ग्रीष्मावकाश - II
पिछली बार मैने मेरे बचपन के ग्रीष्मावकाश के बारे में लिखना शुरू किया था, उससे आगे-
पिता के शिक्षा के क्षेत्र में होने का लाभ यह था कि कि ग्रीष्मावकाश उन्हे भी मिलता था, ३० अप्रैल के बाद हम सपरिवार निकल पडते दादा दादी, नाना नानी के घर एक - दो महीने के लिये। सामान बांधा जाता। हम भारतीय रेल के सामान्य श्रेणी के डब्बों में बैठ निकल पडते। जब तक मै स्कूल में पढा, हर साल उन्ही दिनों मैने साल दर साल कई रेल यात्रायें की हैं। रेल यात्राओं का असली आनन्द तो वही था। भीषण गर्मी, लेकिन परिवार का साथ, घर का बना ही खाते पीते, कई बार आवश्यकतानुसार हम रेल भी बदलते, साथ में होती, रेल्वे स्टेशन से खरीदी गई कुछ पुस्तकें।
ट्रेन की खिडकी पर बैठने को लेकर मारामारी होती। और खिडकी मिले या न मिले पुस्तक के समाप्त होते ही हम बस खिडकी से बाहर देखते रहते घण्टों चलती हुई रेल में बैठे, बिजली के तारों को, खेत, खलिहान, पर्वत, पठार, मैदान, पीछे छूटते स्टेशन, पटरियों के किनारे बनी झोपडियां और उनमें रेल के अस्तित्व से बेखबर लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में, सुरंग, पुल, नीचे भागता दौडता शहर, रेल-क्रोसिंग (इंतजार में रुके बेचैन लोग), नदियां, नहरें, आस पास से गुजरती दूसरी ट्रेनें, कल-कारखाने, कुल मिलाकर जिंदगी के भागते दौडते रूप एक बच्चे की आंखों में उतरते जाते।
दादा दादी का घर या नाना नानी का घर किसी जन्नत से कम नही था। जिसमें स्नेह ही स्नेह था, बोली में, कार्य व्यवहार में, जैसे पूरा वातावरण ही चाशनीमय था। एक अलग ही दुनिया। एक और छोटे कस्बे में स्थित दादा दादी के घर में जाने के बाद नदी में नहाना, खुले मैदानों में भागना दौडना, खेतों में जाना, जंगली जानवरों और सांपों से परिचय होता। सच्चे अर्थों में हमारा पढाई की दुनिया छोडकर असली दुनिया से परिचय वहीं होता था।
वहां पढने के लिये मिलता हमें धार्मिक साहित्य। रामायण, महाभारत और कल्याण की कुछ प्रतियां। कभी कभी हमें पुरानी दीमक चाटी हुई सरिता, मुक्ता, कादंबिनी, सारिका या धर्मयुग की कुछ प्रतियां मिल जाती और हम खोये रहते उन पुस्तकों में। कमलेश्वर, रवीन्द्र कालिया और मोहन राकेश की कहानियां, उनकी पत्नी अनीता औलक के आत्मकथात्मक धारावाहिक "चंद सतरें और" के कई भाग मैने पढे हैं। बहुत छोटी उम्र में बहुत बडे बडे लेखकों के कृतित्व से परिचय हो गया था। वहीं कहीं श्रीलाल शुक्ल जी के किसी रिश्तेदार के घर मुझे "रागदरबारी" मिल गई थी, जिसे मैने कुछ दिनों में ही चाट डाला था। रागदरबारी मैने उसके बाद फिर कई बार पढी और हर बार थोडा थोडा करके उसे समझ सका। मै उसे व्यंग्य की दुनिया का शिरोमणि ग्रन्थ मानता हूं।
मुझे याद है, जब भारत ने क्रिकेट विश्व-कप जीता था १९८३ में, मई-जून ही था और मै मेरे दादा दादी के घर पर ही था। कैसे लोगों में क्रिकेट का जुनून सा छा गया था और पिता व उनके कई मित्रों में कई दिनों तक उसी की चर्चायें हुआ करती थी। उस अवसर पर खरीदी गई क्रिकेट-सम्राट की प्रति मैने बहुत दिनों तक संजो कर रखी थी।
