Tuesday, May 30, 2006

कुछ पंक्तियॉ

मालूम नही कविता है या भडौवा है या कुछ और, मेरे लिये मात्र विचारों का प्रवाह है।
नोश फरमाइयेगा -

बार बार बहका जब जब सोचा लगाम को कस लें।
याद आये तब तब कुछ बीते भूले बिसरे मसले।।
जो हैं तटस्थ या निरपेक्ष या चुप ये आज समझ लें।
लेंगी हिसाब उनसे उनकी आने वालीं नसलें।।

Thursday, May 18, 2006

डालरनामाः महिमा हरे रंग की ( पुनः)

दोस्तों एक लेख लिखा था डालरनामाः महिमा हरे रंग की, जो लगता है नारद जी के पिछले पन्नों में दर्ज हुआ। चिठ्ठाकार बंधुओं (एवं अन्य पाठकों) से अनुरोध करूंगा कि अगर दृष्टिगोचर न हुआ हो तो एक नजर डालेंगे।
जय हिंद

Tuesday, May 16, 2006

डालरनामा - महिमा हरे रंग की

डालरनामा - महिमा हरे रंग की
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जिन मित्रों ने मेरा उन्नीसवीं अनुगूंज को समर्पित इसके पहले की रचना (लेख) नही पढी, उनसे अनुरोध है कि वो इसे यहाँ जरूर पढें।

हरा रंग, हरा रंग है पर्यावरणवादियों का। बेशक दुनिया में हरा रंग न हो तो कुछ भी न हो। पेड पौधे ही तो हमारी जान हैं। पूरी दुनिया अब शाकाहार की तरफ मुड रही है और हरितलवक अब हर स्वस्थ भोजन का हिस्सा है। तेजी से कम होते वन और ग्लोबल वार्मिंग (विश्व के बढते तापक्रम) पर पूरे विश्व के पर्यावरणवादी चिंतित हैं। पर मेरा लेख उस हरे रंग के बारे में नही है।

हरा ही रंग है हमारे पडोसी देश पाकिस्तान के झंडे का। मुझे नही मालूम हरा रंग इस्लाम से भी जुडा हुआ है या नही; पर मैने बहुत से मस्जिद और दरगाहों को हरे रंग से पुते हुए देखा है। इस बावत एक रोचक वाक्या याद आता है। कई साल पहले मै जिस कम्पनी में था, हमने एक तकनीकी जानकारी बॉटने के लिये एक वेबसाइट बनाई थी और वो किसी के लिये भी खुली हुई थी। कोई भी व्यक्ति उस वेबसाइट पर अपना रजिस्ट्रेशन कर सकता था और चर्चा में भाग ले सकता था। ट्रैफिक मोनीटरिंग से पहले कुछ दिनों में एक रोचक तथ्य सामने आया कि ज्यादातर लोग जिन्होने साइट पर रजिस्ट्रेशन किया वो पाकिस्तान से थे। भारतीय उस साइट तक आकर भी बिदक जाते थे कि ये कोई पाकिस्तानी वेबसाइट है और पाकिस्तानी सहज ही खिंचे चले आते थे, क्यों? क्योंकि उस वेबसाइट का बैकग्राउण्ड कलर हरा था। पर मेरा लेख उस हरे रंग के बारे में भी नही है।

फिर ये लेख है किस बारे में, भैया, लेख है उस हरे रंग के बारे में जिसके पीछे दुनिया भागती है। वो हरा रंग जिसे दुनिया पहचानती है। वो हरा रंग सो सबसे मोहक है, हॉ प्रकृति की उन मोहक छटाओं से भी मोहक, जिनमें हरे रंग की प्रधानता होती है। अगर शीर्षक से आपने कुछ अंदाजा लगाया होगा तो आप सही हैं, डालर, जी हॉ ये लेख है डालर के बारे में।

