अनुगूँज १९ - “संस्कृतियाँ दो और आदमी एक”
मै कौन हूँ?
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मै कौन हूँ? यह सवाल उठा था गौतम बुद्ध के मानस में और ना जाने कितने ही भारतीय सन्यासियों के मन में जो इस सवाल का उत्तर जानने के लिये वनगामी हुए। घबराइये मत या प्रसन्न न होइये, मै ऐसा कुछ भी नही करने वाला हूँ लेकिन जब लालों के लाल श्री समीर लाल जी ने टिप्पणी के द्वारा दुबारा यही सवाल मेरी तरफ उछाल दिया है तो कुछ न कुछ लिखना तो लाजमी है।
मै एक इन्सान हूँ, भारतीय हूँ और बेहद आम किस्म का भारतीय हूँ, अपनी पहचान के बारे में लिखने लायक कुछ है ही नही। और नाम में क्या रखा है आखिर। अगर केवल सम्बोधन की समस्या है तो मै आपको पूरी पूरी आजादी देता हूँ कि आप जो जी में आये सम्बोधित करें। छाया जी, या छायावादी जी या और कुछ। मै एक छाया हूँ एक परछाईं, एक प्रतिबिम्ब मात्र और परछाईं की कोई पहचान नही होती। परछाई के साथ कोई पहचानपत्रक जुडा नही होता। परछाईं घटती है बढती है, गायब भी हो जाती है। तो मुझे बस ऐसी ही एक छाया समझ लीजिये।
छाया का धर्म, राज्य, जाति या क्षेत्र नही होता।
फिर भी मै मेरे बारे में कुछ लिखता हूँ।
परिवार रहा है बन्जारा किस्म का, बस कई राज्यों से सम्बंध रहा है। शायद मेरे किसी पूर्वज को यह शाप मिला होगा कि तुम्हारी दो पीढियॉ कभी एक शहर में तो क्या एक राज्य में भी नही रहेंगी तो मेरे परिवार का इतिहास रहा है राज्य दर राज्य भटकने का। और शायद मेरे साथ ये शाप कुछ ज्यादा रहा होगा तो मै भटक रहा हूँ देश दर देश दरवेशों की तरह। दिल में कहीं एक चाह है और बेहद तीव्र चाह है कि वापस मुझे जाना है अपने देश ही, आज नही तो कल, इस साल नही तो अगले साल, लेकिन जाना तो है जरूर ही वापस एक दिन। और बस हमेशा के लिये। लाख रो लूँ भ्रष्टाचार का रोना या प्रदूषण या देश के अविकसित होने का, कोई भी चीज मुझे डगमगा नही सकी अभी तक।
मेरा पेशा संगणक (कम्प्यूटर) से जुडा हुआ है तो यही कारण है कि जब तक जहॉ काम है अपनेराम हैं, काम खत्म तो बस राम राम है।
परदेश में दिनबदिन सान्स्कृतिक झटके लगते रहते हैं आखिर करूँ तो क्या करूँ हूँ तो विशुद्ध भारतीय ही।
खैर,
सच बताऊँ तो मेरा दिमाग आगे कल्पना न कर सका।
मालूम नही बाकी के भारतीयों के मन की हालत कैसी होती है इस देश में जब वो ये सब देखते सुनते हैं।
मै कुछ ऐसे भी भारतीयों को जानता हूँ जो ग्रीन कार्ड के इन्तजार में कुंवारे बैठे हैं। असल में माजरा यह है कि वो यहॉ किसी प्रकार के बहुत सीमित समय के वीसा पर आये थे, जैसे ज्यादातर विद्यार्थी वीसा पर और अपनी पढाई पूरी करके नौकरी करने लगे। अब ये लोग वापस इसलिये नही जा सकते क्योंकि अगर गये तो वापस लौट नही सकते। इन्हे फिर से कोई अमरीकी दूतावास वीसा नही देगा, क्योंकि इन्होने पहले पाये हुए वीसा का अतिक्रमण किया है। ग्रीन कार्ड की अप्लीकेशन लम्बित है अमरीका में। तो क्या हुआ अगर शादी की उम्र निकली जा रही है, तो क्या हुआ अगर घर में बूढे मॉ बाप सालों से इन्तजार कर रहे हैं कि बेटा आयेगा एक दिन। भारत में शादी के साथ एक समस्या है, अपनी खुद की शादी में और कोई हो या न हो तुम्हे तो उपस्थित होना ही पडता है। तो अगर भारत नही जा सकते तो शादी भी नही कर सकते। क्योंकि जिस चीज के लिये इतनी मेहनत की और पसीना बहाया (अच्छी लडकी और अच्छा दहेज) वो तो भारत में ही मिलेगा ना। अब लडकी वाले तो अमरीका आकर शादी करने से तो रहे। बस कट रही है जिन्दगी इन्तजार में उस छलावे के जिसका नाम है ग्रीन कार्ड।
