Friday, July 21, 2006

ग्रीष्मावकाश - III

ग्रीष्मावकाश की पिछली दो किश्तों में मैने लिखा ग्रीष्मावकाश के मेरे इंतजार और दादा दादी के घर पर बिताई गई कुछ छुट्टियों के बारे में, इस बार पेश है मेरे नाना नानी के घर पर मेरे बचपन के अवकाश के क्षणों की बानगियां

मेरे नाना नानी का घर एक ऐसे देहात में था, जहाँ शायद आज भी बिजली नही है (कम से कम चार साल पहले तक तो नही थी, जब मै पिछली बार वहाँ गया था)। वहां पँहुचने के लिये हमें हर तरह के साधनों का इस्तेमाल करना पडता है। पहले रेल, फिर बस, फिर जीप (जिसमें इतनी सवारियां बिठाई जातीं हैं, कि गिनीज़ बुक वाले कभी भी उसे देख कीर्तिमान दर्ज कर सकते हैं), फिर घोडागाडी (जिसे वहां की स्थानीय भाषा में खडखडा कहते हैं, और जिसमें जुते हुए घोडे की पीठ से हमेशा खून रिस रहा होता है, वैसे खडखडे में एक बार बैठ कर ही आप जान सकते हैं कि उसे खडखडा क्यों कहते है?), फिर बैलगाडी (जो बेहद धीरे चलती है), बैलगाडी तक आते आते हम बेहद थके होते फिर भी क्या मजाल कि सो जायें, बराबर आस पास की उडती धूल, कौतूहल से हमें निहारती फटे कपडे पहने ग्रामीणों की निगाहों को और उनके मिट्टी के कच्चे घरों को ताका करते।

डाकुओं, भूतों, जातीय संघर्षों, वैमनस्य की दुनिया से परिचय हमारा नाना नानी के घर में होता। रास्ते में पडती एक बिना बांध की नदी, जो हर साल अपने रास्ते बदल लेती। जिसे पार करने के लिये बैलगाडी नदी के बीच में घुसकर निकालती, क्योंकि कोई पुल नही था, लेकिन ग्रीष्म में नदी सूखकर एक छोटे नाले का रूप ले लेती थी, इसलिये पार करना कोई खास परेशानी की बात नही होती।

नाना जी पुराने समय के बहुत बडे जमींदार थे इसलिये नाना नानी के घर दूर दूर तक फैले खेत थे, न जाने कितनी गायें, भैंसे, नौकर चाकर, ट्रैक्टर, हल, बगीचे (आम के पेड) आदि आदि। दुर्गम इलाके में होने के कारण भाला बरछी जैसे पारंपरिक हथियारों के साथ कुछ लायसेंसी हथियार भी थे (पहली बार बंदूक चलते भी वहीं देखी थी)। सुबह दिन निकलते ही जीवन शुरू हो जाता और सांझ ढलते ही सिमट जाता। बिजली न होने से लालटेन या ढिबरी की रोशनी से काम चलाया जाता, पर रातें जल्दी होतीं। झकाझक सफेद चादरों के बिस्तर में छत पर बहुधा नानी हमें कोई कहानी सुनातीं, ज्यादातर उस दुःखी राजकुमारी की, जिसे बचाने राजकुमार कहानी के अंत में आता और तब तक हमारी पलकें नींद से भारी हो चुकी होती।

कभी रात में कहीं दूर रोशनी चमकती दिखती और लोग सावधान होने लगते, डाकू तो नही आ गये।
मामा के पास कुछ घोडे भी थे। मुझे बेहद कौतूहल होता जब मै उन्हे घोडे पर बैठ पल में दूर पगडंडी पर ओझल हो जाते देखता।

घर का बना गुड, मक्खन, सिरका, दही खाते, घर की गायों का दूध पीते, अपने ही बगीचों की सब्जियां खाते, हैंडपंप या ट्यूबवेल में नहाते और अपने ही वृक्षों के आम खाते वो सुनहरे दिन कब बीत जाते, पता ही नही चलता।

वापसी के लिये पुनः होती एक रेल यात्रा। और हम वापस आ जाते अपनी दुनिया में। स्कूल, होमवर्क, कक्षा, प्रतिस्पर्धा और पढाई की दुनिया में। लेकिन वापस आते समय हमारे मन बुझे होते और फिर शुरू होता इंतजार अगले साल का जब हमारा अंतिम पेपर हो जायेगा।

साल दर साल यह इंतजार चलता रहा, जब तक कि मै विद्यालय छोडकर महाविद्यालय न पंहुच गया, जहाँ सेमेस्टर सिस्टम के कारण ग्रीष्मावकाश की पद्धति ही नही थी।

कभी सोचता हूँ अगर अभी भी किसी प्रकार से मुझे एक महीने का अवकाश मिले, और दूर कहीं ऐसी दुनिया में जाऊँ, जहाँ मोबाइल, पेजर, इंटरनेट, लैपटाप, कम्प्यूटर, ई-मेल, मीटिंग्स, प्रोजेक्ट जैसे शब्द न सुनने पडें। जहां काम पर न जाना हो।

ग्रीष्मावकाश - II पर की गई सुनील जी की टिप्पणी से मै सहमत हूँ, पर फिर भी कभी कभी मुझे समझ नही आता कि तब या अब ज्यादा दुःख मुझे ग्रीष्मावकाश न होने का है, या उस बचपन के जाने का, जो कभी लौटकर नही आ सकता। वो किस्सो कहानियों खेलों में डूबे हुए दिन, वो दिन जब हम सारे जहाँ की चिन्ताओं से मुक्त थे, सारी जिम्मेदारियों से परे, अगर लौट भी आयें तो क्या हम वैसे ही निश्छल, निश्चिंत होकर उसका आनंद उठा पायेंगे।

फिर याद आती है जगजीत व चित्रा सिंह की गाई गजल

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी

4 प्रतिक्रियाएँ:

  • प्रेषक: Blogger Sunil Deepak [ Friday, July 21, 2006 9:23:00 PM]…

    घोड़े की पीठ से रिसते खून का पढ़ा तो झुरझुरी आ गयी. सोचो तो लगता है कि घोड़ों की ही नहीं, गरीबों के भी जीवन भूख, प्यास और जीवन की कटुरता से भरे होते होंगे पर बचपन की सुरमय यादों में कटुरता छुपी ही रह जाती है.

     
  • प्रेषक: Blogger अनूप शुक्ल [ Saturday, July 22, 2006 4:20:00 AM]…

    बचपन की कहानी जानकर अच्छा लगा।

     
  • प्रेषक: Blogger Manish Kumar [ Wednesday, July 26, 2006 7:46:00 PM]…

    अमीन सयानी की बिनाका गीतमाला और बी बी सी का हिन्दी प्रसारण तो खुब सुना है मैंने भी! आप की बातें पढ़कर वो यादें ताजा हो गयीं ।

     
  • प्रेषक: Blogger ई-छाया [ Thursday, July 27, 2006 12:55:00 PM]…

    आप सभी का पढने व टिप्पणी के लिये धन्यवादॅ

     

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