वो लटका हुआ छज्जा और मेरे बचपन का घर
अतीत आपका पीछा करता है।
यादों में बसा है एक छोटा सा घर, एक ऐसा घर, जो भारत के उस छोटे से उस कस्बे मे था जिसमें मेरा बचपन गुजरा। एक घर जिसके कमरे दिन के विभिन्न समयों पर भिन्न भिन्न रूप अदा करते थे। वही कमरा हमारा अध्ययन कक्ष होता था तो किसी मेहमान के आने पर वही कमरा हमारा बैठक कक्ष बन जाया करता था। रात में वही कमरा हमारा शयन कक्ष होता था। सामानों के रखने की जगह हमेशा ही कम पडती थी। एक छत थी, जगह जगह प्लास्तर निकला हुआ, छज्जा था कुछ लटका सा हुआ, और सामने थे बिजली के नंगे तार केवल दो तीन फुट की दूरी पर।
लटका हुआ होने के बावजूद हम बच्चे अकसर उसी छज्जे पर पाये जाते थे जिसके सामने थी एक सडक ज्यादातर आम भारतीय सडकों जैसी, गढ्ढों से भरी हुई और सँकरी सी, जहॉ लोग जिन्दगी की जद्दोजहद में बदहवास से इधर उधर भागते से नजर आते। याद है जब मै बहुत छोटा था कभी कभी सोचता था, ये लोग क्यों भागते हैं (आज मै खुद उनमें शामिल हूँ)।
उसी छज्जे से हुआ था मेरा पहला साक्षात्कार मौत से। सामने के घर में, गली के दूसरी तरफ एक व्यक्ति लम्बी बीमारी के बाद गुजर गया था। परिवार के लोगों का करुण क्रन्दन, दो छोटे छोटे से बच्चो के वो चेहरे, जिन्हे शायद ये भी मालूम न था कि जीवन में उन्होने क्या गवां दिया है, आज भी वैसे ही याद हैं।
उसी छज्जे से देखा था एक वीभत्स दृश्य जब मेरे सामने के एक घर के बाहर बन्धे हुए छोटे से पिल्ले को एक पागल कुत्ते ने काट काटकर मार डाला था। कुत्तों की पूरी प्रजाति से मुझे चिढ हो गयी थी जबकि मरने और मारने वाले दोनो ही कुत्ते थे।
उसी छज्जे से देखी थी कितनी ही शादियॉ, दूल्हे बने हुए नवजवान, नाचते हुए दोस्त यार "आज मेरे यार की शादी है" की धुनों पर।
ना जाने कितने ही उत्सव देखे थे उसी छज्जे से, नवदुर्गा में काली का जलसा, होली के हुडदंग और दीवाली की धूम। छज्जे पर होने का फायदा ये होता था कि होली में हम सबको भिगो सकते थे, जबकि कोई हमें नही भिगो पाता था। क्या कहा रंग, पानी की मात्रा इतनी ज्यादा होती थी हमारे रंग में कि रंग होकर भी नही सा होता था।
रोज सुबह पानी भरने के लिये हमें सन्घर्ष करना पडता। लेकिन पडोसी बेहद अच्छे थे। किसके घर में क्या पक रहा है ये सबको पता होता था। लोग सब मिल बॉट लेते थे, सुख हो या दुख, शादी हो या त्योहार, या हो मिठाइयॉ। उन दिनों घर घर में टेलीविजन नही होता था और लोगों के पास पडोसियों के लिये वक्त होता था। पडोसियों में भाईचारा इतना कि जब मॉ बीमार होती थी तो अपना चूल्हा जलाने से पहले पडोस की महिलायें (जिन्हे हम हम चाची कहा करते थे) हमारा खाना बना जातीं थीं।
बाद में महानगरों में रहते हुए मैने पाया जाने कहॉ से अदृश्य दीवारें आ जाती हैं अपने बीच। कितने ही बार महानगरों में मेरा पडोसी कौन है, मुझे नही मालूम होता था।