कुछ ऐसे भी भारतीय परिवार हैं जिनके बडे बुजुर्ग, जो कुछ बीस तीस साल पहले यहॉ आये थे, अब वापस जाना चाहते हैं, पर उनकी यहॉ जन्मी और पली बढी सन्तानों ने विद्रोह कर दिया है। अगर कोई बच्चा अमरीका में पैदा हुआ तो वो कानूनन् अमरीकी नागरिक होता है मैने मेरे आसपास के भारतीय परिवारों में अमरीका में रहते हुए ही बच्चा पैदा करने की होड सी देखी है। मेरे एक विदेशी मित्र के एक समय के उद्गार मुझे याद आते हैं, जिधर देखो बस गर्भवती भारतीय महिला ही नजर आती है। खून का घूँट पीकर मै चुप रह गया था, क्योंकि सच ही था।
खैर, तो मै बात कर रहा था उन भारतीय परिवारों की जिनके बडे बुजुर्ग अब वापस जाना चाहते हैं पर सन्तानें नही जाना चाहतीं। अब सन्तानें हैं अमरीकी नागरिक, तो मॉ बाप की भला क्या हैसियत। एक बार बच्चे दस बारह साल के हुए नही कि सान्स्कृतिक अन्तर या बदलाव दो पीढियों के अन्तर्विरोधों में बदल जाता है। आखिरकार मॉ बाप को हारकर झुकना पडता है, भारत न जाकर यहीं रहना पडता है क्योंकि बच्चे कह देते हैं कि आपको जाना हो तो जाइये, मै तो यहीं रहूँगा या रहूँगी। जबरदस्ती किसी अमरीकी नागरिक को भारत ले जा नही सकते और हैं तो आखिरकार भारतीय मॉ बाप ही ना, तो अपनी औलाद को छोडकर भला कैसे चले जायें। पडें हैं परदेश में औलाद की खातिर।
अगर आप एक पुत्री के पिता हैं तो आप आसमान से नीचे गिरते हैं जब आपकी बारह साल की लडकी रात भर घर से बाहर रहने के लिये अनुमति माँगती है या सप्ताहाँत में गायब रहती है। रास्ते चलते आप क्या करेंगे जब आपका बच्चा आपके साथ है और सामने हो रहा है लाइव टेलीकास्ट चुम्बन का। कुछ समय बाद बच्चे खुद ही समझदार हो जाते हैं और इन्हे जीवन की सामान्य घटनाओं की तरह नजरअन्दाज कर देते हैं, लेकिन आप अपने दिल का क्या करेंगे।
कितनी ही बार मैने बस में बेहद छोटे उम्र के बच्चों को वयस्कों को भी शर्मा दे ऐसी हरकतें करते देखा है, कोई शर्म नही, लिहाज नही। जब जब मै किसी बुजुर्ग के लिये अपनी सीट छोडकर खडा हुआ उन्होने अचरज से कहा unlike your age, मतलब तुम्हारी उम्रवाले ऐसा नही करते आमतौर पर। कई बार तो मैने युवाओं को बडी ढिठाई के साथ बुजुर्गों के लिये आरक्षित सीटों पर जमे पाया और बुजुर्गों को उनके सामने खडा। कान में आईपाड या एम पी ३ लगाये ये युवा या बच्चे मशीनी सम्वेदनहीनता का ऐसा भद्दा अमरीकी चेहरा प्रस्तुत करतें हैं कि मन सोचने लगता है कि इस देश में बसने का निर्णय कोई भारतीय कैसे ले सकता है।
अब तक मै मेरे किसी भी पोस्ट में किसी भी व्यक्ति का या स्थान का नाम लेने से बचता रहा हूँ। मेरा मानना है कि घटनायें और वो भी सच्ची घटनायें व्यक्ति या स्थान जैसी संज्ञाओं से ऊपर होती हैं। लेकिन मै भारत के एक प्रदेश का नाम लेना चाहता हूँ, आन्ध्रप्रदेश, मैने भारत के इस अकेले राज्य से अमरीका में कितने ही विद्यार्थी देखे। कुछ विद्यार्थियों से पूछा भी यार ऐसा क्यों है, कि जो भी भारतीय विद्यार्थी मिलता है वो आन्ध्र का ही होता है, तो उनका जवाब था कि "आन्ध्र समाज में अमरीका जाने पर लडके की कीमत बढ जाती है, और उन विद्यार्थियों के लिये जो अमरीका आना चाहते हैं बहुत सारे दिशानिर्देश सहज ही उपलब्ध हैं। आपको लगभग हर घर में एक विद्यार्थी या नौकरीशुदा व्यक्ति तो मिलेगा ही जो अमरीका में हो। हर विद्यार्थी विद्यालय में पढते समय ही पूरा प्लान बना चुका होता है कि वो किस अमरीकी यूनिवर्सिटी में दाखिले का प्रयास करेगा।" मैने पाया कि आन्ध्र समाज के बहुत बडे और समर्थ समूह हर जगह मौजूद हैं जो किसी भी आन्ध्रप्रदेशी विद्यार्थी या नौकरीशुदा व्यक्ति की यथासम्भव मदद के लिये तैयार रहते हैं।
कहॉ लिखने बैठा था मै अपनी पहचान के बारे में और कहॉ भटक गया।
जब भी कोई भारतीय यहॉ मुझे मिलता है, छूटते ही प्रश्न तैयार, भारत में कहॉ से? ऐसा क्यों, अरे भाई भारत से हूँ क्या यही कम नही, किसी प्रदेश का लेबेल लगाना जरूरी है क्या? मुझे मालूम है कि सामने वाला मुझे अपनी कसौटी में कसने को बेताब है।
दक्षिण भारतीय या उत्तर भारतीय?
