Friday, August 18, 2006

एन आर आई

मानसी जी के लेख के बाद, मन में कई विचार उठे और लगा कि कुछ लिखूं।
बहुत सारे मतलब निकाले जाते रहे हैं इस एन आर आई शब्द के।

कुछ प्रचलित मतलब इस प्रकार हैं

१। नान रिलायबल इन्डियन (non reliable indian)
२। नान रिस्पेक्टेड इन्डियन (non respected indian)
३। नान रिटर्नेबल इन्डियन (non returnable indian)
४। नॉट रियली इन्डियन (not really indian)
५। नाउ रिक्वायर्ड इन्डियन (now required indian)
६। न्यूली रिस्पेक्टेड इन्डियन (newly respected indian)
७। नेवेर रिटर्नेबल इन्डियन (never returnable indian)

असली मतलब तो है नान रेसीडेन्ट इन्डियन (non resident indian) आप्रवासी भारतीय, पर वह कहीं खो गया है।

सरकारी परिभाषायें
फेमा (फोरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट एक्ट) के अनुसार एन आर आई है वह कोई भी व्यक्ति जो देश से बाहर है। विदेश में पढने आने वाले विद्यार्थी भी फेमा के अनुसार एन आर आई हैं।
वहीं इनकम टैक्स के नियमों के अनुसार मोटे तौर पर अगर किसी वित्तीय साल में कोई व्यक्ति १८२ दिनों से कम भारत में रहा है तो वह एन आर आई है।

बाकी भारतीयों की परिभाषा
मोटा मालदार, वह व्यक्ति जो सुख सुविधा के लिये देश छोड गया। कोई भी आपको एक अलग ही चश्मे से देखता है। कुछ अपवादों को छोडकर लगभग हर दोस्त या रिश्तेदार भले ही कुछ कहे न, पर आपसे कुछ न कुछ चाहता है। आप कौतूहल का विषय हैं। एन आर आई एक तमगा है, जिसे आप चाह कर भी नही उतार सकते।

लोग भले ही कहने को कह दें कि मै उन में से नही जो पैसे या कैरियर के लिये अपने देश को छोड जाऊं, पर मौका आने पर आप देख सकते हैं कि वे खुद भी लगे पडे हैं लाइन में। बहरहाल एन आर आई होने के बाद आप पहले वाले भारतीय नही रह जाते। भले ही आप जिस देश में रहते हों वहां सबसे गरीब हों पर भारत में आप बहुत पैसे वाले हैं, यह भावना आप लोगों के मन से निकाल नही पाते, भले ही आप भारत लौट जायें।

एन आर आई
खुद एन आर आई बेचारा, गली के कुत्ते सी हालत वाला होता है, न घर का न घाट का। विदेश में, जहां बस गया है, हमेशा बाहर वाला माना जाता है। सहकर्मी उसे बाहरी इंसान मानते हैं, कहीं डरते भी हैं कि ये लोग हमारी और हमारे देशवासियों की नौकरी खा रहे हैं। काले लोग आक्रमण करते हैं, लूटते हैं, गोरे अपने में शामिल नही करते।

खुद के विदेश में ही पले बढे बच्चे भी अजीब संघर्ष में जीते हैं और उसे जिम्मेदार मानते हैं अपनी पहचान के संकट के लिये। देश में तो लोग उसे अपने जैसा मानते ही नही। बेचारा पुराने गाने सुनता है। बच्चों को हिंदी सिखाने की असफल कोशिश करता है। अपने तीज त्यौहारों से जुडे रहने की कोशिश करता रहता है। देश की हर खबर से जुडा रहता है। अपने समाज के कार्यक्रम करता है, अपने जैसे लोगों में बैठने की कोशिश करता है। हर साल देस जाकर जैसे वह किसी पाप का प्रायश्चित करना चाहता है। बहुधा देस से रोग बीमारी या बुरे अनुभव लेकर आता है, पर अगले साल फिर तैयार जाने के लिये।

