बिंदास जीवन
आज बगल में बैठने वाले सज्जन ने इस्तीफा दे दिया। आखिरी दिन था उनका मेरे कार्यालय में। ७ साल साफ्टवेयर में काम करने के बाद मिलिटरी में पायलट बनने के लिये चले गये। होता है ना आश्चर्य? असल में मैने गैर भारतीयों, खासतौर पर विकसित देशों के निवासियों में, यह बहुत देखा है, दिल की सुनते हैं, नौकरी वगैरा की चिन्ता नही करते ज्यादा। असल में सब जगह काम करने वालों की कमी है, तो जॉब सेक्योरिटी की चिन्ता तो होती नही ज्यादा। हम भारतीय कर सकते हैं ऐसा क्या?
अमेरिका में अस्थाई कर्मचारियों को कान्ट्रेक्टर कहा जाता है। बहुत से लोग स्थाई नौकरी का प्रस्ताव होते हुए भी कान्ट्रेक्टर बने रहना पसंद करते हैं। कान्ट्रेक्टर इम्प्लाई को पैसा ज्यादा मिलता है और कम्पनियों के लिये भी फायदे का सौदा। हायर एण्ड फायर। आजकल सुना है भारत भी पँहुच रही है हायर एण्ड फायर की नीति। नियमित कर्मचारी हमेशा अपने आपको कान्ट्रेक्टर से श्रेष्ठ मानते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि बहुत से भारतीय भी जब नियमित कर्मचारी बन जाते हैं, तो अपने ही देश वाले कान्ट्रेक्टर से अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं और थोडा रुतबा बना कर चलते हैं। कुछ हद तक शायद ये ठीक भी है, क्योंकि बहुत से कान्ट्रेक्टर्स को तो बस अपना टर्म पूरा करके निकल लेने की गरज होती है और बाद में उनका किया धरा कर्मचारी ही संभालते हैं।
इसके पहले एक अन्य सज्जन पिछले सप्ताह इस्तीफा देकर चले गये थे। वैसे कान्ट्रेक्टर ही थे। उन्होने बताया वो दस महीने काम करते हैं, फिर उसके बाद कुछ आठ या दस महीने किसी और गरीब देश जाकर रहते हैं, जैसे इक्वेडोर या ब्राजील। कोई कन्या पसंद आई तो शादी वगैरा भी कर लेते हैं। अब तक शायद दो चार कर भी चुके हैं। पैसा खत्म तो वापस काम पर अमेरिका में। पैसा है जेब में जब तक, दुनिया घूमते रहते हैं।
अब तो मुझे आदत पड गयी है, पर पहलेपहल बहुत आश्चर्य होता था। एक सज्जन सप्ताहांत में हर्ले डेविडसन दौडाते हैं, बहुत बडे समूह के साथ, उम्र है ७० वर्ष, और प्रोजेक्ट मैनेजर (कान्ट्रेक्टर) हैं। एक स्काई डायविंग करते हैं। एक तो बाकायदा प्रोफेशनल मेराथन दौडते हैं, उसके लिये कई देशों की यात्रा करते रहते हैं, बाकी समय में हमारे साथ काम करते हैं। ये लोग कितनी जिंदगियाँ एक साथ जी लेते हैं, और गजब की जीवटता और समर्पण है अपनी रुचियों हॉबियों के लिये।
कुछ दिनों पहले एक और अविवाहित महिला ने इस्तीफा दे दिया था। कारण कुछ दिन आराम से घर पर रहेंगे, फिर घूमेंगे घामेंगे, इच्छा हुई तो वापस आयेंगे, नही तो नही। वाह साहब क्या अंदाज हैं जीवन जीने के। सरकार भी काफी बेरोजगारी भत्ता दे देती है, नौकरियां भी बहुत सी हैं, चिन्ता किस बात की है।
बचपन से सुना है, नौकरी, नौकरी और नौकरी। पढो नही तो नौकरी नही मिलेगी। अंग्रेजी सीखो नही तो नौकरी नही मिलेगी। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के हर बच्चे के दिमाग में यही बैठा दिया जाता है कि नौकरी ही सब कुछ है। नौकरी ही भगवान है। किसी भी अन्य विकासशील देश की तरह ही भारत में फैली बेरोजगारी युवाओं को और कुछ सोचने या करने के लिये प्रेरित नही कर पाती। अपने आप को एक अदद नौकरी के लायक बना लो और जब मिल जाये तो करते रहो जीवन भर। लगी लगाई नौकरी छोडने वाला तो निरा बेवकूफ ही माना जायेगा भला। छोडना चाहे तो भी घर वाले या तो उसे किसी दिमागी दवाखाने में भर्ती करा देंगे या मना लेंगे कि ना छोडे।