भारत की मुद्रा तो बहुरंगी है, जैसी हमारी संस्कृति है, लेकिन अमरीकी डालर का रंग है हरा, डालर की कीमत आप तब समझ सकते हैं जब आप दूर किसी देश के हवाई अड्डे पर हैं और आप वहॉ भारत जैसे किसी देश की मुद्रा निकालते हैं। यहॉ तक कि करेन्सी कन्वर्जन के लिये बैठे नराधम (मुद्रा परिवर्तक) भी डालर के अलावा किसी और मुद्रा को पहचानने से सरासर इन्कार कर देते हैं। आप डालर निकालिये, सामने वाला मुस्कराने लगता है, और आपका काम आसान।

डालर की महिमा अपरम्पार है, ये लेख तो क्या ऐसे कई लेख कम पडेंगे उसका बखान करने में। अगर आपने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का इतिहास नही पढा तो जरूर पढें यहॉ या यहॉ । अमरीका में सबसे पहले रहने वाले निवासी नेटिव इंडियन कहलाते थे। भारत की तरह ही सन् १४०० के बाद अमेरिका में भी यूरोपीय देशों (ब्रिटेन, फ्रान्स, पुर्तगाल आदि) की कई कालोनियॉ बन गई थीं और सन् १७७६ में १३ ब्रिटिश राज्यों ने स्वाधीन होने की घोषणा कर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की नींव डाली थी। अमेरिका आप्रवासियों से ही बना है। अमेरिका के ज्यादातर निवासी पूरी दुनिया से यहॉ आकर बसे हैं, ज्यादातर लोग यूरोप, उत्तरी अफ्रीका तथा मध्य पूर्व से आये हैं। एशिया से आये हुए लोगों की आबादी तकरीबन ४ प्रतिशत है। आज संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में ५० राज्य हैं।

बहुत से लोग संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को केवल अमेरिका कहने में एतराज करते हैं क्योकि उत्तर अमेरिका पूरे महाद्वीप का नाम है जिसमें संयुक्त राष्ट्र अमेरिका एक देश है। भारत के आजाद होने के बाद कई भारतीय भी अमेरिका में आकर बसे हैं, ज्यादातर काम धन्धे वाले लोग पंजाब से या गुजरात से। गुजरात से आये हुए पटेलों के इतने मोटेल हैं कि अब मजाक में अमरीकी पटेलों को पोटेल कहा जाने लगा है। हर भारतीय अमरीकी दूतावास पटेलों के आवेदन पत्रों की बहुत बारीकी से जॉच पडताल करता है क्योंकि अमेरिका पँहुचने के लिये पटेलों ने तरह तरह के रास्ते निकाले हैं। अगर आप कभी मुम्बई स्थित अमरीकी दूतावास गये हों तो आपको यदा कदा गुजराती में होने वाली घोषणायें चौंका देंगी। कई वरिष्ठ गुजराती नागरिक ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्हे अंग्रेजी नही आती फिर भी थोडी बहुत कठिनाई के बाद दूतावास से काम कराके ही वापस जाते हैं।

आज ज्यादातर भारतीय विद्यार्थी अमेरिका आने के सपने ही नही देखते उन्हे साकार भी करते हैं। कई अमरीकी विश्वविद्यालय भारतीय विद्यार्थियों को दाखिला ही नही देते, बल्कि उन्हे छात्रवृत्ति भी उपलब्ध कराते हैं। किसी भी समय भारत स्थित किसी भी अमरीकी दूतावास में साक्षात्कार देते हुए आप बहुत से भारतीय विद्यार्थी पा सकते हैं, और उन्हे वीसा मिलने में भी कोई खास परेशानी भी नही आती।

