परिपेक्ष्य सही रखें मित्रों
हमेशा होता आया है और एक बार फिर बहसों ने भद्दा रूप लिया और जैसा कि बहुत अनपेक्षित न था कुछ महानुभाव भावनायें लेकर आये बहस मुसाहिबे के बीच। बहरहाल दुःख ये देखकर हुआ कि बहुत से मित्र चीजों को सही परिपेक्ष्य में नही देख पाये। लोगों ने बडी आसानी से हमें (अमेरिकन देसियों को) लगभग देशद्रोही करार दिया। जैसा मैने पहले भी कहा था कि बात एक स्टुपिड से सर्वे से शुरू हुई और जाने कहां कहां तक चली गई। फुरसतिया जी तथा हिंदी ब्लोगर महोदय ने कुछ प्रश्न उछाले और मैने तथा अन्य साथी चिठ्ठाकारों ने पूरे देशभक्त होने के बावजूद ईमानदारी से जवाब देने की कोशिश की। मुझे पूरा पूर्वानुमान था कि सच्चाई बहुत कडवी है, लोगों को गुमान में जीने की आदत है, कुछ को बुरा लगेगा। कहीं मन में आशा की किरण थी कि सारे हिदी चिठ्ठाकार समझदार हैं, पढे लिखे हैं, बुद्धिजीवी हैं, शायद बात को समझेंगे, सही दिशा में सोचेंगे, लेकिन ............।
खैर, जो भी हुआ, अगर आप लोगों को बुरा लगा तो मुझे भी आपका बुरा मानना कुछ ज्यादा रास नही आया।
मुझे पढकर व्यथा हुई, किस तरह लोगों ने हमारे ऊपर हमारे ही देश की छवि के बारे में "भारत की छवि भिखमंगों, असभ्यों, बलात्कारियों के समाज के रूप में अंकित करनी चाही" का आरोप लगा दिया गया। मुझे नही मालूम ये निष्कर्ष इन भाइयों ने कैसे निकाला, पर मेरे लिये यह अच्छा अनुभव नही रहा।
मैने पहले ही कहा था कि "कृपया ये बिलकुल न समझा जाये कि ये पूरे हिंदी चिठ्ठाजगत के विचार हैं या सारे अमेरिकी चिठ्ठाकारों के विचार हैं या सारे प्रवासी भारतीयों के विचार हैं। एक बेहद सीमित बुद्धि के नाचीज़ इन्सान के विचार माने जायें, जिसने अमेरिका में थोडा वक्त ही बिताया है, और जो अपने सीमित ज्ञान के आधार पर इस विषय पर कुछ लिखने का दुस्साहस कर रहा है। मैने मूल विषय पर तो कुछ ना लिखने का फैसला किया है, क्योंकि इतना दुस्साहस मै नही कर पाया, पर मेरे सीमित निजी अनुभव के आधार पर मै फुरसतिया जी के लेख पर श्रीमान् हिंदी ब्लोगर महोदय की टिप्पणी में उठाये प्रश्नों का उत्तर देना चाहूंगा (गलतियों के लिये पहले ही क्षमायाचना)।"
और बाद में भी कि "मेरे विचारों से किसी को ठेस पंहुचे तो क्षमा करियेगा, ये सब लिखते हुए मुझे खुद भी शर्म आती है, पर यह एक कडवा सच है कि हम अमेरिका से बहुत पीछे हैं, और हमें उसकी बराबरी करने के लिये बहुत काम करना पडेगा।"
एक घटना याद आती है, कई साल पहले भारत में मेरे सामने एक सडक दुर्घटना हुई। एक सायकिलसवार एक कार से टकराया, उसे थोडी चोट आई, और मैने देखा कि पूरी गलती सायकलसवार की थी। भीड आई, बिना कुछ सोचे समझे लोगों ने कार वाले को दुर्घटना का जिम्मेदार माना, बेचारा धकियाया, पीटा गया, आखिर पुलिस आई। मैने जो देखा था बताया और वो छोड दिया गया। मेरी मोटरबाइक कार के बगल में ही थी और मैने बखूबी देखा था कि गलती उस कार वाले की बिल्कुल नही थी। आज भी वो घटना मुझे कई बार व्यथित करती है। उसके पिटने पर मै कुछ भी नही कर सका, भले ही मैने उसे पुलिस और आगे बचा लिया, ये मुझे कचोटता है, पर भीड .......... वो सुनती है क्या किसी की। भीडतंत्र है।
अंत में कुछ सवाल आपसे
क्या किसी भी स्वस्थ बहस में भावनायें बीच में लाना उचित है?
