानुभाव ने जब इस अनुगूंज नामक तत्व की परिकल्पना की होगी, तब उसके पीछे यह सतत् छाई निष्क्रियता या बोझिलता को भंग करने का विचार उसके मन में रहा होगा। खैर, अब तो हालात यह हैं कि अनुगूंज भी बहुत से दिग्गजों को क्रियाशील नही कर पाती।

जब चिठ्ठाकारी में नया नया आया था, तब मुझे इसके इतिहास या भूगोल के बारे में ज्यादा ज्ञान न था, पर धीरे धीरे मुझे पता चला कि अतीत में बडे बडे चिठ्ठाकार हो गये हैं, जो अब नही लिखा करते। थोडा दुःख हुआ, हम उनके समकालीन होने से वंचित हो गये। न लिखने के बहुत से कारण हो सकते हैं, कुछ मजबूरियां हो सकती हैं, समय का अभाव, संसाधनों की कमी, अरुचि हो जाना आदि आदि, ये बेहद व्यक्तिगत मामला है, और अपनी अपनी मर्जी है, कोई किसी का दवाब तो है नही। मर्जी आये लिखें न मर्जी आये ना लिखिये भाई।

कभी कभी खुश होता था कि एक दिन मै भी ऐसे ही विरक्ति होने पर चिठ्ठाकारी से सन्यास ले सकता हूँ, यानी वापसी के रास्ते खुले हैं। भूमिगत (अरे अंडरवर्ल्ड भाई) अपराधों की दुनिया की तरह ये ऐसी दुनिया नही, जहाँ आप प्रवेश तो कर सकते हैं, पर बाहर नही जा सकते, नो वन वे ट्रैफिक।

फुरसतिया जी, रवि जी एवं सुनील जी बेहद सक्रिय चिठ्ठाकार ठहरे। जाहिर है बाकी का चिठ्ठाजगत उनके कदम से कदम नही मिला पाता।
रवि जी तो बेचारे अपने रास्ते चलते रहते हैं, लिखते रहते हैं, बदस्तूर लिखते रहते हैं, और फिकिर नॉट टाइप से लिखते जाते हैं, कोई ज्यादा सरोकार नही रखते कि बाकी का चिठ्ठाजगत क्यों निष्क्रिय पडा है। सच्चे मायनों में "कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर" टाइप। वैसे सुना है, उन्हे कोई इनाम विनाम मिला है, तो कुछ फल तो मिल गया है। पता नही इसकी चिन्ता उन्हे थी या नही, अब ये तो वे ही बेहतर बता पायेंगे।

सुनील जी, नियमित लिखते हैं, और हिंदी चिठ्ठाकारी के बेशकीमती रत्न हैं। उनके देश-विदेश के प्रवास अनुभव, बेबाक लेखन और बेहद ईमानदारी से लिखना ही ये कारण है, कि मै उनका हर चिठ्ठा पढता हूं। सुनील जी, कभी कभी अनजाने में इस शान्त पडे तालाब में पत्थर मार देते हैं, जैसे "आपने अपने सपने पूरे किये या नही"। बहुत दिनों तक दिलोदिमाग पर छाया रहा ये वाक्य, कुछ लोगों ने तो लिख भी डाला। बहुत कोशिश की कि मै भी लिखूँ, लेकिन वही ढाक के तीन पात.........। वैसे सुना है कि सुनील जी को भी इनाम मिला है। वाह भाई वाह।

रहे फुरसतिया जी, तो मै उन्हे हिंदी चिठ्ठाजगत का आधारस्तंभ मानता हूँ। शायद ही कोई हिंदी चिठ्ठा हो, जहाँ उनकी पँहुच न हो। सबसे ज्यादा चिठ्ठाकार अगर जुडे हैं तो फुरसतिया जी से। सबसे ज्यादा टिप्पणियाँ मिली होंगी तो उन्हे और अगर की होंगी तो उन्होने ही, और शायद सबसे ज्यादा चिठ्ठाकार मिलन फुरसतिया जी ने ही किये होंगे। बेहद लंबे लेख, मगर मजाल है कि पकड छूटने पाये कहीं। किसी ने कुछ फरमाइश की, कि बेचारे फुरसतिया जी, रातों की नींद उडाकर भी पेश करते हैं अपने चिठ्ठे पर। मुझे आश्चर्यमिश्रित दुःख हुआ, जब मैने पाया कि चिठ्ठाजगत के इस पुरोधा को पुरस्कार नही मिला। खैर ......... अब उस पर तो अपना बस नही है।

हाल ही में फुरसतिया जी ने एक बार फिर इस शान्त पडे तालाब (जो कुछ नियमित लेखकों के देसगमन के कारण और उदास सा हो गया था) में पत्थर फेंक दिया "अमेरिका और उसके मिथक"। तालाब में हलचल मच गई, कुछ रुकी पडी लेखनियॉ हरकत में आ गईं। बात किसी एक स्टूपिड से (माफ करियेगा इसे हिंदी में नही लिख रहा क्योंकि मूर्ख लिखने से ज्यादा रस इस शब्द में है) सर्वे से शुरू हुई और ना जाने कहॉ से कहॉ पंहुच गई। मैने सोचा कुछ लिखुंगा, फिर जब कुछ लेख पढे, सोचा नही लिखुंगा, बहरहाल इस कशमकश में कुछ समय गुजर गया।

मैने सोचा नही लिखुंगा, जा, क्या होगा, अगर आपने किसी चार-पॉच वर्षीय बालक या बालिका के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त किया है, तो आपको पता होगा कि आप उसे जो भी करने को कहते हैं, वो सदैव उसका विपरीत ही करता या करती है। एक विरोधी मानसिकता, परंपराओं को तोडने की आकांक्षा। बचपन से मै किसी भी प्रकार के असाइनमेंट assignment (माफ करें समझ नही आ रहा उपयुक्त हिंदी शब्द) से चिढता रहा हूं। खुद की मर्जी आये तो ही करूंगा लेकिन कोई और मुझे करने को मज़बूर करे, जहां तक हो सके नही करूंगा, कत्तई नही करूंगा जी। कालान्तर में अभियांत्रिकी एवं मैनेजमेंट के अध्ययन के दौरान मुझे इस विरोधी विचारधारा को तिलांजलि देनी पडी। असाइनमेंट पर ही तो आधे नंबर होते हैं साहब। करो नही तो घर बैठो।

