Thursday, May 04, 2006

यादों के झरोखे से (दूसरा भाग)

यादों के झरोखे से (दूसरा भाग)
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हालांकि मुझे मेरी पिछली दो पोस्ट पर टिप्पणियॉ नही मिलीं, शायद मेरा लिखने का उत्साह जाता रहता, अगर मेरी नजर स्टेट्सकाउन्टर पर ना पडी होती जो कहता है कि बहुत से इन्टरनेट प्रवासियों ने मेरे चिठ्ठे पर अपनी कृपादृष्टि डाली है। इतना ही बहुत समझ आगे लिखता हूँ। अगर आप भूले भटके मेरे ब्लोग तक आयें और टिप्पणी के लायक समझें कृपया कन्जूसी न करें। आपकी टिप्पणियॉ ही मेरे आगे लिखने का सम्बल हैं।

तो मैने पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि कैसे मै जंगल के बीच स्थित इस कम्पनी तक पँहुचा और आश्चर्यजनक तरीके से चुना गया उस साक्षात्कार में, जिसके बारे में मुझे कुछ भी पूर्वानुमान या पूर्वाभास न था। खैर मित्र का साथ था और कुछ वो एकान्त सी जगह, और वो सुन्दर सा संयन्त्र मुझे पसन्द सा आ गया था, तो बस फिर मैने वो नौकरी शुरू कर दी। रहने के लिये कुछ दिनों तक अतिथिगृह था और कुछ समय बाद कम्पनी द्वारा एक अपार्टमेन्ट दिया गया। अब उस उजाड जंगल में भला कौन मुझे घर देता, या मै कहॉ घर ढूँढता, तो कम्पनी ही सबके रहने का प्रबन्ध करती थी। कम्पनी की अच्छी खासी बस्ती थी। बस्ती क्या पूरी दुनिया थी जहॉ सब कुछ था जैसे गली, मोहल्ले, चौराहे, चबूतरे, चौपाल, ऊँच-नीच, क्षेत्रीयता, धर्म, जॉत-पॉत, बिरादरी आदि आदि।

मुझे शुरू में तो लोगों ने थोडा जाँचा परखा पर थोडे ही दिनों में अच्छा खासा मित्र वर्ग बन गया। काम था तकनीशियनों को देखना, उन्हे काम देना, हाजिरी लेना, घन्टों का हिसाब रखना, कुल मिलाकर प्रबन्धन करना और कुछ वरिष्ठ अधिकारी थे ही। तो वे वरिष्ठ अधिकारीगण मुझे काम देते थे जो मै मेरे तकनीशियनों को देता था, कुल मिलाकर middleman या बीच वाला काम था। संयन्त्र बहुत बडा था तो काम भी बहुत था और पूरा पूरा दिन भागते भागते ही गुजर जाता था। रखरखाव तथा सुधार मेरा विभाग था। तमाम उपकरणों की देख रेख करना, उनकी बीमारियों का उपचार करना। तकनीशियनों की एक दवा थी जो उनसे काम करवा सकती थी और वो थी ओवरटाइम यानी अतिरिक्त घन्टे, जिसका उन्हे दोगुना पैसा मिलता था। ज्यादातर तकनीशियन अच्छे थे पर कुछ बेहद बददिमाग भी थे। उनसे काम करवाना तो दूर बात करना भी बडा कठिन था। उनके लिये ओवरटाइम भी काम का नही था। कुल मिलाकर अकल के दुश्मन किसे कहते हैं, ये तब समझ में आया।

