बीसवीं अनुगूँज: नेतागिरी,राजनीति और नेता
जब ये विषय देखा तो सोचा कि इस बार तो मै कुछ लिखने से रहा। एक सच्चा भारतीय होने की वजह से लिखने का क्या है, किसी भी विषय पर लिख सकता हूँ, और फिर राजनीति, क्या बात करते हैं साहब। ये तो घर घर पर, मोहल्ले मोहल्ले पर, चौराहे चौराहे पर और पान की हर दुकान पर, बसों में, रेलों में भारत में कहीं भी ये चर्चा तो मिल ही जायेगी आपको। मैने सोचा इस पर तो बीसवीं अनुगूँज में इतने लेख लिखे जायेंगे कि मेरा लेख कौन पढेगा। पर लगता है ज्यादातर चिठ्ठाकार प्रवास में हैं, तो ये बीडा किसी को तो उठाना पडेगा ना। तो साहब प्रयास करता हूँ, गलतियों के लिये शरू में ही क्षमायाचनासहित।
हजारो वर्ष पूर्व जब इस शब्द का आविष्कार हुआ होगा तो एक बडा ही पवित्र शब्द रहा होगा। राजनीति मतलब राजा की नीति, धर्म की नीति। तब शायद ये शब्द एक गाली की तरह उपयोग नही होता रहा होगा। आज कोई आपको यह कह दे कि "तुम बहुत राजनीति करते हो यार" ऐसा लगेगा बीच बाजार में पचासों जूते मार दिये किसी ने। ऐसा क्या हुआ है जिससे ये शब्द एक पवित्र शब्द से एक असहनीय गाली में बदल गया।
वैसे देखा जाय तो प्राचीन भारत (या विश्व) का इतिहास भरा पडा है, राजमहल में होने वाले षडयंत्रों से, सौतों के डाह से, अपनों के कत्लों से। राज प्राप्त करने के लिये लोगों ने सारी हदें पार कीं। कई बार योग्य उम्मीदवार मारे गये और अयोग्य सत्तारूढ हुए। एक उदाहरण है दाराशिकोह जिसे मारकर औरंगजेब ने दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा किया था। लोग कहते हैं दारा ज्यादा योग्य था। अब राजा बनने के बाद नीति तो औरंगजेब की भी राजनीति ही कहलाई।
अब ये देश का दुर्भाग्य ही रहा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यही सिलसिला जारी रहा है और दारा हमेशा मारे जाते रहे हैं और औरंगजेब हमेशा राज करते रहे। आज भी योग्य उम्मीदवार अपनी जमानत भी नही बचा पाते। चुनाव लडना एक बेहद खर्चीला काम है और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह आम जनता कर अदायगी के समय चुनाव खर्च का पैसा नही देती। पैसा कहाँ से आयेगा? जाहिर है जो आपके ऊपर पैसा लगायेगा वो एक तरह का निवेश करेगा और बदले में आपसे कुछ चाहेगा। भारत के सभी बडे उद्योगपति इसी तरह से राजनीतिक दलों पर पैसा लगाते हैं, और समय आने पर वसूलते भी हैं।
भारत विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है। शायद सबसे सफल भी कहा जाता होगा लेकिन ढेरों विसंगतियां हैं। दूरदर्शी राजनीतिक दलों का अभाव है। जनता भी दूर का नही सोचती। आज भी वोट डलने से पहले कम्बल बँटते हैं, शराब का दौर चलता है, जीतने के बाद नेता पहले अपना घर भरते हैं, फिर समर्थकों में बंदरबाँट करते हैं। बहुत से ज्यादा समझदार लोग वोट ही नही डालते "सब के सब साले एक जैसे हैं, किसको वोट दूँ, कोई मेरे वोट के लायक नही है" या "एक हमारे वोट से क्या उखड जायेगा"।
आज का ही समाचार है। जब देश की आम जनता भीषण गरमी से जूझ रही है, हमारे नीतिनिर्धारक मय परिवार विदेश की ठंडी चरागाहों में बैठे हैं। हमारे आपके जैसे करदाताओं के कर का कितना सही उपयोग करते हुए। समाचार के अनुसार वाम समर्थित काँग्रेस सरकार के ग्यारह केंद्रीय मंत्री विदेश में हैं। इनमें से सोमनाथ चटर्जी सहित कई तो विश्व कप फुटबाल देखने जरमनी में हैं। यही लोग हैं जो कल आपको आम आदमी का दुखडा रोते नज़र आयेंगे संसद में। आम आदमी मतलब वो आदमी जिसके पास वोट है, पर अकल नही है। उसे उल्लू बनाकर वोट निकलवाने का खेल ही राजनीति है। उल्लू बनाने वाला नेता है।
आज कितने ही उदाहरण भरे पडे हैं उन नेताओं के जिनके घर राजनीति में आने से पहले भूंजी भांग भी नही थी और आज छापों में करोडों निकलते हैं, या आज दिन का खर्च लाख रूपये है। जनता को भी आजकल कोई आश्चर्य नही होता। ये भी और "आम" समाचारों की तरह एक अदना सा समाचार है। दिन गया कि समाचार पत्रों से गायब हो जाता है और आम आदमी की स्मृति से भी।