शुरू में मुझे अनुगूंज ऐसा ही असाइनमेंट लगा। लेकिन अब नौकरी कर कर के असाइनमेंट से चिढ अगर भागी नही तो कम जरूर हो गई है, तो कभी फुरसत के वक्त लिख ही डाला। सुनील जी का सपनों पर लिखने का आमंत्रण और अब ये फुरसतिया जी का अमेरिकी चिठ्ठाकारों को खुली ललकार असाइनमेंट ही है हमारे लिये।

बहरहाल इधर उधर की बातें छोडकर अब मुद्दे पर आता हूँ। कृपया ये बिलकुल न समझा जाये कि ये पूरे हिंदी चिठ्ठाजगत के विचार हैं या सारे अमेरिकी चिठ्ठाकारों के विचार हैं या सारे प्रवासी भारतीयों के विचार हैं। एक बेहद सीमित बुद्धि के नाचीज़ इन्सान के विचार माने जायें, जिसने अमेरिका में थोडा वक्त ही बिताया है, और जो अपने सीमित ज्ञान के आधार पर इस विषय पर कुछ लिखने का दुस्साहस कर रहा है। मैने मूल विषय पर तो कुछ ना लिखने का फैसला किया है, क्योंकि इतना दुस्साहस मै नही कर पाया, पर मेरे सीमित निजी अनुभव के आधार पर मै फुरसतिया जी के लेख पर श्रीमान् हिंदी ब्लोगर महोदय की टिप्पणी में उठाये प्रश्नों का उत्तर देना चाहूंगा (गलतियों के लिये पहले ही क्षमायाचना)।

हमारे ब्लॉगरों में से ज़्यादातर अमरीका में हैं. वो हमें बताएँ कि अमरीका में स्ट्रीट क्राइम की स्थिति भारत से बुरी है कि नहीं?
अजी बिलकुल नही जी, भ्रम की दुनिया छोड हकीकत की दुनिया में कदम रखिये। भारत से बुरी तो कदापि नही। कुछ महानगरों में होते हैं स्ट्रीट क्राइम, पर नियंत्रण में, ज्यादातर शहर शान्त एवं सुरक्षित हैं, जहॉ एकाकी स्त्रियां या पर्यटक भी बेधडक रात्रि विचरण कर सकती हैं। मत भूलें कि अमेरिका पचास राज्यों का देश है, केवल कुछ महानगरों का नही।

जघन्य अपराधों के मामले में अमरीका को भारत से ऊपर रखा जा सकता है या नहीं?
भारत से ऊपर, किस आधार पर। नरबलि यहां नही होती, हर दिन में सैंकडों बलात्कार यहां नही होते। केवल जाति या धर्म के आधार पर सौ पचास लोग पलक झपकते ही हलाल नही किये जाते यहॉ। ऐसा नही कि जघन्य अपराध नही होते यहां, पर अपराधी खुले नही घूमते या संसद/विधानसभा में नही बैठते।

वहाँ पारिवारिक समस्याएँ भारत से ज़्यादा हैं या नहीं?
हैं, ज्यादा हैं, व्यक्तिवाद है। लोग एक ही शादी निभाने को बाध्य नही। नापसंद होने पर अलग हो जाते हैं। इसका बच्चों पर बुरा असर पडता है। वृद्धों को अधिकतर अकेले ही रहना पडता है। बहुत से युवा भी अकेले रहते हैं। एकाकीपन को मिटाने के लिये लोग कुत्ता बिल्ली पालते हैं, और उन्हे बच्चों से ज्यादा प्यार देते हैं।

अमरीका में अमीरों और ग़रीबों के बीच की खाई भी भारत के मुक़ाबले बड़ी है कि नहीं?
नही, ये भारत के समान है। सरकार अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाती है, गरीबों को छूट देती है, भत्ते भी देती है। सभी टैक्स भरते हैं, भारत में धनी किसान भी टैक्स नही भरते, केवल नौकरीशुदा मारे जाते हैं।

एक आम अमरीकी एक आम भारतीय के मुक़ाबले ज़्यादा स्वार्थी है कि नहीं?
स्वार्थी की परिभाषा क्या है? क्या सडक पर थूकना, या कचरा गंदगी फैलाना स्वार्थीपन नही। किसी का कॉच का घर बना देखकर और घर में किसी को न देखकर पत्थर मारना स्वार्थीपन नही। स्वार्थी से मतलब अगर आत्मकेंद्रित से है, तो हाँ एक आम अमरीकी एक आम भारतीय के मुक़ाबले ज़्यादा आत्मकेंद्रित है। ज्यादातर लोग किसी के फटे में बेवजह टाँग नही अडाते। मांगो नही तो मदद् भी नही करते।

भारत में आमतौर पर विदेशियों को (ख़ास कर गोरों को) जिस तरह इज़्ज़त दी जाती है क्या अमरीका में विदेशियों को (ख़ास कर भूरों को) उस दृष्टि से देखा जाता है?
ये पढकर कुछ देर तक मै हँसा। इज़्ज़त? किस इज़्ज़त की बात कर रहे हैं आप? भारत में लोग गोरों को पागलों की तरह आंखें निकालकर घूरते हैं। स्ट्रीट सेल्समैन उन्हे लगभग जबरदस्ती सामान टिकाने की कोशिश करते हैं। भिखारी रटारटाया "गिव मी वन डालर" अलापते हैं। किसी भी मदद के लिये बदले में डालर पाने की आकांक्षा लिये लोग आगे पीछे घूमते हैं। मौका पाने पर हर व्यक्ति लूटने की कोशिश करता है। क्या यह इज़्ज़त है? अमरीका में हम भूरों को ही क्यों ज्यादातर कालों को भी पूरा सम्मान मिलता है। कम से कम अधिकारिक तौर पर तो मिलता है। लोग अब भूरों को भी जानते हैं, जानते हैं कि उन्हे हमें और हमें उनकी जरूरत है। जानते हैं कि ज्यादातर भूरे ही संगणक के क्षेत्र में छाये हुए हैं। होंगी एकाधी जगहें, या कुछ प्रसंग, लेकिन अगर सम्मान से आपका मतलब अमरीकी भिखारियों के हमारे आगे पीछे घूमने से है, तो हाँ वो हमें यहां नही मिलता। फिर वो तो किसी को नही मिलता यहाँ।