शाम को हम दोस्त (संयन्त्र के साथी) ताश खेलते थे। बाद में हमने चन्दा जमा कर एक टेलीविजन ले लिया था। पूरे तो नही पर कुछ चैनेल आते थे। रोज काम करने वाले दोस्तों के साथ रहने का सबसे बडा नुकसान था कि हम उस संयन्त्र की बातों से कभी बाहर नही निकल पाते थे। कभी कभी बडी कोफ्त भी होती थी। सप्ताह में छः दिन हम काम करते थे। रविवार हम देर से सो कर उठते, थोडा घूमने जाते। घूमने के लिये खास कुछ था ही नही। छोटी सी बस्ती, संयन्त्र और आसपास घना जंगल था, कुछ शहरी सभ्यता से दूर ग्रामीण बस्तियॉ भी थीं, जंगल में ही एक हनुमान जी का मन्दिर था। जब कभी कार्यदिवसो में मै संयन्त्र से जल्दी वापस आता, किसी एक मित्र के साथ उस मन्दिर हनुमान जी के दरबार में जाता। मन्दिर एकदम जंगल के बीच में होने के कारण पंडित जी उसे सूर्य ढलने के थोडी देर बाद ही बन्द कर देते थे। कितनी ही बार वो मन्दिर हमें बन्द मिलता था, तो बस बाहर से ही हाथ जोड लेते थे हनुमान जी बाबा को।

मन्दिर से लौटते वक्त अक्सर अन्धेरा हो जाता था। एक घटना याद आ रही है, एक बार कई अन्य मौकों की तरह मुझे और मेरे मित्र को मन्दिर बन्द मिला और हम दुःखी-भारी मन से वापस लौट रहे थे। ना जाने किस विषय पर बातें कर रहे थे और मेरा ध्यान सडक पर बिल्कुल भी नही था। अचानक मेरा मित्र चिल्लाया "सॉप, सॉप" और पलक झपकते ही वो दौडकर कुछ फुट आगे चला गया। अब नजारा ये था कि बीच मे था एक फन उठाये बैठा गेँहुअन नाग, जो अनिश्चय की सी स्थिति में था, मै एक तरफ और मेरा मित्र दूसरी तरफ। मै था जंगल की तरफ और मेरा मित्र संयन्त्र की तरफ। कितने ही क्षण हम ऐसे ही खडे रह गये, मै हनुमान चालीसा पढते हुये। शायद खुद ही ऊबकर सॉप पास की एक झाडी में चला गया और उसके बाद मै ऐसा भागा कि बस पूछिये मत, मेरे दोस्त को भी पीछे छोड दिया मैने, जो मुझे रुकने को कहता पीछे पीछे आया। सीधा अपार्टमेन्ट पँहुचकर ही दम लिया।

मन्दिर के पीछे एक रास्ता जाता था जिसके बारे में हम लोग रोज सोचते थे और विमर्श करते थे कि ये कहॉ जाता होगा यार ये रास्ता भला इस घने जंगल में। जिन्दगी और संयन्त्र की भागदौड में न हमें कभी वक्त मिला न साहस हुआ और न कभी हम लोग जा पाये उस रास्ते पर बहुत दिनों तक।

कई दिनों तक काम करने के बाद मन ऊबने लगा था, संसार से कटा हुआ जीवन। सप्ताह में दो बार कम्पनी की बस शहर जाती थी, फिर वही बस वापस आती थी। उससे शहर जाकर तीन घन्टों के अन्तराल में खरीददारी की जा सकती थी जिसका हम "छडे" भरपूर लाभ उठाते थे। कभी कभी हम शहर जाकर फिल्म भी देखते थे। लेकिन संयन्त्र, संयन्त्र और संयन्त्र ही दिमाग पर छाया रहता था ऐसा लगता था कि बाकी दुनिया से हम बहुत दूर हैं। हम एक ऐसी जगह थे, जहॉ सारे काफी पुराने से हो चुके उत्पाद पँहुचते थे। हम टेलीविजन पर उत्पादों के विज्ञापन देखते थे ये जानते हुए कि यह उत्पाद जब तक हम तक पँहुचेगा कई महीने गुजर चुके होंगे।

आखिरकार डेढ साल बाद जब कुछ ही समय के अन्तराल में मैने आसपास कुछ दुर्घटनायें देखीं, तब मेरा पहले से ही कुछ उखडा सा मन उस जगह से पूरी तरह से उठ गया। संयन्त्र में एक उपकरण में एक दुर्घटना में एक तकनीशियन घायल हो गया और हमारे साथ काम करने वाले तथा साथ ही रहने वाले एक घनिष्ठ मित्र की संयन्त्र के बाहर अचानक एक दुर्घटना में अकाल मृत्यु हो गई। तब मुझे पता चला कि मन्दिर के पीछे का रास्ता श्मशानघाट को जाता था, जो नदी के किनारे था। शायद यह प्रकृति का हमें वह रास्ता दिखाने का, अपना तरीका था।