उत्तर भारतीय हैं तो किस प्रदेश से?
दक्षिण भारतीय हैं तो केरल के मालाबारी या तमिल या तेलगु या फिर कन्नड।
उत्तर भारतीय हैं तो ठाकुर, ब्राह्मण या वैश्य हैं या फिर कुछ और।
ब्राह्मण तो कौन से, सरयूपारीण या कान्यकुब्ज, या फिर सनाढ्य या गौड या ....।
महाराष्ट्रियन हैं तो कोंकनस्थ हैं या देशस्थ, मराठा या फिर सीकेपी या ....।
उडिया है पन्जाबी हैं या बंगाली हैं, भारतीय अजनबी के लिये आपकी जाति, क्षेत्र आपसे पहले आता है, और जब सवालों के जवाब मिल जाते हैं तो आपके लिये उसके पास पूर्वागृहों का पूरा पूरा खाका तैयार हो जाता है। अच्छा तो ये बन्दा हिन्दी बोलने वाला उत्तर भारतीय है, हुँह, गन्दे लोग, यही हैं जिन्होने भारतीयों की छवि खराब कर रखी है। या अच्छा तो ये बन्दा हिन्दी विरोधी, साम्बर खाने वाला दक्षिण भारतीय हैं, हुँह, पता नही अपने आपको क्यों श्रेष्ठ समझते हैं ये लोग।
भारत में इतने अन्तर्विरोध हैं और हम बाहर जाकर भी उनका टोकरा लादे घूमते हैं, क्यों?
लाख अमरीकी सभ्यता या सन्स्कृति से मै सहमत न होऊँ लेकिन इस बात की मै जरूर दाद दूंगा कि ज्यादातर अमरीकियों के लिये आप क्या हैं ये मायने रखता है कि आप वास्तव में क्या हैं? आप कितने काम के आदमी हैं? बस, आपकी जाति आदि बहुत पीछे छूट जाती है, पर मैने "ज्यादातर अमरीकियों के लिये" उपयोग किया क्योंकि, क्योंकि कुछ पागल आपको हर जगह, हर देश, हर सन्स्कृति में मिलेंगे।
बस अब बस करता हूँ। इस उम्मीद के साथ कि अब मुझसे मेरी पहचान नही पूछी जायेगी।
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मै कौन हूँ? यह सवाल उठा था गौतम बुद्ध के मानस में और ना जाने कितने ही भारतीय सन्यासियों के मन में जो इस सवाल का उत्तर जानने के लिये वनगामी हुए। घबराइये मत या प्रसन्न न होइये, मै ऐसा कुछ भी नही करने वाला हूँ लेकिन जब लालों के लाल श्री समीर लाल जी ने टिप्पणी के द्वारा दुबारा यही सवाल मेरी तरफ उछाल दिया है तो कुछ न कुछ लिखना तो लाजमी है।
मै एक इन्सान हूँ, भारतीय हूँ और बेहद आम किस्म का भारतीय हूँ, अपनी पहचान के बारे में लिखने लायक कुछ है ही नही। और नाम में क्या रखा है आखिर। अगर केवल सम्बोधन की समस्या है तो मै आपको पूरी पूरी आजादी देता हूँ कि आप जो जी में आये सम्बोधित करें। छाया जी, या छायावादी जी या और कुछ। मै एक छाया हूँ एक परछाईं, एक प्रतिबिम्ब मात्र और परछाईं की कोई पहचान नही होती। परछाई के साथ कोई पहचानपत्रक जुडा नही होता। परछाईं घटती है बढती है, गायब भी हो जाती है। तो मुझे बस ऐसी ही एक छाया समझ लीजिये।
छाया का धर्म, राज्य, जाति या क्षेत्र नही होता।
फिर भी मै मेरे बारे में कुछ लिखता हूँ।
परिवार रहा है बन्जारा किस्म का, बस कई राज्यों से सम्बंध रहा है। शायद मेरे किसी पूर्वज को यह शाप मिला होगा कि तुम्हारी दो पीढियॉ कभी एक शहर में तो क्या एक राज्य में भी नही रहेंगी तो मेरे परिवार का इतिहास रहा है राज्य दर राज्य भटकने का। और शायद मेरे साथ ये शाप कुछ ज्यादा रहा होगा तो मै भटक रहा हूँ देश दर देश दरवेशों की तरह। दिल में कहीं एक चाह है और बेहद तीव्र चाह है कि वापस मुझे जाना है अपने देश ही, आज नही तो कल, इस साल नही तो अगले साल, लेकिन जाना तो है जरूर ही वापस एक दिन। और बस हमेशा के लिये। लाख रो लूँ भ्रष्टाचार का रोना या प्रदूषण या देश के अविकसित होने का, कोई भी चीज मुझे डगमगा नही सकी अभी तक।