मै अमेरिका समर्थक नही, न ही कोई अमेरिकी प्रवक्ता हूं। लेकिन सच को सच कहना चाहता हूँ। और ये सब लिखने के बाद भी मै एक दिन अपने देश (भारत) ही वापस जाना चाहता हूँ। ऊपर मैने केवल आपके सवालों का जवाब देने की कोशिश की है। अमेरिका के बारे में मेरे अन्य विचार आप मेरे अनुगूंज के लिये लिखे लेख में पढ सकते हैं। मेरे विचारों से किसी को ठेस पंहुचे तो क्षमा करियेगा, ये सब लिखते हुए मुझे खुद भी शर्म आती है, पर यह एक कडवा सच है कि हम अमेरिका से बहुत पीछे हैं, और हमें उसकी बराबरी करने के लिये बहुत काम करना पडेगा।

Friday, June 23, 2006

हजार मारें पूरी हुईं

अरे भाई, शीर्षक देख कर चौंकें नही। मै हिट काउन्ट की बात कर रहा था। आखिरकार मेरे चिठ्ठे ने भी खरामा खरामा करके हजार का आंकडा पार किया। हो सकता है कि कुछ गिनती हमारी वजह से बढी हो, फिर भी अब आंकडे तो यही बोलते हैं, कि हो गये हजार पार। समझ में नही आता कि इस बात पर खुश होऊँ कि रोऊँ, क्योंकि समीर जी ने एक बार कहा था कि "ब्लोगिंग की दुनिया तो वो दुनिया है दोस्त, जहाँ दो चार पोस्ट तक तो लौटना संभव है, अभी भी वक्त है लौट जाओ" मैने उनकी सलाह नही मानी और मूढबुद्धि होने का पूरा परिचय देते हुए हिंदी में "कचरा पोस्टों" की सँख्या बढाने में जी जान से लगा रहा। बहुत सी कचरा पोस्टें लिख ही डालीं। अब मै कोई फुरसतिया जी तो हूँ नही कि "हम तो जबरिया लिखबै" कहते हुए भी शानदार लिखूँ और सुखद लिखूँ। जो भी मन में आता है लीक (लिख) देता हूँ। लेखनी भी सधी नही है और भाषा भी कई बार ऊटपटांग सी हो जाती है। चिठ्ठाकारी में आने से पहले कई दिनों तक मै मात्र दूसरों के चिठ्ठे पढा करता था और प्रसन्न होता था। जाने एक दिन किस रौ में आकर मैने भी एक खाता खोल ही दिया "ब्लोगर" पर, पर कई दिनों तक कुछ भी नही लिखा गया। एक दिन डरते डरते जब कुछ लिखने का दुस्साहस किया, तब अगले दिन ही मुझे कुछ प्रतिक्रियाएँ मिलीं, और उनमें मेरा पर्याप्त उत्साहवर्धन किया गया था, या ये कहें कि मै फंस चुका था। बस फिर क्या था, दनादन दूसरी पोस्ट दाग दी। तीसरी पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर मै थोडा विचलित हुआ, और समीर जी ने प्रतिक्रियास्वरूप जो लेख लिखा, वो अब इतिहास है। खैर, निष्कर्ष ये निकला कि चिठ्ठाकारी की दुनिया में मै रह गया और नतीजा आपके सामने है। मैने एक दूसरा चिठ्ठा भी शुरू किया "जलते हुए मुद्दे", और वो भी ४०० का आँकडा छू चुका है। मै आप सभी के धैर्य का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ, जिन्होने मेरी "कचरा पोस्टों" को भी पढा, पढा या न भी पढा पर हिट किया और इस तरह हजार मारें पूरी की। आगे भी इसी तरह आप सबकी मार, अरे माफ कीजियेगा प्यार मिलता रहेगा इसी उम्मीद के साथ।

विदेशों से भारत को पैसा

कुछ समय पहले अनुनाद जी ने मेरे एक लेख (डालरनामा - महिमा हरे रंग की) पर टिप्पणी में लिखा था। "क्यों नही एक लेख विदेशों से भारत को पैसा भेजने के विविध तरीकों पर लिखें | बहुत से लोगों को फायदा होगा | " इस संक्षिप्त लेख में मै ये कोशिश करूंगा।

वैसे तो बहुत से तरीके हैं, शायद उनमें से कुछ का मुझे पता भी न हो, जैसे सिटीबैंक की कोई स्कीम है या वेस्टर्न यूनियन मनी ट्रांसफर हो। मै और मेरे जानने वाले सारे मित्र आई सी आई सी आई (ICICI) बैंक की मनी टू इंडिया का उपयोग करते हैं, और ये बेहद उपयोगी और भरोसेमंद तरीका है। आपके पास भारत में जिस बैंक में पैसा भेजना है उसका राउटिंग नंबर तथा जिस एकाउंट में पैसा भेजना है, उसका एकाउंट नंबर होना चाहिये। अमेरिका में आपके पास अगर क्रेडिट कार्ड है, या किसी भी अमेरिकी बैंक में चेकिंग एकाउंट होना चाहिये। चेकिंग एकाउंट का मतलब है, नगण्य ब्याज वाला एकाउंट, लेकिन इसे खोलना सबसे आसान है, और ज्यादातर कोई सालान शुल्क नही होता। केवल एक ही सीमा है और वह है कि सारे बैंकों में पैसा नही भेजा जा सकता, बैंक आई सी आई सी आई (ICICI) बैंक की ट्रांसफर लिस्ट में होना चाहिये। लेकिन शायद ही कोई दूर दराज के गाँव में स्थित ऐसा बैंक हो, जो इस सूची में न हो। अगर आपका खाता आई सी आई सी आई बैंक की किसी शाखा में है, तो क्या कहने।

वैसे तो टाइम्स ग्रुप का रेमिट टू इंडिया भी है, और शायद ये दुनिया में भारतीयों द्वारा सबसे ज्यादा पैसा इनके द्वारा भारत भेजा जाने का दावा भी करता है। लेकिन आम तौर पर इनका एक्सचेंज रेट मनी टू इंडिया से कम होता है।