उन घटनाओं के कुछ ही दिनों बाद मैने वह जगह और वह नौकरी छोड दी। बाकायदा इस्तीफा दिया, कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश भी की। कई सालों पहले मैने उस जगह को आखिरी सलाम किया और फिर उस जगह को कभी नही देखा। आज सोचता हूँ तो लगता है जैसे मिली थी वह नौकरी वैसे ही छोड दी बिना किसी तैयारी के। भटकाव का कुछ समय, और जीवन के कुछ वो साल जिन्हे शायद हम दुबारा न जीना चाहें, उनमें मै मेरे जीवन के उस समय को शामिल करूंगा, पर यह अपने हाथ में तो होता नही। हम उस पत्ते की तरह है हवा जहॉ चाहती है उडाकर ले जाती है और हम भरते है दम्भ हमने ये किया वो किया। शायद ही कभी हम जो सोचते हैं वो यथार्थ में होता है। इटली की एक कहावत है "man proposes GOD disposes" या उसके कुछ करीब हिन्दी में जब इन्सान सोचता है तब भगवान हँसता है।

कभी कभी मै सोचता हूँ ये जीवन एक लौहपथगामिनी-स्थानक जैसा है। लोग मिलते हैं, कुछ दूर साथ चलते हैं और बिछडते हैं। सबका अपना अपना गन्तव्य है। कोई थोडी दूर साथ चलता है कोई बहुत दूर तक साथ देता है। कुछ लोग तुरन्त मित्र बन जाते हैं कुछ आपको परखते हैं और कुछ को परिस्थितियॉ आपका मित्र बनाती हैं। कुछ लोग साथ चलकर भी कभी मित्र नही बनते, कुछ मित्र बनकर फिर दूर हो जाते हैं। लोग आते जाते रहते हैं, और कुछ लोग अपने निशान छोड जाते हैं। कुछ से हम दुबारा मिलना चाहते हैं, कुछ जगहों पर दुबारा जाना चाहते हैं, भले ही अब कोई भी पहचानने वाला न बचा हो।

इसी सन्दर्भ में राजेश खन्ना अभिनीत अमर हिन्दी फिल्म "आनन्द" का वो सम्वाद याद आता है।

"हम सब रंगमंच की कठपुतलियॉ हैं जहॉपनाह; कौन, कब, कहॉ, कैसे उठेगा कोई नही बता सकता"

सार मात्र यह है कि "सब कुछ पूर्वनियोजित है, हम केवल नेक कर्म कर सकते हैं पर जीवन की ज्यादातर घटनाओं पर हमारा बस नही।"

फिर से फिल्मो की भाषा में कहूँ तो "जो होना है सो होना है, फिर किस बात का रोना है"।

या गीता के अनुसार "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"

"कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर ऐ इन्सान"

पर यादें, वो तो हैं आती हैं और बदस्तूर (सतत्) आती हैं। आज मुझे उस जगह को आखिरी बार देखे बरसों हो गये ना मै उस तरह के किसी संयन्त्र में हूँ और ना ही वहॉ काम कर रहे किसी व्यक्ति से मेरा कोई भी सम्पर्क बचा है। पर आज भी मै कभी कभी रात में सपनों में उन विद्युत उपकरणों के बीच चला जाता हूं या हनुमान जी का वो जंगल मध्य स्थित मन्दिर याद आता है।

[समाप्त]

9 प्रतिक्रियाएँ:

  • प्रेषक: Blogger Udan Tashtari [ Thursday, May 04, 2006 8:38:00 PM]…

    भाई जी,
    परेशान न हो, यहाँ पढो. आशा है बुरा नही मानोगे.