मैने कुछ मित्रों से यहॉ आने वाले उन लोगों के किस्से भी सुने हैं जो किसी अवैधानिक जहाज से मैक्सिको या कनाडा तक आये और फिर किसी तरह अमेरिका में दाखिल हुए। मेरे कुछ मित्रों ने यहॉ बसी हुई उन लडकियों की तलाश अपने विद्यार्थी जीवन में ही शुरू कर दी थी जो एक सुयोग्य भारतीय वर की तलाश में हों। कुछ सफल भी हुए और उन्हे एक अमरीकी नागरिक से विवाह करने के उपलक्ष्य में दुनिया की कुछ सबसे दुर्लभ चीजों में से एक, अमरीकी नागरिकता प्राप्त हुई। आज उनमें से एक तथा उनकी पत्नी अलग अलग राज्यों में रहते हैं और सप्ताहांत में ही कभी कभी मिल पाते हैं, क्या करें नौकरियॉ अलग राज्यों में हैं और एक की नौकरी से जीविकोपार्जन तो हो जायेगा लेकिन स्टेटस नही आ सकता। क्या कहा स्टेटस जरूरी नही जीवन में, अरे साहब अपनी सलाह अपने पास रखिये आप। क्या दुनिया में हर व्यक्ति को अपनी जिंदगी अपने तौर से जीने का अधिकार नही। अपनी अपनी प्राथमिकतायें (प्रियोरिटीज) हैं।

मैने मेरे कई मित्रों से कई बार इस बारे में वार्ता की और पाया कि लोगों में यहॉ कुछ साल गुजारने के बाद वापस लौटने में एक डर सा व्याप्त हो जाता है। भ्रष्टाचार, प्रदूषण तथा सुख सुविधाओं का अभाव गहरे कहीं दिमाग में कहीं अपने ही देश के बारे में हौवा खडा कर देता है। मेरे एक मित्र यह मानने को ही तैयार नही थे कि भारत में भी ए टी एम् हो सकते हैं (वो कई सालों से भारत नही गये)। या यह कि भारत में भी वेब साइट से बिल अदायगी सम्भव है। आज सब सारी दुनिया सस्ते चिकित्सकीय उपचार (मेडिकल टूरिस्म) के लिये भारत भाग रही है, भारत के ही लोग भारत में उपचार कराने से घबराते हैं। मजे की बात यह कि अमरीका स्थित अमरीकी चिकित्सा संस्थानों में भी ज्यादातर चिकित्सक भारतीय ही हैं।

असल में साफ सफाई, सडकों की हालत तथा ग्राहक अधिकारों में निश्चित रूप से अमरीका भारत से बेहतर है। अगर आप किसी भी दुकान से कोई सामान लेते हैं तो सन्तुष्ट न होने पर ९० दिनों में वापस कर सकते हैं। भारत की अधिकान्श रसीदों पर लिखा होता है "भूल चूक लेनी देनी", मतलब अगर बेवकूफ बन गये हो तो वापस शकल दिखाने की कोई जरूरत नही है। अगर दिखाई भी तो भी कुछ उखाड नही पाओगे। किसी भी दुकान में जाकर आप कुछ भी छू सकते हैं। वैसे अब भारत में भी ऐसे कुछ बाजार आ रहे हैं, पर दुरूपयोग होने की सम्भावनायें दुकानदारों में डर जगाती हैं। बच्चे खिलौनों की दुकानों पर जाकर किसी भी खिलौने से घण्टों खेल सकते हैं। हर जगह मुफ्त वाचनालय (लाइब्रेरी) की सुविधा सहज उपलब्ध है आप कितनी भी पुस्तकें ला सकते हैं। चोरी आदि की घटनायें बहुत कम हैं और अधिकतर अभियुक्त पकड लिये जाते हैं। टैक्स फाइल करना तथा अन्य लालफीतासाही बहुत कम है तथा कई काम बहुत आसानी से हो जाते हैं। बहुत से सरकारी काम इन्टरनेट पर ही हो जाते हैं। विद्युत व्यवस्था में अवरोध शायद ही कभी होता हो।

एक बार इन सब चीजों की आदत पड जाने पर लोगों को वापस जाना थोडा बुरा तो लगेगा ही। वहीं दूसरी ओर भारत के कुछ सबसे बडे सकारात्मक पहलुओं में, सबसे पहले तो यह हमारी मातृभूमि है। सारे रिश्तेदार हैं भारत में। बीमार पडने पर चिकित्सा तथा दवाइयाँ बहुत सहज और सस्ती हैं। शाकाहारी लोगों के लिये भारत स्वर्ग है। यह हमारी सन्स्कृति है, जरूर ही भ्रष्ट हो रही है फिर भी सान्स्कृतिक झटकों की कोई सम्भावना नही है, या बहुत कम है। लोग इन्सानों से प्यार करते हैं, कुत्ते बिल्लियों को इन्सानी रिश्तों का विकल्प नही बनाते।