ज्यादातर लोग इन्ही दो में से किसी एक का उपयोग करके भारत पैसा भेजते हैं।

दिनोंदिन हर रोज ही डालर का एक्सचेंज रेट बदलता रहता है, सभी लोग ज्यादा रेट पर ही पैसा भेजने की कोशिश करते हैं, लेकिन एक समस्या यह है कि आम तौर पर अगर वायर ट्रांसफर न हो, तो पैसा पँहुचने में पाँच दिन का समय लगता है, और आपको एक्सचेंज रेट आखिरी दिन का सबसे कम रेट मिलता है। मतलब ये, कि अगर आप अच्छे भविष्यवक्ता हैं और आप ये भविष्यवाणी कर सकें कि पाँच दिन बाद रेट कम नही हो जायेगा, तभी आप अच्छा रेट पाने में सफल हो सकते हैं। एक्सचेंज रेट आपके द्वारा भेजे जाने वाली राशि पर भी निर्भर करती है, और ज्यादा राशि के लिये ज्यादा अच्छा रेट मिलता है, लेकिन ज्यादा प्रकार के विनिमय (ट्रान्सेक्शन्स) में पांच हजार डालर की अधिकतम सीमा प्रतिदिन है। अगर राशि एक हजार डालर से कम है, तो आपको कुछ फीस भी देनी पडती है, जो एक हजार डालर से ज्यादा राशि भेजने पर कुछ नही होती।

आशा है, अनुनाद जी के प्रश्न का उत्तर उन्हे मिल गया होगा। मेरे कुछ और भाई, अगर इस विषय में कुछ और प्रकाश डालना चाहें, तो मुझे खुशी होगी। शायद मुझे भी कुछ नया पता चलेगा।

Wednesday, June 21, 2006

अन्तरजाल पर हिंदी के खजाने

आपमें से बहुत से लोगों को अन्तरजाल पर उपलब्ध हिंदी के बहुत से खजानों का पता होगा। मुझे भी बहुत से खजाने मिले हैं, एक पूरी सूची दे रहा हूँ, अगर आपको पहले से नही पता है, तो शायद आपके लिये ये जानकारियाँ रोचक हों।
पहले तो भारत की नामी गिरामी पत्रिकाओं की अन्तरजाल पर उपस्थिति देखते हैं।

पत्रिकायें
हंस (पुराने अंक पर क्लिक करें, और जून २००४ के बाद के अंकों का रसास्वादन करें)
वागर्थ
तद्भव
हिंदीनेस्ट
अभिव्यक्ति
अनुभूति
सृजनगाथा

समाचार पत्र

हिंदुस्तान टाइम्स
नवभारत टाइम्स

कुछ अन्य

बीबीसी हिंदी
हिंदी साहित्य विकीपीडिया
भाषाइंडिया
इंडियावर्ल्ड
वर्डपेन्ट
कनाडा का सरस्वती समाचार पत्र
वेबदुनिया

कुछ रोचक अमेरिका प्रवास संस्मरण

सबसे ऊपर रखता हूँ हमारे साथी चिठ्ठाकार अतुल भैया के संस्मरण। मुहावरेदार भाषा के धनी अतुल जी का लच्छेदार कहानियाँ सुनाने में कोई सानी नही लगता।
हिंदी की प्रख्यात लेखिका सूर्यबाला जी के वागर्थ में छपे संस्मरण
वागर्थ से ही कुछ और पढें यहाँ या यहाँ
और ये पढें अमेरिका में पहली रात का किस्सा हिंदीनेस्ट से।

पुस्तकों से जुडी कुछ यादें

बहुत पहले की एक घटना याद आ रही है। बहुत से साथी चिठ्ठाकारों की ही तरह मुझे भी बचपन से ही पढने का कीडा काट चुका था और जो कुछ भी हमारी सीमा में पढने के लिये उपलब्ध होता, जल्दी से चाटकर नये की तलाश शुरू कर दी जाती थी। बहुत छोटा था मै और गरमी की छुट्टियों में दादा दादी के घर गया था। एक दिन महाभारत हाथ लग गयी और फिर क्या था, बस मै और वो किताब। दीन दुनिया की खबर जाती रही। खाना खाया या नही खाया, कुछ याद नही रहता था। मेरे दादा जी पढने को बुरा नही मानते थे, पर वो ये मानते थे कि इतनी छोटी उम्र में इतना ज्यादा पढना ठीक नही, थोडा खेलना कूदना भी चाहिये। लेकिन अब साल में एक दो महीने ही हमें देख पाते थे, तो इस विषय पर नाखुश होकर भी कुछ बोलते नही थे। एक दिन पिता के बचपन के एक मित्र पधारे और दादाजी ने शिकायती लहजे में मेरा परिचय दिया "इतनी छोटी उम्र में महाभारत पढ रहे हैं", पिता के मित्र ने जो जवाब दिया, उसे मैने गाँठ बांध लिया, और वो था "बाबू जी पुस्तकों का सबसे बडा सौभाग्य यही है कि कोई उसे पढे, मनुष्य की सबसे बडी मित्र पुस्तकें ही हैं"। इस बात को मैने जीवन में बखूबी महसूस किया है, और मेरे अच्छे मित्रों को मै हमेशा अपने पास ही रखता हूँ। आशा है आप आनन्द उठायेंगे, इन खजानों का, जो हमें अन्तरजाल पर उपलब्ध हैं, और इन खजानों के होने का अर्थ ही यही है कि इन्हे पढा जाय गुना जाय।

