देसी मनों की दहशतें
मेरे जैसे अमेरिका में रहने वाले "सीधे सादे" देसी दो चीजों से बहुत डरते हैं। एक तो है, ९११ और दूसरा है फायर अलार्म। अरे कुछ पूडी पराठे छोले शोल्ले बनाने शुरू किये कि फायर अलार्म बजना शुरू। जान की साँसत है ये। आजकल तो मेरा काम यह होता है कि जब भी धर्मपत्नी को कुछ मसालेदार या धुंएदार बनाना हुआ तो बस फायर अलार्म को कुछ समय के लिये टेम्परेरिली "निपटा" देता हूँ (बैटरी को निकालकर)। अगर कभी चूक गया और वह शैतान का नाना बज गया तो तुरंत खिडकी दरवाजे खोलकर धुंए मियाँ को बाहर का रास्ता दिखाना पडता है। यह फायर अलार्म बडी खतरनाक प्रकृति की बला है। ज्यादा देर बजते रह गया तो पूरी बिल्डिंग में बजने लगता है, और अगर थोडी देर में उसे चुप न कराया तो सीधे फायर ब्रिगेड या पुलिस को सतर्क कर देता है। एक बार पुलिस घर आई, तो है तो वो पुलिस ही ना (किसी भी देश की हो, भैया, थाना पुलिस से तो भगवान ही बचाये), एकाध बार चेतावनी देकर छोड देती है, पर कभी जुर्माना भी कर जाती है (जो कि जाहिर है डालर में ही होता है, तो बडा अखरता है)। यही कारण है कि ज्यादातर "सीधे सादे" लोग फायर अलार्म से बहुत घबराते हैं।
९११ की तो महिमा ही अपरंपार है। धोखे से भी फोन पर दब गया तो हजारों बार सफाई देते फिरो कि अरे बाबा, दब गया था धोखे से। ९११ अमेरिका में आपातकालीन सेवाओं के लिये दबाया जाने वाला नंबर है, जो एक आपातकालीन सेवाकेंद्र द्वारा पुलिस, फायर ब्रिगेड और/या एंबुलेंस को आपके पते पर पँहुचने के लिये तुरंत क्रियाशील कर देता है। विद्यालय में बहुत छोटी कक्षाओं में छोटे बच्चों को सिखाया जाता है, कि कोई मुसीबत आने पर तुरंत ९११ डायल करें। मुसीबत की परिधि या परिभाषा में बेचारे माँ बाप भी आते हैं। बेचारे माँ बाप डर डर कर जीते हैं, कहीं जोर से डांट दिया बच्चे को, और उसने डायल कर दिया यह शैतानी नंबर, तो पड जायेंगे लेने के देने भैया।
पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने न जाने कैसे ये कारनामा कर दिखाया। शायद गलती से ९११ दब गया। आपरेटर से बात होने पर भाई ने बडी कोशिश की समझाने की, कि गलती से दब गया है, और सब कुछ वाकई में ठीकठाक है। आपरेटर ने सहमत होते हुए फोन तो रख दिया लेकिन थोडी ही देर में बंदे के घर के दरवाजे पर पुलिस का एक छः फुटा लंबा तगडा जवान नमूदार हुआ, जिसने घर में बाकायदा झाँककर, और घर में मौजूद छोटी बच्ची से पूछकर तसल्ली की कि "वाकई" सब ठीक ही है, तब जाकर रुखसत हुआ। मित्रवर कह रहे थे, मेरी तो इच्छा हो रही है, क्विकफिक्स लगा कर ९ और १ वाली की को जाम कर दूँ टेलीफोन पर। ना कभी दबेगी ना मुसीबत आयेगी। पर क्या करूं दिल्ली (घर) का कोड ११ है।
वहीं एक दूसरे मित्र ने एक बार रात में सीने में भयानक दर्द होने पर हडबडा कर ९११ की शरण ली। हुआ कुछ यूँ कि जनाब डिस्कवरी चैनल पर कोई हृदय की शल्यचिकित्सा से संबंधित कार्यक्रम देख रहे थे, तो उन्हे दर्द उठा तो उन्हे लगा हो न हो ये हृदयाघात ही है। आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं से युक्त सायरन बजाती एंबुलेंस हाजिर हुई और जनाब को एक अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में थोडी देर तरह तरह के परीक्षण किये गये और बाद में जब ये पुख्ता हो गया कि ये और कुछ नही केवल "गैस" है, तभी जाकर दवाई दी गई। सुबह