    टिप्पणियों के लिये शुभकामनाऎं.
    समीर लाल

     
  • प्रेषक: Blogger रत्ना [ Thursday, May 04, 2006 10:04:00 PM]…

    आशा है समीर जी के लेख से बल मिला होगा ।शायद कोई आपकी यादों का सिलसला तोड़ना नहीं चाहता । आपके साथ पल बांट कर अच्छा लगा

     
  • प्रेषक: Blogger रवि रतलामी [ Thursday, May 04, 2006 10:21:00 PM]…

    "कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर ऐ इन्सान"...

    मित्रवर.. आप स्वयं यह लाइनें लिख रहे हैं एवं अपने लिखे पर टिप्पणियों की चिन्ता किए जा रहे हैं...

    यह मत भूलिए कि जो आज आप लिख रहे हैं ब्लॉगर पर, यह अनंतकाल तक चिरस्थाई बना रहेगा, जब तक कि आप स्वयं इसे न मिटा दें.

    तो, अगर अभी लोग टीप नहीं दे रहे हैं तो क्या हुआ - हो सकता है कि आज से तीसरी चौथी पीढ़ी आपका लिखा पढ़े और आनंद ले?

    लिखते रहने के आग्रह और शुभकामनाओं के साथ

     
  • प्रेषक: Anonymous Anonymous [ Friday, May 05, 2006 1:02:00 AM]…

    मेरे भाई,

    इतने जल्दी हार मत मानो. अभी अभी तो ब्लौग शुरु किया और सोचते हो की याहू जैसी ट्रैफिक आने लग जाये ???

    हे हे ... थोङा सब्र रखो मेरे भाई.

    एक और चीज: "लौहपथगामिनी-स्थानक", यह क्या चीज होती है मेरे भाई ?

    किसी भी भाषा में संज्ञा का उपयोग बङी आजादी से किया जाता है. 'रेल' एक संज्ञा है. इसलिये आपको इसके लिये "लौह पथ गामिनी" जैसे मजाकिया शब्दों का प्रयोग करने की जरूरत नहीं है.

    लिखते रहो ..

     
  • प्रेषक: Anonymous Anonymous [ Friday, May 05, 2006 1:25:00 AM]…

    भैये,

    आप लिखे जाओ, पढने वाले काफी हैं। हम ठहरे थोडे आलसी जीव टिप्पणीयो मे थोडी कंजूसी कर देते हैं।

     
  • प्रेषक: Blogger Basera [ Friday, May 05, 2006 11:19:00 AM]…

    बहुत धांसू कहानी लिखे हो भाई, हम तो चित हो गए।

     
  • प्रेषक: Blogger ई-छाया [ Friday, May 05, 2006 4:13:00 PM]…

    समीर जी, सबसे पहले तो आपको धन्यवाद, कई नेक सलाहें देने के लिये। रत्ना जी, आशीष जी तथा रजनीश जी पढने और टिप्पणियॉ के लिये धन्यवाद। रवि जी मै चाहता हूँ कि "कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर ऐ इन्सान" ऐसा ही करूँ लेकिन क्या करें दिल ही तो है। और हिमांशु जी आगे से रेल लिखने की कोशिश करूँगा लेकिन मैने ठेलुवा जी का वो चिठ्ठा पढा है और कोशिश की कि मै अन्ग्रेजी शब्दों का प्रयोग ना करूँ, जिनके हिन्दी समानार्थी उपलब्ध थे उन्हे उपयोग न करने का गुनाह मै नही करना चाहता था पर मै आपकी बात से सहमत हूँ कि ये पढना कठिन बनाता है। फिर भी मै टिकट, बस या टेलीविजन के उपयोग से बच नही पाया।

     
  • प्रेषक: Anonymous Anonymous [ Monday, May 08, 2006 6:42:00 PM]…

    टिप्‍पणी मिल जाय तो बोनस समझो ऐसी सब की शिकायत है इसलिये परेशान होने की जरूरत नही है बस लीकते रहो। ः)

     
  • प्रेषक: Anonymous Anonymous [ Thursday, January 04, 2007 1:46:00 PM]…

    टेन्शन नहीं लेने का छाया भाई, देखो अपुन पूरे एक साल बाद टिप्पणी करेला है। जैसा रवि भाई बोले ना कि ये आपका लिखा हुआ नेट पे अनंत काल तक बोले तो इनफानाईटली रहने का है।

     

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