खैर ये तो थी थोडी सी तुलना, ये लिस्ट बहुत लम्बी की जा सकती है और हर किसी के अपने अपने विचार, अपनी अपनी प्राथमिकतायें हो सकते हैं इस बारे में।

मैक्सिको और अन्य लातिन अमरीकी देशों के नागरिक यहॉ हिस्पैनिक्स कहलाते हैं और उन्हे अमरीका में एक अलग एथिनिक समूह की मान्यता प्राप्त है, भले ही वे श्वेत हों या श्याम। मेरे बहुत से अमरीका आने के इच्छुक मित्रों ने पहले कनाडा या मैक्सिको का रूख किया और एक बार वहॉ की नागरिकता प्राप्त कर फिर अमेरिका आये। ये सब लिख रहा हूँ कल के बुश साहब के उस एलान के बाद जिसमें उन्होने कहा कि मैक्सिको की सीमा पर ३००० से ६००० तक सैनिक तैनात किये जायेंगे ताकि अवैध घुसपैठ को रोका जा सके। स्वागत है बुश साहब। कब सीखेगा भारत और कब लगायेगा रोक उन अवैध बान्ग्लादेशियों पर जो पहले से ही ज्यादा आबाद भारत को और ज्यादा आबाद बना रहे हैं।

खैर कुछ भी हो लेकिन कल तक जो ब्रेन ड्रेन भारत के लिये समस्या लगता था आज भारत का सबसे उजला पक्ष है। सारे नही तो ज्यादातर भारतीय भारत के पक्ष में वातावरण बनाने का काम कर रहे हैं। जो देश सापों, साधुओं तथा भिखारियों का देश माना जाता था, बडी तादाद में मेहनतकश भारतीय कम्प्यूटर (संगणक) तकनीशियनों के चलते लोग अब सिक्के का दूसरा पहलू भी देख रहे हैं। बहुत ज्यादा दिन नही हुए जब स्टीवन स्पीलबर्ग ने Indiana Jones and the Temple of Doom (इंडियाना जोन्स और टेम्पल आँफ डूम्स) नाम की फिल्म बनाई थी जो भारत का पहले वाला भ्रमकारक नकारात्मक पहलू दिखाती है। आज भारतीय समूह अमेरिका में एक शकतिशाली समूह है और बहुत से भारतीय भारत के राजदूत की तरह काम कर रहे हैं।

मै भारतीय जनता पार्टी के उस इन्डिया शाइनिंग या भारत चमक रहा है नारे की तरह नारा तो नही लगाना चाहता लेकिन आने वाला भविष्य जरूर उज्जवल है और एक दिन हमारी मुद्रा भी मुद्रा बाजार में पहचानी जायेगी, यही उम्मीद है। दोस्तों उम्मीद लगाने में क्या है, कहते हैं ना उम्मीद पर आसमान टिका है। तो आइये हम सब मिलकर उम्मीद लगाये और इंतजार करें उस दिन का जब कोई गैर-भारतीय एक लेख लिखेगा "बहुरंगी मुद्रा भारत की"।

मै जानता हूँ कई ऐसे मित्र होंगे जो मेरी बातों से सहमत नही होंगे, कुछ मेरा लिखा (अगर कहीं गलत है) सुधारना चाहेंगे, मै स्वागत करता हूँ उन सभी का।

जय भारत जय हिन्द।

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Thursday, May 11, 2006

अनुगूँज १९ - “संस्कृतियाँ दो और आदमी एक”