मेरा पेशा संगणक (कम्प्यूटर) से जुडा हुआ है तो यही कारण है कि जब तक जहॉ काम है अपनेराम हैं, काम खत्म तो बस राम राम है।
परदेश में दिनबदिन सान्स्कृतिक झटके लगते रहते हैं आखिर करूँ तो क्या करूँ हूँ तो विशुद्ध भारतीय ही।
एक झटका तब लगा था जब बेटे के लिये विद्यालय दाखिले के लिये भरे जाने वाले फार्म में माता पिता की वैवाहिक स्थिति के लिये दिये गये विकल्पों को देखा था। कुछ इस प्रकार थे -
१) विवाहित
२) तलाकशुदा
३) साथ में रहते हुए
४) अकेले
५) गोद लिया हुआ
खैर,
दूसरा सान्स्कृतिक झटका लगा था जब हमने एक महिला एवं अमरीकी सहकर्मी का कार्यालय में जन्मदिन मनाया और तीन दिन बाद उससे पूछने की गुस्ताखी कर बैठे कि जन्मदिन की शाम उसने क्या किया। खुश होकर दिया गया जवाब था "मैने मेरा जन्मदिन तीन दिनों तक मनाया। वो शाम मैने अपने उस पुरुष मित्र के साथ गुजारी जिसके साथ मै पिछले दो सालों से रहती हूँ और शादी का अबतक कोई विचार नही बना। अगला दिन मैने मेरी मॉ और उनके वर्तमान पति के साथ रात्रिभोज किया और उसके अगले दिन मै मेरे पिता और उनकी वर्तमान पत्नी के साथ थी।"
सच बताऊँ तो मेरा दिमाग आगे कल्पना न कर सका।
मालूम नही बाकी के भारतीयों के मन की हालत कैसी होती है इस देश में जब वो ये सब देखते सुनते हैं।
मै कुछ ऐसे भी भारतीयों को जानता हूँ जो ग्रीन कार्ड के इन्तजार में कुंवारे बैठे हैं। असल में माजरा यह है कि वो यहॉ किसी प्रकार के बहुत सीमित समय के वीसा पर आये थे, जैसे ज्यादातर विद्यार्थी वीसा पर और अपनी पढाई पूरी करके नौकरी करने लगे। अब ये लोग वापस इसलिये नही जा सकते क्योंकि अगर गये तो वापस लौट नही सकते। इन्हे फिर से कोई अमरीकी दूतावास वीसा नही देगा, क्योंकि इन्होने पहले पाये हुए वीसा का अतिक्रमण किया है। ग्रीन कार्ड की अप्लीकेशन लम्बित है अमरीका में। तो क्या हुआ अगर शादी की उम्र निकली जा रही है, तो क्या हुआ अगर घर में बूढे मॉ बाप सालों से इन्तजार कर रहे हैं कि बेटा आयेगा एक दिन। भारत में शादी के साथ एक समस्या है, अपनी खुद की शादी में और कोई हो या न हो तुम्हे तो उपस्थित होना ही पडता है। तो अगर भारत नही जा सकते तो शादी भी नही कर सकते। क्योंकि जिस चीज के लिये इतनी मेहनत की और पसीना बहाया (अच्छी लडकी और अच्छा दहेज) वो तो भारत में ही मिलेगा ना। अब लडकी वाले तो अमरीका आकर शादी करने से तो रहे। बस कट रही है जिन्दगी इन्तजार में उस छलावे के जिसका नाम है ग्रीन कार्ड।
कुछ ऐसे भी भारतीय परिवार हैं जिनके बडे बुजुर्ग, जो कुछ बीस तीस साल पहले यहॉ आये थे, अब वापस जाना चाहते हैं, पर उनकी यहॉ जन्मी और पली बढी सन्तानों ने विद्रोह कर दिया है। अगर कोई बच्चा अमरीका में पैदा हुआ तो वो कानूनन् अमरीकी नागरिक होता है मैने मेरे आसपास के भारतीय परिवारों में अमरीका में रहते हुए ही बच्चा पैदा करने की होड सी देखी है। मेरे एक विदेशी मित्र के एक समय के उद्गार मुझे याद आते हैं, जिधर देखो बस गर्भवती भारतीय महिला ही नजर आती है। खून का घूँट पीकर मै चुप रह गया था, क्योंकि सच ही था।