Friday, June 16, 2006

काश हमारी टीम भी होती

टेलीविज़न पर विश्व कप फुटबाल देखते हुए और मीडिया में उसे छाया देख मन में एक टीस उठती है, काश हमारी टीम भी होती इसमें। सारे गैरभारतीय पडोसी या मित्र पूछते हैं "तुम किस टीम के साथ हो?" या "तुम्हारी टीम क्यों नही है?" क्या घोर आश्चर्य लगता है उन्हे कि १२५ करोड की आबादी वाला शक्तिशाली देश एक दर्जन खिलाडी भी पैदा नही कर पाया जो विश्व स्तर पर फुटबाल खेल सकें। ऐसा भी नही कि हमारे यहाँ एकदम ही फुटबाल नही खेला जाता। कई राज्यों में यह मुख्य तौर पर खेला जाता रहा है, जैसे बंगाल या केरल या गोवा। अरे मैने भी खेला है बचपन में (भले ही स्कूल में थोडा सा ही खेला हो, और इससे बहुत ज्यादा खेला हो क्रिकेट), और मेरे जैसे कइयों ने खेला होगा, आखिर बहुत कम संसाधनों में खेला जा सकने वाला खेल है ये। जहाँ त्रिनिदाद एण्ड टोबैगो जैसे १० लाख की आबादी (मुम्बई का दसवाँ हिस्सा या भारत के किसी भी छोटे जिले की आबादी के बराबर), सउदी अरब जैसे २६ लाख की आबादी या स्विट्ज़रलैण्ड जैसे ७५ लाख (मुम्बई या कोलकाता महानगर से बहुत कम) आबादी वाले देशों की अपनी टीमें जहाँ अच्छा प्रदर्शन कर रहीं हैं, हम जनसँख्या में बहुत अधिक होते हुए भी इस महाकुम्भ से सिरे से ही गायब हैं।

कारण है कि आज भी कोई भी भारतीय परिवार अपने बच्चों को कैरियर के रूप में खेल अपनाने की सलाह नही देते। कितनी ही खेल प्रतिभायें प्रोत्साहन के अभाव में आगे नही बढ पातीं या पढाई की चक्की में पिसकर अपनी इच्छाओं का गला घोंट देतीं हैं। "पढोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलो कूदोगे तो होओगे खराब" ये आज भी कितने ही परिवारों का गुरुमंत्र है। ग्लैमर अगर खेलों से जुडा भी है तो केवल क्रिकेट से। आज भी सचिन, विश्वनाथन आनन्द या सानिया मिर्जा से ज्यादा जाना पहचाना नाम है। और भारत के धनराज पिल्लै या वाइचुंग भूटिया का नाम कितने भारतीय जानते हैं, विदेशियों की बात तो छोड ही दीजिये। भारत में भविष्य को लेकर युवा वर्ग में जो असुरक्षा की भावना है, वही कारण है कि भारत की प्रतिभायें कुछ गिने चुने खेलों को छोडकर बहुत कम ही उभर पाती हैं।

भारत में खेल संसाधनों का बेहद अभाव है। कुछ गिने चुने महानगरों को छोडकर छोटे शहरों या कस्बाई स्तर पर सुविधायें नही के बराबर हैं। अगर खेलों में होने वाले प्रति व्यक्ति खर्च को देखा जाय तो भारत बहुत बहुत पीछे नज़र आयेगा।

कभी कभी सोचता हूँ ठीक ही है जो टीम नही है हमारी। कम से कम निष्पक्ष होकर हम खेल का मजा तो ले सकते हैं। होती भी हमारी टीम अगर तो ज्यादातर एशियाई टीमों की तरह पहले दौर में ही बाहर हो जाती शायद। अभी तो हम जो भी टीम अच्छा खेलती है, उसका समर्थन कर डालते हैं। जर्मनी ठीक खेले तो वो, नही तो ब्राजील या अर्जेन्टाइना।

क्या कभी ऐसा होगा कि हमारी टीम भी विश्व कप में अपना परचम लहरायेगी? क्या कभी "जन गण मन" की धुन भी हमें विश्व कप के स्टेडियम से सुनाई देगी? शायद मेरे जीवन में ऐसा हो कभी। शायद कई साल बाद ऐसा हो कभी? शायद मेरा बेटा ऐसा होता हुआ देख पाये? आइये हम दुआ करें कि हमें मिले कभी उत्साहवर्धन के लिये एक अदद विशुद्ध भारतीय टीम (भले ही वो ज्यादातर एशियाई टीमों की तरह पहले दौर में ही बाहर हो जाये)। तब तक हम ठंडी आहों से ही काम चलाते हैं "काश हमारी टीम भी होती"।

Monday, June 12, 2006

बीसवीं अनुगूँज: नेतागिरी,राजनीति और नेता

Akshargram Anugunj

जब ये विषय देखा तो सोचा कि इस बार तो मै कुछ लिखने से रहा। एक सच्चा भारतीय होने की वजह से लिखने का क्या है, किसी भी विषय पर लिख सकता हूँ, और फिर राजनीति, क्या बात करते हैं साहब। ये तो घर घर पर, मोहल्ले मोहल्ले पर, चौराहे चौराहे पर और पान की हर दुकान पर, बसों में, रेलों में भारत में कहीं भी ये चर्चा तो मिल ही जायेगी आपको। मैने सोचा इस पर तो बीसवीं अनुगूँज में इतने लेख लिखे जायेंगे कि मेरा लेख कौन पढेगा। पर लगता है ज्यादातर चिठ्ठाकार प्रवास में हैं, तो ये बीडा किसी को तो उठाना पडेगा ना। तो साहब प्रयास करता हूँ, गलतियों के लिये शरू में ही क्षमायाचनासहित।

हजारो वर्ष पूर्व जब इस शब्द का आविष्कार हुआ होगा तो एक बडा ही पवित्र शब्द रहा होगा। राजनीति मतलब राजा की नीति, धर्म की नीति। तब शायद ये शब्द एक गाली की तरह उपयोग नही होता रहा होगा। आज कोई आपको यह कह दे कि "तुम बहुत राजनीति करते हो यार" ऐसा लगेगा बीच बाजार में पचासों जूते मार दिये किसी ने। ऐसा क्या हुआ है जिससे ये शब्द एक पवित्र शब्द से एक असहनीय गाली में बदल गया।

वैसे देखा जाय तो प्राचीन भारत (या विश्व) का इतिहास भरा पडा है, राजमहल में होने वाले षडयंत्रों से, सौतों के डाह से, अपनों के कत्लों से। राज प्राप्त करने के लिये लोगों ने सारी हदें पार कीं। कई बार योग्य उम्मीदवार मारे गये और अयोग्य सत्तारूढ हुए। एक उदाहरण है दाराशिकोह जिसे मारकर औरंगजेब ने दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा किया था। लोग कहते हैं दारा ज्यादा योग्य था। अब राजा बनने के बाद नीति तो औरंगजेब की भी राजनीति ही कहलाई।