मैने टेलीविज़न भी वहीं पर पहली बार देखा था। एशियाड के पहले तक तो रेडियो ही घर घर में छाये हुए थे। बहुत से कार्यक्रम हम रेडियो पर नियमित रूप से सुनते थे। उनमें से बी बी सी लंदन के समाचार और रेडियो सीलोन से शिवाका या बिनाका गीतमाला प्रमुख थे। अमीन सयानी की वह अमर आवाज आज भी मेरे कानों को गुंजित कर जाती है, "इस हफ्ते दो पायदान ऊपर चढकर पहले पायदान पर है वो गाना जो पिछले हफ्ते था तीसरी पायदान पर"। मुझे मालूम नही पायदान कैसे निर्धारित किये जाते थे (शायद सुनने वालों के पत्रों या रिकार्डों की बिक्री से), लेकिन हर हफ्ते उत्सुकता होती थी, इस बार कौन सा गाना आयेगा पहले पायदान पर।
जब दादा जी के एक पडोसी के घर टेलीविज़न आया तो हम बुधवार व शुक्रवार ८ बजे चित्रहार का इंतजार करते थे और रविवार को किसी पुरानी फिल्म का। चैनलों में केवल दूरदर्शन ही उपलब्ध था और "एक चिडिया अनेक चिडिया" जैसे अनेक (झेलाऊ) कार्यक्रमों को भी हम लोग बहुत पसंद कर लिया करते थे।
अगली बार अंतिम किश्त में मेरे नाना नानी के घर पर बिताई मेरी छुट्टियों के कुछ सुनहरे दिनों के बारे में
पिता के शिक्षा के क्षेत्र में होने का लाभ यह था कि कि ग्रीष्मावकाश उन्हे भी मिलता था, ३० अप्रैल के बाद हम सपरिवार निकल पडते दादा दादी, नाना नानी के घर एक - दो महीने के लिये। सामान बांधा जाता। हम भारतीय रेल के सामान्य श्रेणी के डब्बों में बैठ निकल पडते। जब तक मै स्कूल में पढा, हर साल उन्ही दिनों मैने साल दर साल कई रेल यात्रायें की हैं। रेल यात्राओं का असली आनन्द तो वही था। भीषण गर्मी, लेकिन परिवार का साथ, घर का बना ही खाते पीते, कई बार आवश्यकतानुसार हम रेल भी बदलते, साथ में होती, रेल्वे स्टेशन से खरीदी गई कुछ पुस्तकें।
ट्रेन की खिडकी पर बैठने को लेकर मारामारी होती। और खिडकी मिले या न मिले पुस्तक के समाप्त होते ही हम बस खिडकी से बाहर देखते रहते घण्टों चलती हुई रेल में बैठे, बिजली के तारों को, खेत, खलिहान, पर्वत, पठार, मैदान, पीछे छूटते स्टेशन, पटरियों के किनारे बनी झोपडियां और उनमें रेल के अस्तित्व से बेखबर लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में, सुरंग, पुल, नीचे भागता दौडता शहर, रेल-क्रोसिंग (इंतजार में रुके बेचैन लोग), नदियां, नहरें, आस पास से गुजरती दूसरी ट्रेनें, कल-कारखाने, कुल मिलाकर जिंदगी के भागते दौडते रूप एक बच्चे की आंखों में उतरते जाते।
दादा दादी का घर या नाना नानी का घर किसी जन्नत से कम नही था। जिसमें स्नेह ही स्नेह था, बोली में, कार्य व्यवहार में, जैसे पूरा वातावरण ही चाशनीमय था। एक अलग ही दुनिया। एक और छोटे कस्बे में स्थित दादा दादी के घर में जाने के बाद नदी में नहाना, खुले मैदानों में भागना दौडना, खेतों में जाना, जंगली जानवरों और सांपों से परिचय होता। सच्चे अर्थों में हमारा पढाई की दुनिया छोडकर असली दुनिया से परिचय वहीं होता था।