खैर, तो मै बात कर रहा था उन भारतीय परिवारों की जिनके बडे बुजुर्ग अब वापस जाना चाहते हैं पर सन्तानें नही जाना चाहतीं। अब सन्तानें हैं अमरीकी नागरिक, तो मॉ बाप की भला क्या हैसियत। एक बार बच्चे दस बारह साल के हुए नही कि सान्स्कृतिक अन्तर या बदलाव दो पीढियों के अन्तर्विरोधों में बदल जाता है। आखिरकार मॉ बाप को हारकर झुकना पडता है, भारत न जाकर यहीं रहना पडता है क्योंकि बच्चे कह देते हैं कि आपको जाना हो तो जाइये, मै तो यहीं रहूँगा या रहूँगी। जबरदस्ती किसी अमरीकी नागरिक को भारत ले जा नही सकते और हैं तो आखिरकार भारतीय मॉ बाप ही ना, तो अपनी औलाद को छोडकर भला कैसे चले जायें। पडें हैं परदेश में औलाद की खातिर।
अगर आप एक पुत्री के पिता हैं तो आप आसमान से नीचे गिरते हैं जब आपकी बारह साल की लडकी रात भर घर से बाहर रहने के लिये अनुमति माँगती है या सप्ताहाँत में गायब रहती है। रास्ते चलते आप क्या करेंगे जब आपका बच्चा आपके साथ है और सामने हो रहा है लाइव टेलीकास्ट चुम्बन का। कुछ समय बाद बच्चे खुद ही समझदार हो जाते हैं और इन्हे जीवन की सामान्य घटनाओं की तरह नजरअन्दाज कर देते हैं, लेकिन आप अपने दिल का क्या करेंगे।
कितनी ही बार मैने बस में बेहद छोटे उम्र के बच्चों को वयस्कों को भी शर्मा दे ऐसी हरकतें करते देखा है, कोई शर्म नही, लिहाज नही। जब जब मै किसी बुजुर्ग के लिये अपनी सीट छोडकर खडा हुआ उन्होने अचरज से कहा unlike your age, मतलब तुम्हारी उम्रवाले ऐसा नही करते आमतौर पर। कई बार तो मैने युवाओं को बडी ढिठाई के साथ बुजुर्गों के लिये आरक्षित सीटों पर जमे पाया और बुजुर्गों को उनके सामने खडा। कान में आईपाड या एम पी ३ लगाये ये युवा या बच्चे मशीनी सम्वेदनहीनता का ऐसा भद्दा अमरीकी चेहरा प्रस्तुत करतें हैं कि मन सोचने लगता है कि इस देश में बसने का निर्णय कोई भारतीय कैसे ले सकता है।
अब तक मै मेरे किसी भी पोस्ट में किसी भी व्यक्ति का या स्थान का नाम लेने से बचता रहा हूँ। मेरा मानना है कि घटनायें और वो भी सच्ची घटनायें व्यक्ति या स्थान जैसी संज्ञाओं से ऊपर होती हैं। लेकिन मै भारत के एक प्रदेश का नाम लेना चाहता हूँ, आन्ध्रप्रदेश, मैने भारत के इस अकेले राज्य से अमरीका में कितने ही विद्यार्थी देखे। कुछ विद्यार्थियों से पूछा भी यार ऐसा क्यों है, कि जो भी भारतीय विद्यार्थी मिलता है वो आन्ध्र का ही होता है, तो उनका जवाब था कि "आन्ध्र समाज में अमरीका जाने पर लडके की कीमत बढ जाती है, और उन विद्यार्थियों के लिये जो अमरीका आना चाहते हैं बहुत सारे दिशानिर्देश सहज ही उपलब्ध हैं। आपको लगभग हर घर में एक विद्यार्थी या नौकरीशुदा व्यक्ति तो मिलेगा ही जो अमरीका में हो। हर विद्यार्थी विद्यालय में पढते समय ही पूरा प्लान बना चुका होता है कि वो किस अमरीकी यूनिवर्सिटी में दाखिले का प्रयास करेगा।" मैने पाया कि आन्ध्र समाज के बहुत बडे और समर्थ समूह हर जगह मौजूद हैं जो किसी भी आन्ध्रप्रदेशी विद्यार्थी या नौकरीशुदा व्यक्ति की यथासम्भव मदद के लिये तैयार रहते हैं।
कहॉ लिखने बैठा था मै अपनी पहचान के बारे में और कहॉ भटक गया।
जब भी कोई भारतीय यहॉ मुझे मिलता है, छूटते ही प्रश्न तैयार, भारत में कहॉ से? ऐसा क्यों, अरे भाई भारत से हूँ क्या यही कम नही, किसी प्रदेश का लेबेल लगाना जरूरी है क्या? मुझे मालूम है कि सामने वाला मुझे अपनी कसौटी में कसने को बेताब है।
दक्षिण भारतीय या उत्तर भारतीय?