क्या सामने वाले के रूख से सहमत न होने पर भी, कम से कम उसकी बात सुनी नही जा सकती?
मेरे विचार से मेरे साथी अमरीकी चिठ्ठाकार इस बात से सहमत होंगे कि हमारा इरादा किसी की भावनायें आहत करने का न था।
मेरे लिये ये बहस यहीं समाप्त हो चुकी है, किसी को बुरा लगे, अच्छा लगे, भावनायें आहत हों, या कुछ और, मुझे जो सच लगा मैने कहा, और जो लगेगा आगे भी वही कहूंगा। क्या चिठ्ठाकारी इसी का नाम नही?
खैर, जो भी हुआ, अगर आप लोगों को बुरा लगा तो मुझे भी आपका बुरा मानना कुछ ज्यादा रास नही आया।
मुझे पढकर व्यथा हुई, किस तरह लोगों ने हमारे ऊपर हमारे ही देश की छवि के बारे में "भारत की छवि भिखमंगों, असभ्यों, बलात्कारियों के समाज के रूप में अंकित करनी चाही" का आरोप लगा दिया गया। मुझे नही मालूम ये निष्कर्ष इन भाइयों ने कैसे निकाला, पर मेरे लिये यह अच्छा अनुभव नही रहा।
मैने पहले ही कहा था कि "कृपया ये बिलकुल न समझा जाये कि ये पूरे हिंदी चिठ्ठाजगत के विचार हैं या सारे अमेरिकी चिठ्ठाकारों के विचार हैं या सारे प्रवासी भारतीयों के विचार हैं। एक बेहद सीमित बुद्धि के नाचीज़ इन्सान के विचार माने जायें, जिसने अमेरिका में थोडा वक्त ही बिताया है, और जो अपने सीमित ज्ञान के आधार पर इस विषय पर कुछ लिखने का दुस्साहस कर रहा है। मैने मूल विषय पर तो कुछ ना लिखने का फैसला किया है, क्योंकि इतना दुस्साहस मै नही कर पाया, पर मेरे सीमित निजी अनुभव के आधार पर मै फुरसतिया जी के लेख पर श्रीमान् हिंदी ब्लोगर महोदय की टिप्पणी में उठाये प्रश्नों का उत्तर देना चाहूंगा (गलतियों के लिये पहले ही क्षमायाचना)।"
और बाद में भी कि "मेरे विचारों से किसी को ठेस पंहुचे तो क्षमा करियेगा, ये सब लिखते हुए मुझे खुद भी शर्म आती है, पर यह एक कडवा सच है कि हम अमेरिका से बहुत पीछे हैं, और हमें उसकी बराबरी करने के लिये बहुत काम करना पडेगा।"
एक घटना याद आती है, कई साल पहले भारत में मेरे सामने एक सडक दुर्घटना हुई। एक सायकिलसवार एक कार से टकराया, उसे थोडी चोट आई, और मैने देखा कि पूरी गलती सायकलसवार की थी। भीड आई, बिना कुछ सोचे समझे लोगों ने कार वाले को दुर्घटना का जिम्मेदार माना, बेचारा धकियाया, पीटा गया, आखिर पुलिस आई। मैने जो देखा था बताया और वो छोड दिया गया। मेरी मोटरबाइक कार के बगल में ही थी और मैने बखूबी देखा था कि गलती उस कार वाले की बिल्कुल नही थी। आज भी वो घटना मुझे कई बार व्यथित करती है। उसके पिटने पर मै कुछ भी नही कर सका, भले ही मैने उसे पुलिस और आगे बचा लिया, ये मुझे कचोटता है, पर भीड .......... वो सुनती है क्या किसी की। भीडतंत्र है।
अंत में कुछ सवाल आपसे
क्या किसी भी स्वस्थ बहस में भावनायें बीच में लाना उचित है?
क्या सामने वाले के रूख से सहमत न होने पर भी, कम से कम उसकी बात सुनी नही जा सकती?
मेरे विचार से मेरे साथी अमरीकी चिठ्ठाकार इस बात से सहमत होंगे कि हमारा इरादा किसी की भावनायें आहत करने का न था।
मेरे लिये ये बहस यहीं समाप्त हो चुकी है, किसी को बुरा लगे, अच्छा लगे, भावनायें आहत हों, या कुछ और, मुझे जो सच लगा मैने कहा, और जो लगेगा आगे भी वही कहूंगा। क्या चिठ्ठाकारी इसी का नाम नही?