तक बंदे को छोड दिया गया। बेचारा असली बीमार तब हुआ, जब आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं का लंबा चौडा बिल उसे भेजा गया। अब वो तो इन्स्योरेंस था (अब अमेरिका में सभी का होता है,नही तो चिकित्सा सुविधाओं का बिल देखकर कितनों को रोज हृदयाघात हो जाय) तो जनाब २०० डालर देकर छूट गये। मर गई होगी बेचारी इन्स्योरेंस कंपनी। बहरहाल हम सभी ने उन्हे डिस्कवरी चैनल के चिकित्सा कार्यक्रमों से परहेज की सलाह दे डाली है। अब इन्स्योरेंस कंपनी को मालूम होता तो वो एक्सक्लूज़न या राइडर जोड देती उनके इन्स्योरेंस में, कि अगर आप डिस्कवरी चैनल देखकर बीमार "महसूस" करें और आपातकालीन सेवायें प्राप्त करें, तो कृपया इन्स्योरेंस कंपनी को माफी दें।।
पिछले दिनों न्यूयार्क में हुई एक घटना में, एक पाँच छः साला बच्चे की माँ को दिल का दौरा पडने पर उसका आकस्मिक देहांत हो गया, और बच्चे ने जैसा सिखाया गया था, ठीक वैसा ९११ घुमा दिया। झल्लाई हुई आपरेटर ने बार बार कहा, बच्चे खेल बंद करो, माँ से बात कराओ। बच्चा बेचारा सच बोलता रहा, मां मर चुकी है। आपरेटर ने सोचा ये मजाक कर रहा है। पाँच छः घष्टे बाद पिता के आने पर ही कुछ हो सका। लेकिन पिता ने ऊपर शिकायत कर दी, और उस आपरेटर पर विभागीय कार्रवाई हुई (कम से कम समाचार में तो ऐसा ही बताया गया)।
ऊपर के दो ९११ की घटनाओं में अजीब असमानता है। जहां एक ओर सब कुछ ठीक होने पर भी पुलिस घर भेज दी गई, वहीं दूसरी घटना में जरूरत होने पर भी कुछ नही किया गया। इसे कहते हैं "ह्यूमन एलीमेण्ट" यहाँ आपरेटर का निर्णय काम आता है। क्या करें वो भी तो इन्सान हैं। हमारे फोन के बिल से एक दो डालर की राशि अनिवार्य तौर पर इस ९११ की (अ)सुविधा के लिये कटती है। देसी मन है, और बचपन की देसी यादें अभी तक हैं जब वक्त जरूरत होने पर हम केवल "गोहार" लगाते थे और सारा मोहल्ला या गाँव जमा हो जाता था मदद के लिये। चाहे कोई बीमार हो या आग लगी हो या चोर चकार घुस आया हो। भारत में अभी भी यह पद्धति जीवित है, लेकिन आत्मकेंद्रित अमरीकी समाज में यह 911 सुविधा शायद जरूरी है और काम की भी है।
आमीन।
९११ की तो महिमा ही अपरंपार है। धोखे से भी फोन पर दब गया तो हजारों बार सफाई देते फिरो कि अरे बाबा, दब गया था धोखे से। ९११ अमेरिका में आपातकालीन सेवाओं के लिये दबाया जाने वाला नंबर है, जो एक आपातकालीन सेवाकेंद्र द्वारा पुलिस, फायर ब्रिगेड और/या एंबुलेंस को आपके पते पर पँहुचने के लिये तुरंत क्रियाशील कर देता है। विद्यालय में बहुत छोटी कक्षाओं में छोटे बच्चों को सिखाया जाता है, कि कोई मुसीबत आने पर तुरंत ९११ डायल करें। मुसीबत की परिधि या परिभाषा में बेचारे माँ बाप भी आते हैं। बेचारे माँ बाप डर डर कर जीते हैं, कहीं जोर से डांट दिया बच्चे को, और उसने डायल कर दिया यह शैतानी नंबर, तो पड जायेंगे लेने के देने भैया।
पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने न जाने कैसे ये कारनामा कर दिखाया। शायद गलती से ९११ दब गया। आपरेटर से बात होने पर भाई ने बडी कोशिश की समझाने की, कि गलती से दब गया है, और सब कुछ वाकई में ठीकठाक है। आपरेटर ने सहमत होते हुए फोन तो रख दिया लेकिन थोडी ही देर में बंदे के घर के दरवाजे पर पुलिस का एक छः फुटा लंबा तगडा जवान नमूदार हुआ, जिसने घर में बाकायदा झाँककर, और घर में मौजूद छोटी बच्ची से पूछकर तसल्ली की कि "वाकई" सब ठीक ही है, तब जाकर रुखसत हुआ। मित्रवर कह रहे थे, मेरी तो इच्छा हो रही है, क्विकफिक्स लगा कर ९ और १ वाली की को जाम कर दूँ टेलीफोन पर। ना कभी दबेगी ना मुसीबत आयेगी। पर क्या करूं दिल्ली (घर) का कोड ११ है।