मै कौन हूँ?
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मै कौन हूँ? यह सवाल उठा था गौतम बुद्ध के मानस में और ना जाने कितने ही भारतीय सन्यासियों के मन में जो इस सवाल का उत्तर जानने के लिये वनगामी हुए। घबराइये मत या प्रसन्न न होइये, मै ऐसा कुछ भी नही करने वाला हूँ लेकिन जब लालों के लाल श्री समीर लाल जी ने टिप्पणी के द्वारा दुबारा यही सवाल मेरी तरफ उछाल दिया है तो कुछ न कुछ लिखना तो लाजमी है।

मै एक इन्सान हूँ, भारतीय हूँ और बेहद आम किस्म का भारतीय हूँ, अपनी पहचान के बारे में लिखने लायक कुछ है ही नही। और नाम में क्या रखा है आखिर। अगर केवल सम्बोधन की समस्या है तो मै आपको पूरी पूरी आजादी देता हूँ कि आप जो जी में आये सम्बोधित करें। छाया जी, या छायावादी जी या और कुछ। मै एक छाया हूँ एक परछाईं, एक प्रतिबिम्ब मात्र और परछाईं की कोई पहचान नही होती। परछाई के साथ कोई पहचानपत्रक जुडा नही होता। परछाईं घटती है बढती है, गायब भी हो जाती है। तो मुझे बस ऐसी ही एक छाया समझ लीजिये।

छाया का धर्म, राज्य, जाति या क्षेत्र नही होता।

फिर भी मै मेरे बारे में कुछ लिखता हूँ।
परिवार रहा है बन्जारा किस्म का, बस कई राज्यों से सम्बंध रहा है। शायद मेरे किसी पूर्वज को यह शाप मिला होगा कि तुम्हारी दो पीढियॉ कभी एक शहर में तो क्या एक राज्य में भी नही रहेंगी तो मेरे परिवार का इतिहास रहा है राज्य दर राज्य भटकने का। और शायद मेरे साथ ये शाप कुछ ज्यादा रहा होगा तो मै भटक रहा हूँ देश दर देश दरवेशों की तरह। दिल में कहीं एक चाह है और बेहद तीव्र चाह है कि वापस मुझे जाना है अपने देश ही, आज नही तो कल, इस साल नही तो अगले साल, लेकिन जाना तो है जरूर ही वापस एक दिन। और बस हमेशा के लिये। लाख रो लूँ भ्रष्टाचार का रोना या प्रदूषण या देश के अविकसित होने का, कोई भी चीज मुझे डगमगा नही सकी अभी तक।

मेरा पेशा संगणक (कम्प्यूटर) से जुडा हुआ है तो यही कारण है कि जब तक जहॉ काम है अपनेराम हैं, काम खत्म तो बस राम राम है।

परदेश में दिनबदिन सान्स्कृतिक झटके लगते रहते हैं आखिर करूँ तो क्या करूँ हूँ तो विशुद्ध भारतीय ही।
एक झटका तब लगा था जब बेटे के लिये विद्यालय दाखिले के लिये भरे जाने वाले फार्म में माता पिता की वैवाहिक स्थिति के लिये दिये गये विकल्पों को देखा था। कुछ इस प्रकार थे -
१) विवाहित
२) तलाकशुदा
३) साथ में रहते हुए
४) अकेले
५) गोद लिया हुआ

खैर,
दूसरा सान्स्कृतिक झटका लगा था जब हमने एक महिला एवं अमरीकी सहकर्मी का कार्यालय में जन्मदिन मनाया और तीन दिन बाद उससे पूछने की गुस्ताखी कर बैठे कि जन्मदिन की शाम उसने क्या किया। खुश होकर दिया गया जवाब था "मैने मेरा जन्मदिन तीन दिनों तक मनाया। वो शाम मैने अपने उस पुरुष मित्र के साथ गुजारी जिसके साथ मै पिछले दो सालों से रहती हूँ और शादी का अबतक कोई विचार नही बना। अगला दिन मैने मेरी मॉ और उनके वर्तमान पति के साथ रात्रिभोज किया और उसके अगले दिन मै मेरे पिता और उनकी वर्तमान पत्नी के साथ थी।"