जब सुनील जी ने कल्याण वर्मा के बारे में लिखा तो मैने उनके बारे में पढा। अच्छा खासा कैरियर दॉव पर लगा वर्मा जी ने वन जीवन फोटोग्राफी अपनाई और अब उसमें भी सफल हैं। पर हममें से कितने लोग ऐसा कर पाते हैं? कितने ही सपने अधूरे रह जाते हैं हमारी आँखों में, और हम उन्हे कभी पूरा कर नही पाते। शायद हम ऐसा बिंदास जीवन नही जी सकते। जो मन आया किया, जो मन आया घूमा, जिससे मन आया शादी की, मन आया छोड दिया। हम जीते हैं जीवन बंध के, नियम से, कायदे से, कानून से, शायद इसीलिये हम भारतीय ज्यादा सफल हैं। कुछ खोते हैं कुछ पाते हैं। पर इन्हे बिंदास जीवन जीते देख कभी कभी एक कसक तो उठती ही है मन में। इसी का नाम तो है जिंदगी।
अमेरिका में अस्थाई कर्मचारियों को कान्ट्रेक्टर कहा जाता है। बहुत से लोग स्थाई नौकरी का प्रस्ताव होते हुए भी कान्ट्रेक्टर बने रहना पसंद करते हैं। कान्ट्रेक्टर इम्प्लाई को पैसा ज्यादा मिलता है और कम्पनियों के लिये भी फायदे का सौदा। हायर एण्ड फायर। आजकल सुना है भारत भी पँहुच रही है हायर एण्ड फायर की नीति। नियमित कर्मचारी हमेशा अपने आपको कान्ट्रेक्टर से श्रेष्ठ मानते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि बहुत से भारतीय भी जब नियमित कर्मचारी बन जाते हैं, तो अपने ही देश वाले कान्ट्रेक्टर से अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं और थोडा रुतबा बना कर चलते हैं। कुछ हद तक शायद ये ठीक भी है, क्योंकि बहुत से कान्ट्रेक्टर्स को तो बस अपना टर्म पूरा करके निकल लेने की गरज होती है और बाद में उनका किया धरा कर्मचारी ही संभालते हैं।
इसके पहले एक अन्य सज्जन पिछले सप्ताह इस्तीफा देकर चले गये थे। वैसे कान्ट्रेक्टर ही थे। उन्होने बताया वो दस महीने काम करते हैं, फिर उसके बाद कुछ आठ या दस महीने किसी और गरीब देश जाकर रहते हैं, जैसे इक्वेडोर या ब्राजील। कोई कन्या पसंद आई तो शादी वगैरा भी कर लेते हैं। अब तक शायद दो चार कर भी चुके हैं। पैसा खत्म तो वापस काम पर अमेरिका में। पैसा है जेब में जब तक, दुनिया घूमते रहते हैं।
अब तो मुझे आदत पड गयी है, पर पहलेपहल बहुत आश्चर्य होता था। एक सज्जन सप्ताहांत में हर्ले डेविडसन दौडाते हैं, बहुत बडे समूह के साथ, उम्र है ७० वर्ष, और प्रोजेक्ट मैनेजर (कान्ट्रेक्टर) हैं। एक स्काई डायविंग करते हैं। एक तो बाकायदा प्रोफेशनल मेराथन दौडते हैं, उसके लिये कई देशों की यात्रा करते रहते हैं, बाकी समय में हमारे साथ काम करते हैं। ये लोग कितनी जिंदगियाँ एक साथ जी लेते हैं, और गजब की जीवटता और समर्पण है अपनी रुचियों हॉबियों के लिये।
कुछ दिनों पहले एक और अविवाहित महिला ने इस्तीफा दे दिया था। कारण कुछ दिन आराम से घर पर रहेंगे, फिर घूमेंगे घामेंगे, इच्छा हुई तो वापस आयेंगे, नही तो नही। वाह साहब क्या अंदाज हैं जीवन जीने के। सरकार भी काफी बेरोजगारी भत्ता दे देती है, नौकरियां भी बहुत सी हैं, चिन्ता किस बात की है।