वहां पढने के लिये मिलता हमें धार्मिक साहित्य। रामायण, महाभारत और कल्याण की कुछ प्रतियां। कभी कभी हमें पुरानी दीमक चाटी हुई सरिता, मुक्ता, कादंबिनी, सारिका या धर्मयुग की कुछ प्रतियां मिल जाती और हम खोये रहते उन पुस्तकों में। कमलेश्वर, रवीन्द्र कालिया और मोहन राकेश की कहानियां, उनकी पत्नी अनीता औलक के आत्मकथात्मक धारावाहिक "चंद सतरें और" के कई भाग मैने पढे हैं। बहुत छोटी उम्र में बहुत बडे बडे लेखकों के कृतित्व से परिचय हो गया था। वहीं कहीं श्रीलाल शुक्ल जी के किसी रिश्तेदार के घर मुझे "रागदरबारी" मिल गई थी, जिसे मैने कुछ दिनों में ही चाट डाला था। रागदरबारी मैने उसके बाद फिर कई बार पढी और हर बार थोडा थोडा करके उसे समझ सका। मै उसे व्यंग्य की दुनिया का शिरोमणि ग्रन्थ मानता हूं।
मुझे याद है, जब भारत ने क्रिकेट विश्व-कप जीता था १९८३ में, मई-जून ही था और मै मेरे दादा दादी के घर पर ही था। कैसे लोगों में क्रिकेट का जुनून सा छा गया था और पिता व उनके कई मित्रों में कई दिनों तक उसी की चर्चायें हुआ करती थी। उस अवसर पर खरीदी गई क्रिकेट-सम्राट की प्रति मैने बहुत दिनों तक संजो कर रखी थी।
मैने टेलीविज़न भी वहीं पर पहली बार देखा था। एशियाड के पहले तक तो रेडियो ही घर घर में छाये हुए थे। बहुत से कार्यक्रम हम रेडियो पर नियमित रूप से सुनते थे। उनमें से बी बी सी लंदन के समाचार और रेडियो सीलोन से शिवाका या बिनाका गीतमाला प्रमुख थे। अमीन सयानी की वह अमर आवाज आज भी मेरे कानों को गुंजित कर जाती है, "इस हफ्ते दो पायदान ऊपर चढकर पहले पायदान पर है वो गाना जो पिछले हफ्ते था तीसरी पायदान पर"। मुझे मालूम नही पायदान कैसे निर्धारित किये जाते थे (शायद सुनने वालों के पत्रों या रिकार्डों की बिक्री से), लेकिन हर हफ्ते उत्सुकता होती थी, इस बार कौन सा गाना आयेगा पहले पायदान पर।
जब दादा जी के एक पडोसी के घर टेलीविज़न आया तो हम बुधवार व शुक्रवार ८ बजे चित्रहार का इंतजार करते थे और रविवार को किसी पुरानी फिल्म का। चैनलों में केवल दूरदर्शन ही उपलब्ध था और "एक चिडिया अनेक चिडिया" जैसे अनेक (झेलाऊ) कार्यक्रमों को भी हम लोग बहुत पसंद कर लिया करते थे।
अगली बार अंतिम किश्त में मेरे नाना नानी के घर पर बिताई मेरी छुट्टियों के कुछ सुनहरे दिनों के बारे में
2 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: Sunil Deepak [ Thursday, July 20, 2006 10:36:00 PM]…
मेरी बचपन की छुट्टियों की यादें भी कुछ ऐसी ही थीं. एक तरह से जीवन जब सीधा साधा था, अधिक आनंदमय था पर शायद यह इसलिए भी लगता हो कि बचपन ही आनंदमय होता है.
प्रेषक: ई-छाया [ Thursday, July 27, 2006 12:56:00 PM]…
सुनील जी पढने व टिप्पणी के लिये धन्यवाद
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