अब ये देश का दुर्भाग्य ही रहा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यही सिलसिला जारी रहा है और दारा हमेशा मारे जाते रहे हैं और औरंगजेब हमेशा राज करते रहे। आज भी योग्य उम्मीदवार अपनी जमानत भी नही बचा पाते। चुनाव लडना एक बेहद खर्चीला काम है और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह आम जनता कर अदायगी के समय चुनाव खर्च का पैसा नही देती। पैसा कहाँ से आयेगा? जाहिर है जो आपके ऊपर पैसा लगायेगा वो एक तरह का निवेश करेगा और बदले में आपसे कुछ चाहेगा। भारत के सभी बडे उद्योगपति इसी तरह से राजनीतिक दलों पर पैसा लगाते हैं, और समय आने पर वसूलते भी हैं।

भारत विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है। शायद सबसे सफल भी कहा जाता होगा लेकिन ढेरों विसंगतियां हैं। दूरदर्शी राजनीतिक दलों का अभाव है। जनता भी दूर का नही सोचती। आज भी वोट डलने से पहले कम्बल बँटते हैं, शराब का दौर चलता है, जीतने के बाद नेता पहले अपना घर भरते हैं, फिर समर्थकों में बंदरबाँट करते हैं। बहुत से ज्यादा समझदार लोग वोट ही नही डालते "सब के सब साले एक जैसे हैं, किसको वोट दूँ, कोई मेरे वोट के लायक नही है" या "एक हमारे वोट से क्या उखड जायेगा"।

आज का ही समाचार है। जब देश की आम जनता भीषण गरमी से जूझ रही है, हमारे नीतिनिर्धारक मय परिवार विदेश की ठंडी चरागाहों में बैठे हैं। हमारे आपके जैसे करदाताओं के कर का कितना सही उपयोग करते हुए। समाचार के अनुसार वाम समर्थित काँग्रेस सरकार के ग्यारह केंद्रीय मंत्री विदेश में हैं। इनमें से सोमनाथ चटर्जी सहित कई तो विश्व कप फुटबाल देखने जरमनी में हैं। यही लोग हैं जो कल आपको आम आदमी का दुखडा रोते नज़र आयेंगे संसद में। आम आदमी मतलब वो आदमी जिसके पास वोट है, पर अकल नही है। उसे उल्लू बनाकर वोट निकलवाने का खेल ही राजनीति है। उल्लू बनाने वाला नेता है।

आज कितने ही उदाहरण भरे पडे हैं उन नेताओं के जिनके घर राजनीति में आने से पहले भूंजी भांग भी नही थी और आज छापों में करोडों निकलते हैं, या आज दिन का खर्च लाख रूपये है। जनता को भी आजकल कोई आश्चर्य नही होता। ये भी और "आम" समाचारों की तरह एक अदना सा समाचार है। दिन गया कि समाचार पत्रों से गायब हो जाता है और आम आदमी की स्मृति से भी।

चुनाव में धर्म चलता है, जाति चलती है। लोग भेड बकरियों की तरह केवल अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देते हैं, योग्य हो या न हो।

चुनाव में लाठी भी चलती है। बाहुबली करें भी तो क्या, उनकी पहचान का और रोजी रोटी कमाने का सही वक्त है चुनाव। हमारे पडोस के जिले में एक राजा साहब चुनाव में खडे हुए थे, उनका वोट मांगने का तरीका अभिनव था। गाँव गाँव हाथी पर बैठकर गये और लोगों से पूछा "किसको वोट दोगे?", अब राजा साहब पूछ रहे हैं लोग क्या जवाब देंगे भला। सबने कहा "आपको सरकार"। "फिर ठीक है, मतदान केंद्र आने का कष्ट न करें, हम आपका वोट डाल देंगे"। और बस चुनाव के दिन मतदान केंद्र खाली होते थे, लेकिन वोट पूरे सत्तर अस्सी प्रतिशत पड जाते थे, राजा साहब हमेशा जीतते रहे, जबतक कि एक दिन मौत उनसे न जीत गई।

आपने सुना होगा भइया राजा का वो प्रचार गीत, उस समय बसपा का उदय नही हुआ था और निर्दलीय उम्मीदवार भइया राजा को पन्ना मध्यप्रदेश के पास के उनके एम एल ए के चुनाव के लिये हाथी का चुनाव चिन्ह मिला था।
मोहर लगेगी हाथी पर
नही तो गोली चलेगी छाती पर
और लाश मिलेगी घाटी पर।

आज मुझे याद नही पडता कि वो जीते थे या हार गये थे, लेकिन ये चुनाव प्रचार का अनूठा तरीका अनेकों पत्र पत्रिकाओं में छाया रहा था।

फर्जी मतदान भारत के चुनाव का एक अभिन्न अंग है। जब आपकी पहचान अंदर बैठे हुए राजनीतिक दलों के एजेन्टों ने ही करनी है तो भाई वो भी तो मनुष्य ही हैं। मतदान सूचियों में गडबडियाँ भी अब हर चुनाव का एक हिस्सा हैं। जब लोगबाग समझाने से भी नही समझते, पूरे के पूरे कुनबों के नाम उडा दिये जाते हैं, "जाओ डालो वोट, बहुत शौक चढा था, उखाडो जो उखाडना है"।

कुल मिलाकर राजनीति के शुद्धीकरण का रास्ता चुनाव सुधारों से शुरू होता है। जब तक चुनावों में जाति चलेगी, पैसा चलेगा, बाहुबल चलेगा और फर्जी मतदान चलेगा तब तक योग्य व्यक्ति राजनीति को एक गाली समझता रहेगा। जरूरत है ऐसे लोगों की जो देख सकें पार छोटे छोटे स्वार्थों के, जो पहचान सकें आने वाले समय की आहटों को, जो ले जा सकें भारत को अगली सदी में, जो ऊपर हों वोट बैंकों के गंदे खेल से। पर ऐसे लोग मिलेंगे कहां। शायद हमारे बीच ही, पर उनके लिये चुनाव जीतने और संसद तक जाने का मार्ग है चुनाव, और वो मार्ग हमें प्रशस्त करना होगा।

बस यहीं पर रुकता हूँ, लेख को ज्यादा बोझिल नही करता।

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Friday, June 09, 2006

क्या आप बता सकते हैं?