उत्तर भारतीय हैं तो किस प्रदेश से?
दक्षिण भारतीय हैं तो केरल के मालाबारी या तमिल या तेलगु या फिर कन्नड।
उत्तर भारतीय हैं तो ठाकुर, ब्राह्मण या वैश्य हैं या फिर कुछ और।
ब्राह्मण तो कौन से, सरयूपारीण या कान्यकुब्ज, या फिर सनाढ्य या गौड या ....।
महाराष्ट्रियन हैं तो कोंकनस्थ हैं या देशस्थ, मराठा या फिर सीकेपी या ....।
उडिया है पन्जाबी हैं या बंगाली हैं, भारतीय अजनबी के लिये आपकी जाति, क्षेत्र आपसे पहले आता है, और जब सवालों के जवाब मिल जाते हैं तो आपके लिये उसके पास पूर्वागृहों का पूरा पूरा खाका तैयार हो जाता है। अच्छा तो ये बन्दा हिन्दी बोलने वाला उत्तर भारतीय है, हुँह, गन्दे लोग, यही हैं जिन्होने भारतीयों की छवि खराब कर रखी है। या अच्छा तो ये बन्दा हिन्दी विरोधी, साम्बर खाने वाला दक्षिण भारतीय हैं, हुँह, पता नही अपने आपको क्यों श्रेष्ठ समझते हैं ये लोग।
भारत में इतने अन्तर्विरोध हैं और हम बाहर जाकर भी उनका टोकरा लादे घूमते हैं, क्यों?
लाख अमरीकी सभ्यता या सन्स्कृति से मै सहमत न होऊँ लेकिन इस बात की मै जरूर दाद दूंगा कि ज्यादातर अमरीकियों के लिये आप क्या हैं ये मायने रखता है कि आप वास्तव में क्या हैं? आप कितने काम के आदमी हैं? बस, आपकी जाति आदि बहुत पीछे छूट जाती है, पर मैने "ज्यादातर अमरीकियों के लिये" उपयोग किया क्योंकि, क्योंकि कुछ पागल आपको हर जगह, हर देश, हर सन्स्कृति में मिलेंगे।
बस अब बस करता हूँ। इस उम्मीद के साथ कि अब मुझसे मेरी पहचान नही पूछी जायेगी।
टैगः anugunj, अनुगूँज
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17 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: रवि रतलामी [ Thursday, May 11, 2006 8:37:00 PM]…
बड़े अंतराल के बाद चिट्ठे पर ऐसा सारगर्भित, विचारोत्तेजक आलेख पढ़ने को मिला.
प्रेषक: Anonymous [ Thursday, May 11, 2006 8:37:00 PM]…
परछाइयां बोलती है पर इतनी गहरी बात कह जाएँगी मालूम न था ।
प्रेषक: प्रेमलता पांडे [ Friday, May 12, 2006 1:23:00 AM]…
वस्तुस्थिति चित्रण करता आलेख है। विशेषतः कर्म परिचय करवाते हैं, नाम साधारणतः।
शुभकामनाएं।
प्रेषक: Udan Tashtari [ Friday, May 12, 2006 5:59:00 AM]…
बहुत बढिया लिखे हो,छाया भाई।
और अब आपसे आपकी पहचान भी नही पूछी जायेगी,
बल्कि छाया भाई के नाम से काम चलाया जायेगा। :)
समीर लाल
प्रेषक: Jitendra Chaudhary [ Friday, May 12, 2006 10:32:00 AM]…
बहुत सुन्दर लेख है यार!