सच बताऊँ तो मेरा दिमाग आगे कल्पना न कर सका।

मालूम नही बाकी के भारतीयों के मन की हालत कैसी होती है इस देश में जब वो ये सब देखते सुनते हैं।

मै कुछ ऐसे भी भारतीयों को जानता हूँ जो ग्रीन कार्ड के इन्तजार में कुंवारे बैठे हैं। असल में माजरा यह है कि वो यहॉ किसी प्रकार के बहुत सीमित समय के वीसा पर आये थे, जैसे ज्यादातर विद्यार्थी वीसा पर और अपनी पढाई पूरी करके नौकरी करने लगे। अब ये लोग वापस इसलिये नही जा सकते क्योंकि अगर गये तो वापस लौट नही सकते। इन्हे फिर से कोई अमरीकी दूतावास वीसा नही देगा, क्योंकि इन्होने पहले पाये हुए वीसा का अतिक्रमण किया है। ग्रीन कार्ड की अप्लीकेशन लम्बित है अमरीका में। तो क्या हुआ अगर शादी की उम्र निकली जा रही है, तो क्या हुआ अगर घर में बूढे मॉ बाप सालों से इन्तजार कर रहे हैं कि बेटा आयेगा एक दिन। भारत में शादी के साथ एक समस्या है, अपनी खुद की शादी में और कोई हो या न हो तुम्हे तो उपस्थित होना ही पडता है। तो अगर भारत नही जा सकते तो शादी भी नही कर सकते। क्योंकि जिस चीज के लिये इतनी मेहनत की और पसीना बहाया (अच्छी लडकी और अच्छा दहेज) वो तो भारत में ही मिलेगा ना। अब लडकी वाले तो अमरीका आकर शादी करने से तो रहे। बस कट रही है जिन्दगी इन्तजार में उस छलावे के जिसका नाम है ग्रीन कार्ड।

कुछ ऐसे भी भारतीय परिवार हैं जिनके बडे बुजुर्ग, जो कुछ बीस तीस साल पहले यहॉ आये थे, अब वापस जाना चाहते हैं, पर उनकी यहॉ जन्मी और पली बढी सन्तानों ने विद्रोह कर दिया है। अगर कोई बच्चा अमरीका में पैदा हुआ तो वो कानूनन् अमरीकी नागरिक होता है मैने मेरे आसपास के भारतीय परिवारों में अमरीका में रहते हुए ही बच्चा पैदा करने की होड सी देखी है। मेरे एक विदेशी मित्र के एक समय के उद्गार मुझे याद आते हैं, जिधर देखो बस गर्भवती भारतीय महिला ही नजर आती है। खून का घूँट पीकर मै चुप रह गया था, क्योंकि सच ही था।

खैर, तो मै बात कर रहा था उन भारतीय परिवारों की जिनके बडे बुजुर्ग अब वापस जाना चाहते हैं पर सन्तानें नही जाना चाहतीं। अब सन्तानें हैं अमरीकी नागरिक, तो मॉ बाप की भला क्या हैसियत। एक बार बच्चे दस बारह साल के हुए नही कि सान्स्कृतिक अन्तर या बदलाव दो पीढियों के अन्तर्विरोधों में बदल जाता है। आखिरकार मॉ बाप को हारकर झुकना पडता है, भारत न जाकर यहीं रहना पडता है क्योंकि बच्चे कह देते हैं कि आपको जाना हो तो जाइये, मै तो यहीं रहूँगा या रहूँगी। जबरदस्ती किसी अमरीकी नागरिक को भारत ले जा नही सकते और हैं तो आखिरकार भारतीय मॉ बाप ही ना, तो अपनी औलाद को छोडकर भला कैसे चले जायें। पडें हैं परदेश में औलाद की खातिर।