5 प्रतिक्रियाएँ:
प्रेषक: अनूप शुक्ल [ Thursday, June 29, 2006 6:42:00 PM]…
लगभग सभी लेख पठनीय रहे। अपने साथियों को देशद्रोही मानने जैसी कोई बात ही नहीं है। बहस मुबाहिसे में यह सब होता है यार! हर एक का अपना अंदाज होता है अपनी बात रखने का। अगर सब कुछ नाप तौल के लिखा कहा-सुना जाय तो कुछ लिखा ही न जा सकेगा। सोचते ही रह जायेंगे। मेरे ख्याल में इस मुद्दे पर सबसे संयत राय रमन,अतुल तथा आपकी ही रही। किसी की बात को दिल पर लिया करें। दिल के पास अपना काम है,खून दौड़ाने का। असल में यह भी देखा जाना चाहिये कि हम लोग आम नागरिक हैं कोई समाज वैज्ञानिक नहीं कि किसी समाज को आर-पार देख सकें तथा निश्चित तौर पर कुछ सटीक कह सकें। अमेरिका विश्व शक्ति है। उसके खिलाई आक्रोश
सहज भावना है क्योंकि तमाम अच्छाइयों के बावजूद संसार में गुंडागर्दी फैलाने में उसका योगदान
है। बहरहाल,फिर से बधाई लेख लिखने के लिये। लेकिन ये बुरा मानने का डर मन से निकाल
कर लिखा करें। मस्त ,बिंदास होकर।
प्रेषक: Anonymous [ Thursday, June 29, 2006 9:45:00 PM]…
भाई मेरे किसी कि टिप्पणी को साभी चिट्ठाकारो का मत कैसे माना जा सकता हैं. मैं आपसे सहमत हुं कि हम अमेरिका से बहुत पीछे हैं.
दरअसल काने को काना नहीं कहना चाहिए, उसे कहना चाहिए कि आप तो कमाल हैं हम जितना दो आँखो से देखते हैं उतना तो आप एक ही आँख सें देख लेते हैं.
दरअसल हमने शिष्टाचार को प्रतिकात्मक बना लिया हैं, इसी पर मैने लिखा तो इसे अमेरिका बनाम भारत का झगड़ा समझ कर टिप्पणीयाँ भेजी गई हैं, जबकि मेरा उद्देश्य यह नहीं था. 'थेंक्यु', 'सॉरी' बोलना तब तक शिष्टाचार का ढ़ोंग हैं जब तक आप अपने नोकर से तमीज से पेश नहीं आते.
प्रेषक: Sunil Deepak [ Friday, June 30, 2006 5:31:00 AM]…
मैं अनूप की बात से सहमत हूँ.
हमें तो अपनी बात अपने तरीके से कहनी चाहिए, शिक्षिता और सभ्यता से. पर अगर हम अपनी सेसरशिप करने लगें कि कोई क्या सोचेगा या बुरा तो नहीं मानेगा, तो बात कुछ ठीक नहीं लगती.
प्रेषक: Manish Kumar [ Friday, June 30, 2006 7:10:00 AM]…
अमेरिका में रहने वाले कई भारतियों के लेख पढ़े। साथ ही साथ उनके जवाब भी पढ़े। आप लोग एक दूसरे पर भावनायें लाने का आक्षेप लगाते रहे। अब मुसीबत ये है कि किसी का तर्क किसी को भावनाओं में बहना लगता है। पर इससे दुखी होने की जरूरत नहीं है छाया। जैसा अनूप जी ने कहा कि इस ब्लॉग जगत पर सारे सामाजिक विज्ञानी तो नहीं हैं कि सबकी राय नपी तुली और सटीक हो। बहुधा बुद्धिजीवी होने का दम भरने वाले भी पुर्वाग्रह ग्रस्त होते हैं। इसलिये बहुत दिल पे ये सब नहीं लेना है। कम से कम मुझे इस चर्चा से बहुत नयी बातें जानने का मौका मिला जिसका अनूप जी ने इशारा किया था ।
प्रेषक: ई-छाया [ Friday, June 30, 2006 11:40:00 AM]…
अच्छा भाइयों, आप सब का हृदय से धन्यवाद।
नही लूंगा जी बिलकुल नही लूंगा दिल पर।
जल्दी ही नई पोस्ट के साथ हाजिर होता हूँ।
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