सावधान।
कमजोर दिल वाले न पढें।

चाँदनी रात है
चारों ओर सन्नाटा
कुछ अजीब सी आवाजें
देखता हूँ इधर उधर
उठाकर सर को जब
छाई है खामोशी
कोई नही है दूर दूर तक
लाल रंग की मिट्टी पर
कब्रें ही कब्रें हैं बस
भयावह आहटें
डरावनी आकृतियाँ
चलती है हवायें
सरसराती हुई सी
चाहता हूँ चीखना मै
जोर से गला फाडकर
कुछ फँस गया है गले में
भागने की कोशिश में
जब उठाता हूँ पाँव
निकलते हैं कई हाथ
जमीन के अंदर से
रोकने के लिये मुझे
दूर दूर तक बस
कब्रें हैं और हाथ हैं
और है भयानक बेबसी
क्या करूँ क्या नही
इतने में कहीं दूर से
आती है इक आवाज
जानी पहचानी सी
तेज होती हुई
छुट्टी है क्या आज
उठना नही है क्या?
खोलता हूँ आँखें मै
उफ, क्या भयानक
स्वप्न था ये
पर अगर ये स्वप्न था
तो कहाँ से आई ये
लाल मिट्टी मेरे पैरों में
क्या वो हकीकत थी?
क्या आप बता सकते हैं?

Wednesday, June 07, 2006

इक जागी जागी रात

कल की रात भी इक जागी जागी रात थी।
दूर तनहाइयों से मुझको पुकारता रहा कोई।।
चँहुओर छाया था अँधियारा और घिरे घनेरे बादल।
घनघोर चलती पुरवाई थी, थी चाँदनी कँही सोई।।
जाने कहाँ कहाँ भटका मन, यादों में जग घूम लिया।
कितने पन्ने वापस आये, यादों की पुस्तक थी खोई।।
चेहरे आये लगे पूछने सवाल कुछ पहचाने से।
कितने ही पल बीत गये यूँ शुरू हुई जब किस्सागोई।।
जागी जागी रातों में ही चले आँधियां यादों की।
भावों के बादल हैं छाते चले अतीत की पुरवाई।।


हायकू बोले तो

पढ लो ज़रा
जागी जागी रातों में
क्या क्या होता

Thursday, June 01, 2006

अवसाद भरी ये दुनिया

अवसाद भरी ये दुनिया

तरह तरह के अवसाद हैं इस दुनिया में। अब देखिये क्रिकेट में भारत हार गया और वो भी बुरी तरह से। ४-१ भी कोई स्कोर हुआ। वही टीम जो युवा खिलाडियों के बल पर झंडे गाड रही थी, इतनी बुरी तरह धाराशाई हुई कि देखा न गया।। १२५ करोड लोग अवसादग्रस्त। लोगों के मूड ओफ। हर एक बन्दा बुझा बुझा। देश हो या हो परदेश क्रिकेट हमारा राष्ट्रीय गौरव है। दो भारतीय मिलें, चाहे वो लखनऊ हो या सैनफ्रांसिस्को, क्रिकेट की बात न करें, भला कैसे संभव है? अगर न करें तो जरूर कुछ असामान्य है, दोनों के बीच।

दूसरा कारण भारतीय स्टॉक मार्केट (मुद्रा बाजार कहेंगे क्या, माफ कीजियेगा अगर गलत हो) है, पहले तो गुब्बारे की तरह फूलता जा रहा था, बस फूलता जा रहा था। लोग खुश थे, कुछ जिन्होने पहले ही घबराकर शेयर बेच डाले, सर पीट रहे थे। ज्यादातर अकर्मण्य लोग बहुत खुश थे। शेयर वैल्यू दिनबदिन बढती जो जा रही थी। एकाएक पता नही क्या हुआ? दुनिया भर के बाजार क्या गिरे, भारत का भी धूल चाट रहा है। लोगों ने हजारों लाखों गँवा दिये। सरकार कहती है, म्यूचुअल फंड खरीदो, वो भी गिरे सब मुँह के बल। अब आजकल ये हाल है कि रोज सुबह ऊपर, शाम को गिर जाता है बाजार। मानों बाजार ना हुआ किसी दुकान का शटर हुआ। एक बेचारा आम आदमी जो हिम्मत करके किसी तरह पैसा लगाने को तैयार हुआ था, पुराने यू एस ६४ या केतन पारेख या हर्शद मेहता काल को भूलकर, फिर बिदक गया है। जिन्होने पैसे गवॉ दिये हैं उनके मन में अवसाद है।

मई जून का महीना बहुत सी भारतीय कम्पनियों में वार्षिक तनख्वाह वृद्धि या रेटिंग रिलीज़ होने का वक्त होता है। अब कम्पनियॉ भी क्या करें, फायदा भी तो कमाना है ना, शेयर होल्डर्स को भी जवाब देना है, और सबको तो अच्छी तनख्वाह वृद्धि दे नही सकते। बहुत से बेचारे लोगों को अच्छे काम (परफारमेन्स) के बावजूद कम तनख्वाह वृद्धि मिलती है और बॉस कहता है, तुम्हारा काम अच्छा है, पर क्या करूं यार, ऊपर से आदेश आया है। कई लोग अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं।

बारिश जल्दी हो गई। किसान चिन्ताग्रस्त है, पता नही मानसून कैसा होगा। कुछ लोग कहते हैं जिस साल जल्दी बारिश हो जाये, मानसून अच्छा नही होता। कुछ लोग बारिश जल्दी होना अपशगुन मानते हैं। पहले ही लोग कर्जा ले कर बैठे हैं, हे भगवान अगर बारिश अच्छी न हुई तो क्या होगा।

मुम्बई-पूना के लोग घबराये बैठे हैं, भारी बारिश की भविष्यवाणी पिछले साल की दर्दभरी यादें वापस लाई है। पता नही सरकार ने कितना इंतजाम किया है। पर सरकारी इंतजामों का क्या भरोसा?