चुनाव में धर्म चलता है, जाति चलती है। लोग भेड बकरियों की तरह केवल अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देते हैं, योग्य हो या न हो।
चुनाव में लाठी भी चलती है। बाहुबली करें भी तो क्या, उनकी पहचान का और रोजी रोटी कमाने का सही वक्त है चुनाव। हमारे पडोस के जिले में एक राजा साहब चुनाव में खडे हुए थे, उनका वोट मांगने का तरीका अभिनव था। गाँव गाँव हाथी पर बैठकर गये और लोगों से पूछा "किसको वोट दोगे?", अब राजा साहब पूछ रहे हैं लोग क्या जवाब देंगे भला। सबने कहा "आपको सरकार"। "फिर ठीक है, मतदान केंद्र आने का कष्ट न करें, हम आपका वोट डाल देंगे"। और बस चुनाव के दिन मतदान केंद्र खाली होते थे, लेकिन वोट पूरे सत्तर अस्सी प्रतिशत पड जाते थे, राजा साहब हमेशा जीतते रहे, जबतक कि एक दिन मौत उनसे न जीत गई।
आपने सुना होगा भइया राजा का वो प्रचार गीत, उस समय बसपा का उदय नही हुआ था और निर्दलीय उम्मीदवार भइया राजा को पन्ना मध्यप्रदेश के पास के उनके एम एल ए के चुनाव के लिये हाथी का चुनाव चिन्ह मिला था।
मोहर लगेगी हाथी पर
नही तो गोली चलेगी छाती पर
और लाश मिलेगी घाटी पर।
आज मुझे याद नही पडता कि वो जीते थे या हार गये थे, लेकिन ये चुनाव प्रचार का अनूठा तरीका अनेकों पत्र पत्रिकाओं में छाया रहा था।
फर्जी मतदान भारत के चुनाव का एक अभिन्न अंग है। जब आपकी पहचान अंदर बैठे हुए राजनीतिक दलों के एजेन्टों ने ही करनी है तो भाई वो भी तो मनुष्य ही हैं। मतदान सूचियों में गडबडियाँ भी अब हर चुनाव का एक हिस्सा हैं। जब लोगबाग समझाने से भी नही समझते, पूरे के पूरे कुनबों के नाम उडा दिये जाते हैं, "जाओ डालो वोट, बहुत शौक चढा था, उखाडो जो उखाडना है"।
कुल मिलाकर राजनीति के शुद्धीकरण का रास्ता चुनाव सुधारों से शुरू होता है। जब तक चुनावों में जाति चलेगी, पैसा चलेगा, बाहुबल चलेगा और फर्जी मतदान चलेगा तब तक योग्य व्यक्ति राजनीति को एक गाली समझता रहेगा। जरूरत है ऐसे लोगों की जो देख सकें पार छोटे छोटे स्वार्थों के, जो पहचान सकें आने वाले समय की आहटों को, जो ले जा सकें भारत को अगली सदी में, जो ऊपर हों वोट बैंकों के गंदे खेल से। पर ऐसे लोग मिलेंगे कहां। शायद हमारे बीच ही, पर उनके लिये चुनाव जीतने और संसद तक जाने का मार्ग है चुनाव, और वो मार्ग हमें प्रशस्त करना होगा।
बस यहीं पर रुकता हूँ, लेख को ज्यादा बोझिल नही करता।
टैगः anugunj,
अनुगूँज
7 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: नितिन | Nitin Vyas [ Monday, June 12, 2006 7:03:00 PM]…
बहुत बढिया!!
प्रेषक: Jagdish Bhatia [ Monday, June 12, 2006 8:05:00 PM]…
रजनीति के सभी पहलुओं को अच्छे से निचोड़ कर पेश किया है।
प्रेषक: रवि रतलामी [ Monday, June 12, 2006 8:27:00 PM]…
....मोहर लगेगी हाथी पर
नही तो गोली चलेगी छाती पर
और लाश मिलेगी घाटी पर...
वे बहुजन समाज पार्टी की ओर से खड़े हुए थे. उस क्षेत्र के सामंत थे और बाहुबल से चुनाव जीतने का उनका पुराना सिलसिला था.
प्रेषक: अनूप शुक्ल [ Tuesday, June 13, 2006 3:18:00 AM]…
सत्य वचन। उत्तम विचार!
प्रेषक: Manish Kumar [ Tuesday, June 13, 2006 8:36:00 AM]…
बहुत खूब लिखा है आपने इस विषय पर !
प्रेषक: Anonymous [ Tuesday, June 13, 2006 10:34:00 AM]…
wah ji wah - apke kiya kehne
प्रेषक: ई-छाया [ Thursday, June 15, 2006 12:26:00 PM]…
आदरणीय नितिन व्यास जी, जगदीश भाटिया जी, अनूप शुक्ला जी, मनीष जी एवं शोएब भाई,
धन्यवाद।
आदरणीय रवि जी,
धन्यवाद, लेकिन मुझे अभी भी याद नही आता कि वे बी एस पी की तरफ से खडे हुए थे या निर्दलीय, पर चुनाव चिह्न जरूर हाथी था, लेकिन इस आपाधापी में मुझे उन महाशय का नाम याद आ गया "वीर विक्रम सिंह"।
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