बचपन से सुना है, नौकरी, नौकरी और नौकरी। पढो नही तो नौकरी नही मिलेगी। अंग्रेजी सीखो नही तो नौकरी नही मिलेगी। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के हर बच्चे के दिमाग में यही बैठा दिया जाता है कि नौकरी ही सब कुछ है। नौकरी ही भगवान है। किसी भी अन्य विकासशील देश की तरह ही भारत में फैली बेरोजगारी युवाओं को और कुछ सोचने या करने के लिये प्रेरित नही कर पाती। अपने आप को एक अदद नौकरी के लायक बना लो और जब मिल जाये तो करते रहो जीवन भर। लगी लगाई नौकरी छोडने वाला तो निरा बेवकूफ ही माना जायेगा भला। छोडना चाहे तो भी घर वाले या तो उसे किसी दिमागी दवाखाने में भर्ती करा देंगे या मना लेंगे कि ना छोडे।
जब सुनील जी ने कल्याण वर्मा के बारे में लिखा तो मैने उनके बारे में पढा। अच्छा खासा कैरियर दॉव पर लगा वर्मा जी ने वन जीवन फोटोग्राफी अपनाई और अब उसमें भी सफल हैं। पर हममें से कितने लोग ऐसा कर पाते हैं? कितने ही सपने अधूरे रह जाते हैं हमारी आँखों में, और हम उन्हे कभी पूरा कर नही पाते। शायद हम ऐसा बिंदास जीवन नही जी सकते। जो मन आया किया, जो मन आया घूमा, जिससे मन आया शादी की, मन आया छोड दिया। हम जीते हैं जीवन बंध के, नियम से, कायदे से, कानून से, शायद इसीलिये हम भारतीय ज्यादा सफल हैं। कुछ खोते हैं कुछ पाते हैं। पर इन्हे बिंदास जीवन जीते देख कभी कभी एक कसक तो उठती ही है मन में। इसी का नाम तो है जिंदगी।
4 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: रवि रतलामी [ Friday, July 07, 2006 10:54:00 PM]…
....बचपन से सुना है, नौकरी, नौकरी और नौकरी। पढो नही तो नौकरी नही मिलेगी। अंग्रेजी सीखो नही तो नौकरी नही मिलेगी। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के हर बच्चे के दिमाग में यही बैठा दिया जाता है कि नौकरी ही सब कुछ है। नौकरी ही भगवान है। किसी भी अन्य विकासशील देश की तरह ही भारत में फैली बेरोजगारी युवाओं को और कुछ सोचने या करने के लिये प्रेरित नही कर पाती। अपने आप को एक अदद नौकरी के लायक बना लो और जब मिल जाये तो करते रहो जीवन भर। लगी लगाई नौकरी छोडने वाला तो निरा बेवकूफ ही माना जायेगा भला। छोडना चाहे तो भी घर वाले या तो उसे किसी दिमागी दवाखाने में भर्ती करा देंगे या मना लेंगे कि ना छोडे।...
भारत में तो यही हाल है भइया और आगे भी रहेगा ऐसे ही. क्या कर सकते हैं.
अगर नौकरी मिलने की चिंता न हो, रोजगार की चिंता न हो तो फिर ऐसा एडवेंचरस जीवन किसे नहीं सुहाएगा. ऊपर से भारत में आपकी नौकरी के कुल मासिक वेतन में से कितना बचा सकते हैं . अफ़्रीका का एयर टिकट खरीदने के लिए एक आम एक्जीक्यूटिव की तीन महीने की तनख्वाह लग जाती है. ऐसे में तो बस सपने देखते रहो..
प्रेषक: Manish Kumar [ Friday, July 07, 2006 11:29:00 PM]…
अच्छा विषय चुना है भाई ! नौकरी मिलने ना मिलने का तनाव नहीं रहे तो आदमी अपनी रुचियों के लिये अपनी जीवन शैली बदल सकता है।
प्रेषक: प्रेमलता पांडे [ Saturday, July 08, 2006 12:27:00 AM]…
आसपास का वातावरण सोच को प्रभावित तो करता है परंतु रुचि के अनुसार शौक पूरा करना सभी को मयस्सर नहीं होता है।साथ ही नैतिकता, कर्त्तव्यपरायणता की भावना और असुरक्षित आर्थिक भविष्य भी भारतीय लोगों को बिंदास जीवन जीने से रोकता है।
भारतीय संयुक्त परिवार की विचारधारा रखते हैं,अपने साथ-साथ कुटुंब की जिम्मेदारी भी समझते हैं।
प्रेषक: ई-छाया [ Tuesday, July 11, 2006 1:25:00 PM]…
रवि जी, मनीष जी एवं प्रेमलता जी,
पधारने के लिये धन्यवाद।
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