वहीं एक दूसरे मित्र ने एक बार रात में सीने में भयानक दर्द होने पर हडबडा कर ९११ की शरण ली। हुआ कुछ यूँ कि जनाब डिस्कवरी चैनल पर कोई हृदय की शल्यचिकित्सा से संबंधित कार्यक्रम देख रहे थे, तो उन्हे दर्द उठा तो उन्हे लगा हो न हो ये हृदयाघात ही है। आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं से युक्त सायरन बजाती एंबुलेंस हाजिर हुई और जनाब को एक अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में थोडी देर तरह तरह के परीक्षण किये गये और बाद में जब ये पुख्ता हो गया कि ये और कुछ नही केवल "गैस" है, तभी जाकर दवाई दी गई। सुबह तक बंदे को छोड दिया गया। बेचारा असली बीमार तब हुआ, जब आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं का लंबा चौडा बिल उसे भेजा गया। अब वो तो इन्स्योरेंस था (अब अमेरिका में सभी का होता है,नही तो चिकित्सा सुविधाओं का बिल देखकर कितनों को रोज हृदयाघात हो जाय) तो जनाब २०० डालर देकर छूट गये। मर गई होगी बेचारी इन्स्योरेंस कंपनी। बहरहाल हम सभी ने उन्हे डिस्कवरी चैनल के चिकित्सा कार्यक्रमों से परहेज की सलाह दे डाली है। अब इन्स्योरेंस कंपनी को मालूम होता तो वो एक्सक्लूज़न या राइडर जोड देती उनके इन्स्योरेंस में, कि अगर आप डिस्कवरी चैनल देखकर बीमार "महसूस" करें और आपातकालीन सेवायें प्राप्त करें, तो कृपया इन्स्योरेंस कंपनी को माफी दें।।
पिछले दिनों न्यूयार्क में हुई एक घटना में, एक पाँच छः साला बच्चे की माँ को दिल का दौरा पडने पर उसका आकस्मिक देहांत हो गया, और बच्चे ने जैसा सिखाया गया था, ठीक वैसा ९११ घुमा दिया। झल्लाई हुई आपरेटर ने बार बार कहा, बच्चे खेल बंद करो, माँ से बात कराओ। बच्चा बेचारा सच बोलता रहा, मां मर चुकी है। आपरेटर ने सोचा ये मजाक कर रहा है। पाँच छः घष्टे बाद पिता के आने पर ही कुछ हो सका। लेकिन पिता ने ऊपर शिकायत कर दी, और उस आपरेटर पर विभागीय कार्रवाई हुई (कम से कम समाचार में तो ऐसा ही बताया गया)।
ऊपर के दो ९११ की घटनाओं में अजीब असमानता है। जहां एक ओर सब कुछ ठीक होने पर भी पुलिस घर भेज दी गई, वहीं दूसरी घटना में जरूरत होने पर भी कुछ नही किया गया। इसे कहते हैं "ह्यूमन एलीमेण्ट" यहाँ आपरेटर का निर्णय काम आता है। क्या करें वो भी तो इन्सान हैं। हमारे फोन के बिल से एक दो डालर की राशि अनिवार्य तौर पर इस ९११ की (अ)सुविधा के लिये कटती है। देसी मन है, और बचपन की देसी यादें अभी तक हैं जब वक्त जरूरत होने पर हम केवल "गोहार" लगाते थे और सारा मोहल्ला या गाँव जमा हो जाता था मदद के लिये। चाहे कोई बीमार हो या आग लगी हो या चोर चकार घुस आया हो। भारत में अभी भी यह पद्धति जीवित है, लेकिन आत्मकेंद्रित अमरीकी समाज में यह 911 सुविधा शायद जरूरी है और काम की भी है।
आमीन।
12 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: Anonymous [ Wednesday, July 05, 2006 4:00:00 PM]…
Wonderfully hilarious! It is great to see a Hindi blog from a Desi in the US. Keep up the good work!
