दो कवितायें
दो कवितायें
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सबसे पहले एक निवेदन यह है कि मै कवि तो बिलकुल भी नही हूँ और मैने बस यूँ ही बैठे हुए मन के कुछ विकारों को कागज पर उकेर दिया है।
१)
याद नही आता पिछली बार
इस शहर में बिजली कब गई थी
याद आते हैं पुश्तैनी वो गॉव
जहॉ बिजली थी ही नही कभी
वातानुकूलित कमरों में पला मेरा बेटा
शायद ही समझेगा कभी
ये चिलचिलाती धूप कडी गर्मी
कडकडाती ठंड क्या है होती
सोचता हूँ वन्चित रह जायेगा
रंगों से जीवन के कितने ही
कितनी ही कहानियों से मुहावरों से
खेतों से रसों से कितने ही
२)
बहुत दिनों से छत पर कवितायें पढ पढ कर मैने सोचा मै भी कुछ छत का जिक्र वाली कविता लिखूँ
अट्टालिकाओं से भरे इस शहर में
एक आसमान ढूँढता हूँ
आसमान जिसमें मै बचपन में
गेंदों को ओझल हो जाने तक की
ऊँचाइयों तक फेंकता था
कभी गिनता था पंछियों को
कभी सितारों को
छत पर यूँ ही लेटे हुए
कभी दिखता था इन्द्रघनुष
कभी कोई विमान
और कभी दिखती थी कोई पतंग
दूर गगन में हवा में
हिचकोले लेते हुए
जैसे इठला रही हो
जश्न मना रही हो ऊँचाइयों का
जाने कहाँ खो गया है मेरा
वो आसमान वो पंछी वो पतंगें
पतंगें जो जानती थीं
कि आखिरकार
ये कुछ समय की बात है
और जमीन पर आना शाश्वत सच है
फिर भी इठलाती थीं
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सबसे पहले एक निवेदन यह है कि मै कवि तो बिलकुल भी नही हूँ और मैने बस यूँ ही बैठे हुए मन के कुछ विकारों को कागज पर उकेर दिया है।
१)
याद नही आता पिछली बार
इस शहर में बिजली कब गई थी
याद आते हैं पुश्तैनी वो गॉव
जहॉ बिजली थी ही नही कभी
वातानुकूलित कमरों में पला मेरा बेटा
शायद ही समझेगा कभी
ये चिलचिलाती धूप कडी गर्मी
कडकडाती ठंड क्या है होती
सोचता हूँ वन्चित रह जायेगा
रंगों से जीवन के कितने ही
कितनी ही कहानियों से मुहावरों से
खेतों से रसों से कितने ही
२)
बहुत दिनों से छत पर कवितायें पढ पढ कर मैने सोचा मै भी कुछ छत का जिक्र वाली कविता लिखूँ
अट्टालिकाओं से भरे इस शहर में
एक आसमान ढूँढता हूँ
आसमान जिसमें मै बचपन में
गेंदों को ओझल हो जाने तक की
ऊँचाइयों तक फेंकता था
कभी गिनता था पंछियों को
कभी सितारों को
छत पर यूँ ही लेटे हुए
कभी दिखता था इन्द्रघनुष
कभी कोई विमान
और कभी दिखती थी कोई पतंग
दूर गगन में हवा में
हिचकोले लेते हुए
जैसे इठला रही हो
जश्न मना रही हो ऊँचाइयों का
जाने कहाँ खो गया है मेरा
वो आसमान वो पंछी वो पतंगें
पतंगें जो जानती थीं
कि आखिरकार
ये कुछ समय की बात है
और जमीन पर आना शाश्वत सच है
फिर भी इठलाती थीं
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11 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: Udan Tashtari [ Wednesday, May 10, 2006 7:39:00 PM]…
मन के भाव सुंदर हैं, बहुत बढिया, छाया जी. मै तो इसे कविता ही मानूँगा, भले ही आप कुछ भी समझें.
अरे भाई, अब तो अपना नाम लिख दो ब्लाग पर, इतनी बडी घटना घट चुकी है फ़िर भी नही लिख रहे??
प्रेषक: Pratik Pandey [ Wednesday, May 10, 2006 9:19:00 PM]…
आपकी दोनों ही कविताएँ बेहद पसन्द आयीं। वैसे, अगर आप कुछ दिनों के लिए अपने बेटे को भारत भेज दें, तो वह सारे रंग ज़रूर देख लेगा। मैं तो रोज़ बिजली जाने पर सिर्फ़ काला रंग ही देखता हूँ। :-)
प्रेषक: शालिनी नारंग [ Wednesday, May 10, 2006 11:37:00 PM]…
आपकी कविताएँ पढ़कर लगा कि आप अपने देश को अभी भी कितना याद करते हैं। अच्छा लगा ।
प्रेषक: अनूप शुक्ल [ Thursday, May 11, 2006 12:42:00 AM]…
बढ़िया कवितायें हैं-खासकर पहली वाली।
प्रेषक: संगीता मनराल [ Thursday, May 11, 2006 1:50:00 AM]…
बहुत खूबसूरत कवितायें हैं खासकर पहली वाली एक दम ताज़गी लिये| उसे पढकर मन में एक संतोष सा महसूस किया|
लिखते रहिये...
शुभकामनायें..
प्रेषक: Pratyaksha [ Thursday, May 11, 2006 2:38:00 AM]…
मुझे दोनों पसंद आई पर लगा कि दूसरी कविता का अंत कुछ और हो सकता था.
प्रेषक: Manish Kumar [ Thursday, May 11, 2006 8:54:00 AM]…
हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी के झेले हुये कष्ट से वंचित रहती है । शायद उनके लिये कुछ नयी चुनौती सोच रखी हो विधाता ने !
अच्छा प्रयास है आपका !
प्रेषक: प्रेमलता पांडे [ Thursday, May 11, 2006 10:00:00 AM]…
सुंदर अभिव्यक्ति है। शुभकामनाएं।
प्रेमलता
प्रेषक: रत्ना [ Thursday, May 11, 2006 1:13:00 PM]…
भाव एवम् शब्द रचना सुन्दर है
प्रेषक: ई-छाया [ Thursday, May 11, 2006 9:07:00 PM]…
आदरणीय समीर जी, प्रतीक जी, अनूप जी तथा मनीष जी
एवं आदरणीया शालिनी जी, संगीता जी, प्रत्यक्षा जी तथा प्रेमलता जी
धन्यवाद दोस्तों, मुझे मालूम है कि मै कैसा भी और कुछ भी लिखूँ आप लोग उत्साह वर्धन करते रहेंगे। मै आप सभी का हृदय से आभारी हूँ, मेरी अधकचरी रचनायें पढने के लिये और उन्हे सराहने के लिये।
प्रेषक: ई-छाया [ Thursday, May 11, 2006 9:09:00 PM]…
माफ करियेगा रत्ना जी, आप भी ऊपर के जवाब में अपने आपको सम्मिलित मानिये
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