Thursday, July 05, 2007

वापस आया अलविदा कहने

मित्रों, मै वापस तो आया हूं, लेकिन केवल अलविदा कहने। जिंदगी में भागते भागते यह अहसास ही नही हुआ कि आपको अंतिम संदेश भेजे लगभग एक साल हो गया। मै मेरे बहुत से मित्रों का शुक्रगुजार हूं कि उन्होने मुझे भुलाया नही। खासतौर पर मनीष भाई, रत्ना जी, संजय बेगाणी, सेहर (Dawn) और जगदीश भाटिया साहेबान का, जिन्होने अपने लेखों में या पत्र लिखकर मुझे याद रखा।

इस अनुपस्थिति के वक्त में मै बीच बीच में कभी नारद या चिठ्ठाचर्चा पर वापस आता रहा और जब भी आया, बहुत से नये चिठ्ठाकारों को पाया, सब कुछ बदला बदला लगा, रंग रूप, माहौल, कलेवर, लोग, विषय, चर्चायें और अनायास ही नैपथ्य में कहीं यह गीत गुंजायमान हो उठा


"आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे --------- इस बदलती हुई दुनिया का खुदा कोई नही, सस्ते दामों में यहां रोज खुदा बिकते हैं------ मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगे---"
(खासतौर पर आइना वाले जगदीश भइया की भावुक ई-मेल के बाद यह गीत बहुत याद आया, माफ करियेगा जगदीश भइया, मै उत्तर न दे सका)। तो मेरे अपनों, मै जीवित हूं, सकुशल हूं और लगा हूं दौड में जिंदगी की जो शायद सांसें रुक जाने के बाद ही थमेगी।

फिर से यह लेख लिखने के असली मुद्दे पर वापस आता हूं, "वापस आया हूं लेकिन केवल अलविदा कहने" और आपसे यह अनुरोध करने कि मेरे लिये अब चिठ्ठाकारी आगे संभव नही है। बहुत दिनों तक ऊहापोह में रहने के बाद और अपने आप से अनगिनत झूठे वादे करने के बाद, वापस लौटने के हरसंभव असफल प्रयास करने के बाद और यह जानने के बाद कि कुछ बेहद आशावादी लोग (जिन्हे मैं तहेदिल से सलाम करता हूं) अभी भी यह आशा करते हैं कि ---- शायद--- शायद एक दिन मै वापस आऊंगा, मुझे उन उम्मीदों को तोडना जरूरी लगा नही तो दिल पर जीवन भर के लिये एक बोझ रह जाता। मेरे मित्रों मुझे माफ करना, मै शायद आपमें से बहुतों की उम्मीदों पर खरा नही उतर सका, जिंदगी की व्यस्ततायें मुझसे जीत गईं और मै हार गया और हां हो सके तो कृपया मुझे भूल जाइयेगा।

मुझे बहुत खुशी है कि हिंदी का अभियान दिनोंदिन बुलंद होता जा रहा है। वह दिन दूर नही जब १२५ करोड की आबादी के ७० करोड हिंदी-भाषियों में से कम से कम ७ हजार तो हिंदी चिठ्ठाकार होंगे (हर एक लाख में एक चिठ्ठाकार) और उस दिन का मुझे इंतजार होगा, और मुझे यकीन है आपमें से बहुतों को होगा।

जाते जाते नारद या अन्य किसी भी हिंदी एग्रीगेटर के कर्ता धर्ता बंधुओं से करबद्ध अनुरोध रहेगा कि यदि आसानी से संभव हो तो इस चिठ्ठे को अपने एग्रीगेटर से निकाल दें, क्योंकि इस पर अब कोई भी लेख नही लिखा जायेगा। एक बात और, पिछले वर्ष बहुत से लेखों में मैने लिखा था, मै पूरी तरह से भारत वापस जाना चाहता हूं, तो मै अपनी उस बात पर कायम हूं और यदि भगवान ने चाहा तो यह जल्द ही होगा।

मेरे पुराने लेख यहीं यथावत् छोडे जा रहा हूं, शायद इनमें से कुछ किसी दिन आपमें से किसी के काम आयेगा। कृपया भावुक संदेश देकर मुझे वापस बुलाने की कोशिशें न करियेगा। यह मेरा अंतिम लेख, और आपसे अंतिम संवाद है। आप सभी को आने वाले जीवन के लिये मंगलकामनायें और अलविदा। जय हिंद, जय भारत और जय हिंदी। अलविदा खुदा हाफिज़।