जब पढना शुरु किया तो बिना रुके एकटक पढता चला गया। दिल से लिखा है, सचमुच छू गया।
यार सच पूछो तो देश की याद देश के बाहर जाकर ही आती है, लेकिन जो जो आपने लिखा है, एक एक बात सही है, हम भी किसी भारतीय को देखते है तो पहले प्रश्न यही होता है "भारत मे कहाँ से हो", लेकिन सवाल इसलिए नही होता, कि जाति धर्म पर विभाजित करेंगे या पूर्वाग्रहो का टोकरा खोलेंगे, बल्कि बातचीत को आगे बढाने की लिहाज से।
बाकी लेख बहुत अच्छा लिखा है, लगे रहो, और हाँ परिचर्चा में भाग लेना मत भूलना।
प्रेषक: Manish Kumar [ Friday, May 12, 2006 11:34:00 PM]…
आपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे अपने एक रिश्तेदार के पुत्र की याद आ गई जो एक बार यहाँ से गया तो ५ सालों से वापस नहीं लौटा । अब माता पिता चिन्तित हैं शादी के लिये । शायद उसके साथ भी ग्रीन कार्ड वाली समस्या रही होगी !
जिंदगी में क्या आपके लिये सबसे महत्त्वपूर्ण है ये फेसला तो हमें ही लेना होता है ।मेरे बैचमेट्स तो अधिकांशतः अमेरिका में ही हैं क्यूँकि यही ध्येय रहा था शुरू से उनका ! वहाँ रह कर एक साथ दो संस्कृतियों की नाव पर सवारी करना कितना कठिन है, ये आपके इस बेहतरीन लेख से साफ परिलक्षित हो रहा है ।
प्रेषक: Anonymous [ Saturday, May 13, 2006 3:31:00 AM]…
कितना जटील हैं दुसरी संस्कृति में जीना. अच्छा लेख, साधुवाद
प्रेषक: Anonymous [ Monday, May 15, 2006 1:22:00 PM]…
"भारत में इतने अन्तर्विरोध हैं और हम बाहर जाकर भी उनका टोकरा लादे घूमते हैं, क्यों?"
अंतर विरोध ?? मुझे तो नहीं दिखता अंतर विरोध...
अब चाहे केरला का मेरा दोस्त मनोज हो, या फिर मेरा बिहारी दोस्त गौतम ... सब मजे से एक साथ घूमते फिरते हैं.
कहते हैं न की जिस रंग का चश्मा पहनोगे, दुनिया उसी रंग की दिखेगी :D
क्षेत्रीय भाषाओं के अलग अलग होने क्या होता है ? वैसे भी भारत के अधिकांश भाषाओं का जन्म ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है.
क्या कैनडा में कुछ लोग फ्रेंच में इठलाते नहीं फिरते हैं ?
क्या अमेरिका में लैटिन/चीनी लोग अपनी भाषा में बात नहीं करते हैं ?
भईया, भारत के लोग अपने देश से जितना प्यार करते हैं, शायद ही किसी और देश के लोग करते हों.
आखिर क्या कारण है की आप अमेरिका में रह कर भी इस देश के बारे में सोच रहे हैं ?
आखिर कुछ तो बात है इस देश में ...
प्रेषक: ई-छाया [ Monday, May 15, 2006 3:59:00 PM]…
आप सभी का पढने के लिये धन्यवाद
हिमांशु जी, कृपया अपारदर्शी चश्मा न पहने जिससे कुछ दिखाई ही न दे। प्रभु से प्रार्थना करूंगा कि आपकी बातें सच हों, पर यथास्थिति क्या है, जरा घर से निकलें, भारत भ्रमण करें, दुनिया देखें और फिर निश्चय करें।
प्रेषक: Basera [ Thursday, May 18, 2006 1:19:00 AM]…
मेरे ख्याल से छाया जी, जो आप पूर्वानुमानों की बात कह रहे हैं, वो तो सामान्य है और केवल भारतियों पर नहीं हर किसी पर लागू होती है। हम किसी से भी बात करें भले वो भारतिय हो अथवा विदेशी, पहले यही जानने की कोशिश करते हैं कि इस बंदे में कौन कौन सी चीज़ें मेरे काम की हैं या हम दोनों में कौन सी चीज़ें कामन हैं।
जो अमेरिका का चित्रण आपने किया है, उस पर तो मैं कुछ कह नहीं सकता क्योंकि वहां मैंने केवल कुछ हफ़्ते गुज़ारे हैं, लेकिन युरोप के बारे में कहूँगा कि यहां नियमों का पालन होता है, छोटे बुज़ोर्गों के लिए सीट छोड़ते हैं। बाकी जो बातें आपने लिखी हैं, उनके बारे में अभी पूरा अनुभव नहीं है क्योंकि मेरी बेटी भी अभी दो साल की ही है। लेकिन मुझे लगता है कि 'उन' बातों के बारे में घबराने की ज़रूरत नहीं है। यहां अनेक भारतिय परिवार हैं जो अपने बच्चों के साथ बहुत खुश हैं, बच्चे बड़े होकर भी अपनी शालीनता बरकरार रखते हैं। भारत तो मैं भी वापस जाऊँगा, लेकिन शायद हमेशा के लिए नहीं, क्योंकि यहां सीखने के लिए काफ़ी कुछ है तथा दुनिया को एक बिल्कुल अलग नज़र से देखने, समझने का मौका मिलता है।