प्रेषक: हिंदी ब्लॉगर/Hindi Blogger [ Wednesday, July 05, 2006 4:09:00 PM]…
बहुत ही रोचक वृतांत लगा. धन्यवाद.
प्रेषक: अनूप शुक्ल [ Wednesday, July 05, 2006 7:41:00 PM]…
बढ़िया। इसी तरह की जानकारी देते रहें।हम भी जानते रहें मुफ्त में अमेरिका के रहन-सहन के बारे में-सुख-सुविधायें,परेशानियाँ।
प्रेषक: Jagdish Bhatia [ Wednesday, July 05, 2006 8:28:00 PM]…
बहुत अच्छा लिखा है छाया जी। जो हमारे समाज में अपनापन मिलेगा वो इन मशीनी समाजों में कहां?
प्रेषक: Pratyaksha [ Wednesday, July 05, 2006 9:23:00 PM]…
दिलचस्प था .
प्रेषक: विजय वडनेरे [ Thursday, July 06, 2006 3:54:00 AM]…
एक बात तो बताओ भीया...हमारे याँ के टेलीफ़ून में तो बस्स ० मीण्डी (शुन्य) से लेकर ९ (नौ) तक की ही कुँजी होती है, ये ९११ (नौ ग्यारह) कैसे लगाते हो आप लोग?
आप के वाँ (अमरीका में) कोई अलग टेलीफ़ून होता है क्या?
:))
प्रेषक: Pratik Pandey [ Thursday, July 06, 2006 5:03:00 AM]…
बहुत मज़ेदार वृत्तांत लिखा है आपने। शीर्षक से तो लग रहा था कि कोई गम्भीर लेख होगा अमरीका में भारतीयों की हालत पर, जिसे पढ़कर चक्कर आने लगेंगे। :-)
प्रेषक: Anonymous [ Thursday, July 06, 2006 6:24:00 AM]…
बेहद रोचक, मज़ेदार और विदेशी वातावरण में नई परेशानीयों से जूझते लोगों का सुन्दर चित्रण ।
प्रेषक: Shuaib [ Thursday, July 06, 2006 10:20:00 AM]…
ज़बरदस्त लेख है, हेडलाईन पढ कर मैं तो डर ही गया था ;)
प्रेषक: Manish Kumar [ Friday, July 07, 2006 7:30:00 AM]…
वाह वाह ! मजा आ गया इस प्रविष्टि को पढ़ कर !
प्रेषक: ई-छाया [ Friday, July 07, 2006 11:46:00 AM]…
विकास जी, हिंदी ब्लोगर जी, अनूप जी, जगदीश जी, प्रत्यक्षा जी, विजय जी, प्रतीक जी, रत्ना जी, शोएब भाई और मनीष जी,
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद।
विनय जी को भी धन्यवाद,
इसे देसीपंडित में डालने के लिये।
प्रेषक: ori0nis [ Tuesday, July 11, 2006 9:38:00 AM]…
बहुत बढ़िया.. मजा आ गया !
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