दिल में कहीं न कहीं हर वक्त कुछ छुट गया सा लगता है। अपने भाई, बहन, मां, बाप, नाते, रिश्तेदार, यार, दोस्त, गली, सडक, मोहल्ले, स्कूल, कालेज, गांव, शहर, कस्बे सब याद आते हैं। एक अन्तर्द्वन्द हमेशा मन में चलता रहता है, लगता है बस लौट जायें, अब बहुत हुआ, पर थोडा और थोडा और करके एक दिन पाता है कि अब वह चाहे तो भी लौट नही सकता। तिनका तिनका कर के बसाया गया आशियाना अब अपना सा लगता है। और सोचता है अपना देश अब अपने जैसा नही लगा, पिछली यात्रा के दौरान। पुराने लोग नही रहे, पुराने तौर तरीके नही रहे। पुराने गली मोहल्ले, माकान, सडक नही रहे। अब फिर से एक बार नई जगह बसने का संकट कौन मोल ले। दोस्त रिश्तेदार अब तुम्हारे बिना जीना स्वीकार कर चुके हैं। और तुम्हारी जडें अब यहां जम चुकी हैं। बच्चों की पढाई का क्या होगा? देस का तो सिस्टम ही अलग है। बच्चे तो जाना ही नही चाहते, उनका बस चले तो साल में एक बार जो जबरदस्ती ले जाये जाते हैं, वो भी नही जायें।

ओह्ह, इधर कुंआ उधर खाई, बीच में बेचारा एन आर आई।
और पढना चाहें तो सपने, संताप और सवाल

जो लौट नहीं सके....


या देखें

14 प्रतिक्रियाएँ:

  • प्रेषक: Blogger रवि रतलामी [ Friday, August 18, 2006 11:30:00 PM]…

    क्या सही परिभाषाएँ दी हैं आपने!

     
  • प्रेषक: Blogger Sunil Deepak [ Friday, August 18, 2006 11:32:00 PM]…

    बहुत दिल से लिखा लगता है, पर जीवन की सच्चाई केवल कड़वी ही नहीं होती, कभी कभी मीठी भी होती है. सच है कि लोग समझते हैं कि इनके पास तो बहुत पैसा है, बहुत लोग कुछ न कुछ चाहते हें, पर कोई भाव न दे तो भी अच्छा नहीं लगता, और कई बार यह कहने का लोभ कि "वहाँ तो ऐसा नहीं होता" या "वहाँ वैसा होता है", से खुद को रोक नहीं पाते. मुझे इस चर्चा में उनकी बात सुनना अच्छा लगेगा, जो अपने ही देश में रहते हुए, घर बार, रिश्तेदार छोड़ कर कहीं दूर किसी और राज्य में रहने के लिए मजबूर हैं, उनके अनुभव एनआरआई से कहाँ मिलते हैं या विभिन्न होते हैं!

     
  • प्रेषक: Anonymous Anonymous [ Saturday, August 19, 2006 12:04:00 AM]…

    दूर के ढोल हमेशा सुहावने होते है कान के पास बजें तो कष्ट पहुँचाते है। दूर रहकर जो रिश्ते मधुर लगते है रोज़ मिलने पर वही उबाऊ हो जाते है।

     
  • प्रेषक: Blogger अनुनाद सिंह [ Saturday, August 19, 2006 2:53:00 AM]…

    वाह, आपने तो दिल में कैद की सभी भावनाओं को पर्दे पर रख कर बड़ा ही मार्मिक चित्र बनाया है।


    लगभग यही दशा कमोबेश उन सबकी होती है जो अपना गाँव छोड़कर नजदीक के कस्बे में चले जाते हैं, या कस्बा छोड़कर किसी बड़े शहर में चले जाते हैं।

     
  • प्रेषक: Blogger Kalicharan [ Saturday, August 19, 2006 6:26:00 AM]…

    And then there are thelue like me :) who keep their whole family here.

     
  • प्रेषक: Blogger Udan Tashtari [ Saturday, August 19, 2006 10:41:00 AM]…

    सही लिखें हैं छाया भाई.