प्रेषक: Anonymous [ Sunday, May 21, 2006 10:16:00 AM]…
भैय्या छाया जी इत्मिनान से लिखे इस सुंदर से विस्तृत लेख के लिये बधाई जो कि उदाहरण के साथ लिखा गया है। बहुत जल्द ये उदाहरण भारत में भी देखने सुनने को मिलेंगे।
प्रेषक: ई-छाया [ Monday, May 22, 2006 12:01:00 PM]…
रजनीश जी, तरुण जी,
पढने के लिये धन्यवाद, रजनीश जी, मैने यूरोप भी देखा है और अमेरिका भी, ज्यादातर बातें दोनों जह लागू होती हैं। तरुण जी, मै आपसे सहमत हूँ।
प्रेषक: अभिनव [ Tuesday, May 23, 2006 7:49:00 PM]…
शैडो जी,
आपका धन्यवाद कि आपने इस विषय पर अपने विचार इतनी अच्छी तरह से व्यक्त किए।
सबसे पहले तो उदाहरण युक्त तर्कों, भाषा के प्रवाह और शब्दों के सुंदर चयन हेतु आपको शुभकामनाएँ। आपके विचार पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
यह विषय शायद आदि और अंत रहित है, हमारे जीवन की घटनाएं पड़ावों की भांति हमें कुछ अनुभव दे जाती हैं तथा उनके आधार पर हम अपना दृष्टिकोण बना लेते हैं।
प्रेषक: hemanshow [ Thursday, May 25, 2006 12:28:00 PM]…
चलो मे भी कुछ विचार लिख दू।
१. अम्रीका मे मुझे बेह्तरीन हिन्दुस्तानि शास्त्रिय सन्गीत गुरु मिले। बेह्तरीन तबला गुरु मिले हे।
२. काफ़ी डालर मिले हे।
३. हिन्दी रेडिओ पर काम करने का और सीखने का मौका मिला, वो भी फ़्री मे।
४. भारत के सभी जगह के लोग मिले। वहान का बेह्तरीन खाना खाने को मिला।
५. दुनिया भर के लोग, उनकी सभ्यता सीखने को मिली।
६. भारत को एक और नज़रिये से देखने क मौका मिला। आउर आज्कल मे अमरीका से भारत मे अपने गाव मे शिक्शा और पर्यावरन से सम्बन्धित सामाजिक कार्य कर रह हू।
ये सभी चीज़े मुझे भारत मे रह्कर शायद ही मिलती।
प्रेषक: ई-छाया [ Thursday, May 25, 2006 9:12:00 PM]…
अभिनव भाई एवं हिमांशु शर्मा जी पढने तथा टिप्पणियों के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
प्रेषक: Anonymous [ Wednesday, May 31, 2006 1:50:00 AM]…
कुछ हद तक आप की बातो से सहमत हूं।
लेकिन हिमांशु जी का कथन भी सत्य है।
यह तो जरूर है कि हम भारत के बाहर भी अपनी क्षेत्रीय पहचान बनाये रखते है लेकिन इसमे गलत कुछ नही है। विविधता मे एकता ही भारतियता है।
मै भी एक उत्तर भारतिय होने के बाद भी बालाजी के मण्दिर जाता रहा हूं ! भारत मे भी और पश्चिम वर्जीनिया मे भी ।
सच तो यह है कि जितनी बार मै मन्दिर या गूरूद्वारे मे अमरीका मे गया हूं उतना तो मै भारत मे भी नही गया :-)
भाषायी विविधताये है, सांसकृतिक अंतर भी है ! लेकिन जब दो भारतिय मिलते है,(भारत से बाहर) चाहे एक तमीलनाडू से हो, दूसरा उत्तर प्रदेश से से मेरा अनुभव यही रहा है बात सिर्फ भारतियता की होती है।
प्रेषक: ई-छाया [ Thursday, June 01, 2006 12:01:00 PM]…
आशीष जी,
वाचन करने के लिये धन्यवाद, हो सकता है कि कहीं मेरे, आपसे, हिमांशु जी से या रजनीश जी से विचार न मिलते हों। "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना"। हमारे विचार हमारे अनुभवों से बनते बिगडते हैं और दुनिया बहुत बडी है। हो सकता है भगवान ने जो सिक्के का जो पहलू मुझे दिया हो, आपको कुछ दूसरा दिया हो। पर मोटे तौर पर हम सभी एक सहमत हैं।
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