जीवन में कितने ही घर बदले, कितने ही शहर देखे, महानगर देखे, देश देखे, पर स्मृतियों मे वो घर कभी नही गया। आज वो मकान नही है, जब पिछली बार मै उस गली से गुजरा था कोई तीन साल पहले वहॉ एक बडी सी बहुमन्जिला इमारत दिखाई दी। पर मेरी स्मृतियों में आज बीसियों सालों बाद भी वो घर वैसा का वैसा जीवित है। सपनों मे मेरा उस घर मे आज भी बेरोकटोक आना जाना है।
यादों में बसा है एक छोटा सा घर, एक ऐसा घर, जो भारत के उस छोटे से उस कस्बे मे था जिसमें मेरा बचपन गुजरा। एक घर जिसके कमरे दिन के विभिन्न समयों पर भिन्न भिन्न रूप अदा करते थे। वही कमरा हमारा अध्ययन कक्ष होता था तो किसी मेहमान के आने पर वही कमरा हमारा बैठक कक्ष बन जाया करता था। रात में वही कमरा हमारा शयन कक्ष होता था। सामानों के रखने की जगह हमेशा ही कम पडती थी। एक छत थी, जगह जगह प्लास्तर निकला हुआ, छज्जा था कुछ लटका सा हुआ, और सामने थे बिजली के नंगे तार केवल दो तीन फुट की दूरी पर।
लटका हुआ होने के बावजूद हम बच्चे अकसर उसी छज्जे पर पाये जाते थे जिसके सामने थी एक सडक ज्यादातर आम भारतीय सडकों जैसी, गढ्ढों से भरी हुई और सँकरी सी, जहॉ लोग जिन्दगी की जद्दोजहद में बदहवास से इधर उधर भागते से नजर आते। याद है जब मै बहुत छोटा था कभी कभी सोचता था, ये लोग क्यों भागते हैं (आज मै खुद उनमें शामिल हूँ)।
उसी छज्जे से हुआ था मेरा पहला साक्षात्कार मौत से। सामने के घर में, गली के दूसरी तरफ एक व्यक्ति लम्बी बीमारी के बाद गुजर गया था। परिवार के लोगों का करुण क्रन्दन, दो छोटे छोटे से बच्चो के वो चेहरे, जिन्हे शायद ये भी मालूम न था कि जीवन में उन्होने क्या गवां दिया है, आज भी वैसे ही याद हैं।
उसी छज्जे से देखा था एक वीभत्स दृश्य जब मेरे सामने के एक घर के बाहर बन्धे हुए छोटे से पिल्ले को एक पागल कुत्ते ने काट काटकर मार डाला था। कुत्तों की पूरी प्रजाति से मुझे चिढ हो गयी थी जबकि मरने और मारने वाले दोनो ही कुत्ते थे।
उसी छज्जे से देखी थी कितनी ही शादियॉ, दूल्हे बने हुए नवजवान, नाचते हुए दोस्त यार "आज मेरे यार की शादी है" की धुनों पर।
ना जाने कितने ही उत्सव देखे थे उसी छज्जे से, नवदुर्गा में काली का जलसा, होली के हुडदंग और दीवाली की धूम। छज्जे पर होने का फायदा ये होता था कि होली में हम सबको भिगो सकते थे, जबकि कोई हमें नही भिगो पाता था। क्या कहा रंग, पानी की मात्रा इतनी ज्यादा होती थी हमारे रंग में कि रंग होकर भी नही सा होता था।
रोज सुबह पानी भरने के लिये हमें सन्घर्ष करना पडता। लेकिन पडोसी बेहद अच्छे थे। किसके घर में क्या पक रहा है ये सबको पता होता था। लोग सब मिल बॉट लेते थे, सुख हो या दुख, शादी हो या त्योहार, या हो मिठाइयॉ। उन दिनों घर घर में टेलीविजन नही होता था और लोगों के पास पडोसियों के लिये वक्त होता था। पडोसियों में भाईचारा इतना कि जब मॉ बीमार होती थी तो अपना चूल्हा जलाने से पहले पडोस की महिलायें (जिन्हे हम हम चाची कहा करते थे) हमारा खाना बना जातीं थीं।