     
  • प्रेषक: Blogger Manish Kumar [ Saturday, August 19, 2006 11:09:00 PM]…

    इस विषय पर आपके उद्गार हमेशा दिल से निकले लगते हैं !

     
  • प्रेषक: Blogger Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी [ Monday, August 21, 2006 7:06:00 AM]…

    'जो नहीं लौट सके' बहुत सही लिखा गया है।छाया के चिट्ठाकार, आपने बहुत अच्छा लिखा है। मेरे लेखे में, "नहीं" के आगे शायद अब लिखने की ज़रूरत न पड़े। :-)

     
  • प्रेषक: Blogger ई-छाया [ Monday, August 21, 2006 12:48:00 PM]…

    रवि जी,
    बस नेट पर ढूंढता रहा था एन आर आई का मतलब।
    सुनील जी,
    धन्यवाद, मानता हूं बहुत सी बातें शायद धनात्मक भी होंगी। और मेरे लेख से केवल नकारात्मक बातें सामने आ रही हैं तो मै आगे ध्यान रखूंगा। प्रभुकृपा से भारत में दूसरे राज्य मे बसने का भी दर्दनाक अनुभव है मुझे, सच बताऊं तो भारत में किसी और राज्य में बसना ज्यादा कठिन है कुछ मायनों में, विदेश में बसने से, अगर आप गैरभाषाभाषी हैं तो।
    रत्ना जी,
    बिल्कुल सही।
    अनुनाद जी,
    धन्यवाद, सहमत हूं।

     
  • प्रेषक: Blogger ई-छाया [ Monday, August 21, 2006 12:52:00 PM]…

    कालीचरण जी,
    धन्यवाद, आप ही क्यों जनाब, बहुत से लोग हैं।
    समीर जी,
    धन्यवाद।
    मनीष जी,
    ओह, ऐसा है क्या ः) धन्यवाद।
    मानसी जी,
    यह लेख लिखने की प्रेरणा आपने दी।
    लेकिन अगली कडी आप जरूर लिखिये (नही के बाद)।
    मेरा लेख आपके लेख का विकल्प नही है।

     
  • प्रेषक: Blogger अनूप शुक्ल [ Tuesday, August 22, 2006 8:08:00 PM]…

    यह लेख मैंने पहले भी पढ़ा था। अब दुबारा पढ़ा। विदेश में बसने वाले के मानसिक कष्ट वहाँ रहने वाला ही महसूस कर सकता है। उनमें भी दर्द की मात्रा व्यक्ति सापेक्ष होती है।बढ़िया लिखा है। बधाई!

     
  • प्रेषक: Anonymous Anonymous [ Thursday, August 24, 2006 6:19:00 PM]…

    क्या सही परिभाषाएँ दी हैं आपने. अब तक सिर्फ पहली वाली का पता था।

     
  • प्रेषक: Blogger Pratyaksha [ Thursday, August 24, 2006 11:25:00 PM]…

    दिल की बात दिल से लिखी है । अपने ही देश में दूसरे प्रदेश में बसना ..हम्म कभी लिखूँगी }

     
  • प्रेषक: Blogger Basera [ Saturday, September 16, 2006 8:17:00 AM]…

    छाया भाई जी / बहन जी, आपका ईमेल नहीं था, इसलिए यहां लिख रेला हूँ। आपकी ये प्रविष्टी मैंने अपनी छोटी सी साप्ताहिक मुफ़्त बँटने वाली पत्रिका बसेरा के ग्याहरवें अँक में डाली है। उम्मीद है कि आपको कोई आपत्ती नहीं होगी। साथ में एक और प्रयोग भी करने जा रहा हूँ। अब से लेकर हर सप्ताह चुनी गईं ब्लाग प्रविष्टियों के लिए मैं छोटे से उपहार के रूप में एक एक यूरो (लगभग 55 - 58 रुपए) देना चाहता हूँ। अगर आप ये उपहार कबूल करते हैं तो कृपया मुझे भारत में अपने किसी बैंक खाते का विवरण rajneesh_mangla@yahoo.com पर भेजें। धन्यवाद।

     

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