वहीं अमेरिका में तटीय क्षेत्रों के लोग घबराये हैं, वापस आ रहा है हरीकेन सीज़न यानी कि चक्रवातों का मौसम। कहीं न्यू ओर्लियोन्स की तरह कैटरिना की पुनरावृत्ति न हो जाये। सरकारी इंतजामों का भरोसा लोगों को यहॉ भी नही।

आरक्षण का क्या चल रहा है? पहले तो हडताल इतने दिनों तक क्यों चली? ऐसा क्यों है कि सरकार हडताली चिकित्सकों को मनाने में असफल रही। कोई भी राजनीतिक दल हडताली चिकित्सकों के साथ नही था। क्यों सर्वोच्च न्यायालय को आना पडा बीच में? अब किस किस चीज़ के लिये सर्वोच्च न्यायालय दखल देगा। क्या पहले ही उसके पास काम की कमी है। और अब निज़ी सन्स्थानों पर भी सरकार का आरक्षण लागू करने का दवाब। क्या बच्चों को कोई भविष्य मिल पायेगा। क्या अवसादग्रस्त होकर तो नही रह जायेंगे।

मई जून के महीने होते हैं भारत में करोडों छात्रों के परीक्षा परिणामों के आने के। कई प्रतियोगी परीक्षाओं (जैसे आई आई टी, पी ई टी, अभियांत्रिकी प्रवेश या मेडिकल प्रवेश) के नतीज़े घोषित होने का। हजारों हजार छात्र निराश हो जाते हैं, कइयों को समुचित मार्गदर्शन उपलब्ध नही होता। भविष्य अन्धकारमय दिखाई देने लगता है।

खबरों में पढा, कुछ लोगों ने आरक्षण के चलते आत्मदाह की कोशिश की। ये भी पढा कि कुछ छात्रों ने परीक्षा परिणामों के अनुकूल न होने पर आत्महत्या कर ली। क्यों? अवसाद आता है, असहायता की स्थिति से। जब मन में ये विचार आये कि "क्या कर सकते हैं हम?"। जब कुछ अप्रिय हो रहा हो और हम कुछ कर सकने की अवस्था में न हों। जब चारों तरफ से बुरी ही बुरी खबरें सुनाईं दें। जब मन आशंकाग्रस्त हो। भविष्य अन्धकारमय दिखाई देने लगे। अवसादग्रस्त मनुष्य को सबकुछ अवसादमय दिखाई देता है और वो गाता है यह गीत "बागन में बगियन में बगरो अवसाद है, दुनिया फसाद है, सब बकवास है"।

मूलभूत कारण है, आशा। जी हॉ आशा ही निराशा का कारण है। आपकी आशाओं का पूरा न होना ही आपको अवसादग्रस्त बनाता है। निवेशक आशा करता है निवेश अच्छा होगा। विद्यार्थी आशा करता है परीक्षा परिणाम अच्छा होगा। चिठ्ठाकार आशा करता है चिठ्ठा लोग पढेंगे।

अवसाद अनुवांशिक (ज़ैनेटिक) भी होता है। कुछ लोग जल्दी अवसादग्रस्त हो जाते हैं, कुछ विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कराते हैं ( मन ही मन बुदबुदाते रहते हैं "सतयुग आयेगा - जयगुरुदेव")। आपके लालन पोषण पर भी निर्भर करता है कि आप कितनी जल्दी अवसादग्रस्त होते हैं। यदि बचपन से आपको बडे नाजों से पाला गया है तो विपरीत परिस्थितियों में आपके हाथों पैरों का जल्दी फूल जाना स्वाभाविक है। बचपन से विपरीत परिस्थितियों से लडने वाले बॉके शूर बहुत मजबूत होते हैं। उनके शब्दकोश में इस शब्द की कोई जगह नही होती।

आप किसी भी मनोरोग विशेषज्ञ का उदाहरण ले लें। सबका धन्धा अच्छा चल रहा है। दुनिया में हर जगह मनोरोगियों की सँख्या दिनबदिन बढ रही है। नित नये नये मनोरोग सुनने में आते हैं। क्यों। कारण है, संयुक्त परिवार का विघटन। लोगों का आपस में कम मिलना जुलना। रिश्तों का टूटना। हर क्षेत्र में बढती प्रतिस्पर्धायें। बढती महत्वाकांक्षायें। हर किसी के पास सुनाने के लिये बहुत कुछ है, लेकिन सुनने वाला कोई नही। हर किसी के मन में भरी हुई है भडास, कहॉ निकालें। इस दुनिया में धैर्य रखकर सुनने वाला बहुत किस्मत वालों को मिलता है, नही तो हर व्यक्ति ऐसा कि "मैने तेरा झेला, अब तू मेरा झेल"। एक अच्छा मनोरोग विशेषज्ञ बहुत अच्छा धैर्य रखकर सुनने वाला होता है।

मेरे विचार से चिठ्ठाकारी इस मामले में अवसाद कम करने का बहुत अच्छा साधन है। आप अपनी सारी भडास यहॉ निकाल सकते हैं। बिन्दास। इस दुनिया में जहाँ लोगों से मिलना जुलना कम हो गया है, सम्वाद का यह जरिया अपने विचारों को व्यक्त करने का बेहद शानदार माध्यम है। दुःख ये है कि १२५ करोड की आबादी के हिसाब से अभी भी हिन्दी चिठ्ठाकारी बहुत पीछे है। एक पुरानी सुनी बात याद आ रही है।
भारत में
कोई भी समय चाय का समय होता है।
कोई भी व्यक्ति चिकित्सक होता है (विश्वास न हो तो किसी को भी कोई बीमारी बता कर देखैं)
कोई भी जगह प्रसाधनस्थल (या मूत्रालय) होती है।
कोई भी व्यक्ति, किसी भी विषय पर कितनी ही देर तक बोल सकता है। अब देखिये मै ही कितना कुछ बोल गया ना अवसाद पर।
तो अब बस करता हूँ। चिन्ता मत करें मै आपको धैर्यपूर्वक सुनने वाला नही मानता बल्कि "मैने तेरा झेला, अब तू मेरा झेल" वाले समूह का मानता हूँ। तो मेरा हो चुका और मै तैयार हूँ आप शुरू करें।
आइये चिठ्ठाकारी बढायें और अवसाद को अलविदा कहें।