बाद में महानगरों में रहते हुए मैने पाया जाने कहॉ से अदृश्य दीवारें आ जाती हैं अपने बीच। कितने ही बार महानगरों में मेरा पडोसी कौन है, मुझे नही मालूम होता था।
जीवन में कितने ही घर बदले, कितने ही शहर देखे, महानगर देखे, देश देखे, पर स्मृतियों मे वो घर कभी नही गया। आज वो मकान नही है, जब पिछली बार मै उस गली से गुजरा था कोई तीन साल पहले वहॉ एक बडी सी बहुमन्जिला इमारत दिखाई दी। पर मेरी स्मृतियों में आज बीसियों सालों बाद भी वो घर वैसा का वैसा जीवित है। सपनों मे मेरा उस घर मे आज भी बेरोकटोक आना जाना है।
8 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: अनूप शुक्ल [ Monday, April 24, 2006 7:13:00 PM]…
आगे भी आप अपनी यादें बांटते रहें।
प्रेषक: अनूप शुक्ल [ Monday, April 24, 2006 7:15:00 PM]…
बढ़िया लगा!
प्रेषक: Anonymous [ Tuesday, April 25, 2006 12:33:00 AM]…
अच्छा लिखते हैं आप. सच है, कुछ स्मृतियां कालजयी होती हैं.
प्रेषक: Jitendra Chaudhary [ Tuesday, April 25, 2006 3:08:00 AM]…
बहुत सुन्दर लिखा है यार! मजा आ गया। सच है, बीती यादें, मन मे कभी दु:ख और कभी सुख की लहरें पैदा कर देती है, लेकिन कुछ भी हो, पुरानी बाते याद करके बहुत अच्छा लगता है। जब भी याद करो, लगता है अभी कल ही की तो बात थी।कभी कभी तो लगता है आने वाले भविष्य का रास्ता बीते हुए कल के बीच से ही निकलता है।
मै जब कभी उदास हो जाता हूँ, पिछली बातें याद कर लेता हूँ,बस मन खुश हो जाता है।बीता हुआ पल तो हम सहेज कर नही रख सके,कम से कम यादें ही संजोकर रख लें। अच्छा लगा भाई, लगातार लिखते रहो।
प्रेषक: विजय वडनेरे [ Tuesday, April 25, 2006 4:28:00 AM]…
"...जीवन में कितने ही घर बदले, कितने ही शहर देखे, महानगर देखे, देश देखे, पर स्मृतियों मे वो घर कभी नही गया। ..."
ऐसा ही होता है, कुछ तो होता है जो आपको अपने पहले घर से जोडकर रखता है...
मेरी भी स्मृतियों से मेंरा पहला घर आज तक नहीं गया. और पहला ही क्यों? अपने पैरों पर खडे होने के पहले के सभी घर स्मृतियों में अपना स्थान बना कर ही रखते हैं.
हाँ, नून तेल लकडी के इंतजामात के लिये घर से निकलते ही..सारे घर सराय मात्र लगने लगते हैं.
प्रेषक: Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी [ Tuesday, April 25, 2006 8:17:00 AM]…
वाह, सुंदर लिखा है।
प्रेषक: Udan Tashtari [ Tuesday, April 25, 2006 10:59:00 AM]…
बहुत बढिया लिखा है.
समीर लाल
प्रेषक: ई-छाया [ Tuesday, April 25, 2006 6:14:00 PM]…
धन्यवाद बन्धुऒं, अनूप शुक्ल जी, ई स्वामी जी, जितेन्द्र भाई, विजय बाबू, मानसी जी तथा समीर जी, उत्साहवर्धन के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। आशा है आगे भी वरदहस्त प्राप्त होता रहेगा।
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