अगर आप एक पुत्री के पिता हैं तो आप आसमान से नीचे गिरते हैं जब आपकी बारह साल की लडकी रात भर घर से बाहर रहने के लिये अनुमति माँगती है या सप्ताहाँत में गायब रहती है। रास्ते चलते आप क्या करेंगे जब आपका बच्चा आपके साथ है और सामने हो रहा है लाइव टेलीकास्ट चुम्बन का। कुछ समय बाद बच्चे खुद ही समझदार हो जाते हैं और इन्हे जीवन की सामान्य घटनाओं की तरह नजरअन्दाज कर देते हैं, लेकिन आप अपने दिल का क्या करेंगे।

कितनी ही बार मैने बस में बेहद छोटे उम्र के बच्चों को वयस्कों को भी शर्मा दे ऐसी हरकतें करते देखा है, कोई शर्म नही, लिहाज नही। जब जब मै किसी बुजुर्ग के लिये अपनी सीट छोडकर खडा हुआ उन्होने अचरज से कहा unlike your age, मतलब तुम्हारी उम्रवाले ऐसा नही करते आमतौर पर। कई बार तो मैने युवाओं को बडी ढिठाई के साथ बुजुर्गों के लिये आरक्षित सीटों पर जमे पाया और बुजुर्गों को उनके सामने खडा। कान में आईपाड या एम पी ३ लगाये ये युवा या बच्चे मशीनी सम्वेदनहीनता का ऐसा भद्दा अमरीकी चेहरा प्रस्तुत करतें हैं कि मन सोचने लगता है कि इस देश में बसने का निर्णय कोई भारतीय कैसे ले सकता है।

अब तक मै मेरे किसी भी पोस्ट में किसी भी व्यक्ति का या स्थान का नाम लेने से बचता रहा हूँ। मेरा मानना है कि घटनायें और वो भी सच्ची घटनायें व्यक्ति या स्थान जैसी संज्ञाओं से ऊपर होती हैं। लेकिन मै भारत के एक प्रदेश का नाम लेना चाहता हूँ, आन्ध्रप्रदेश, मैने भारत के इस अकेले राज्य से अमरीका में कितने ही विद्यार्थी देखे। कुछ विद्यार्थियों से पूछा भी यार ऐसा क्यों है, कि जो भी भारतीय विद्यार्थी मिलता है वो आन्ध्र का ही होता है, तो उनका जवाब था कि "आन्ध्र समाज में अमरीका जाने पर लडके की कीमत बढ जाती है, और उन विद्यार्थियों के लिये जो अमरीका आना चाहते हैं बहुत सारे दिशानिर्देश सहज ही उपलब्ध हैं। आपको लगभग हर घर में एक विद्यार्थी या नौकरीशुदा व्यक्ति तो मिलेगा ही जो अमरीका में हो। हर विद्यार्थी विद्यालय में पढते समय ही पूरा प्लान बना चुका होता है कि वो किस अमरीकी यूनिवर्सिटी में दाखिले का प्रयास करेगा।" मैने पाया कि आन्ध्र समाज के बहुत बडे और समर्थ समूह हर जगह मौजूद हैं जो किसी भी आन्ध्रप्रदेशी विद्यार्थी या नौकरीशुदा व्यक्ति की यथासम्भव मदद के लिये तैयार रहते हैं।

कहॉ लिखने बैठा था मै अपनी पहचान के बारे में और कहॉ भटक गया।
जब भी कोई भारतीय यहॉ मुझे मिलता है, छूटते ही प्रश्न तैयार, भारत में कहॉ से? ऐसा क्यों, अरे भाई भारत से हूँ क्या यही कम नही, किसी प्रदेश का लेबेल लगाना जरूरी है क्या? मुझे मालूम है कि सामने वाला मुझे अपनी कसौटी में कसने को बेताब है।
दक्षिण भारतीय या उत्तर भारतीय?
उत्तर भारतीय हैं तो किस प्रदेश से?
दक्षिण भारतीय हैं तो केरल के मालाबारी या तमिल या तेलगु या फिर कन्नड।
उत्तर भारतीय हैं तो ठाकुर, ब्राह्मण या वैश्य हैं या फिर कुछ और।
ब्राह्मण तो कौन से, सरयूपारीण या कान्यकुब्ज, या फिर सनाढ्य या गौड या ....।
महाराष्ट्रियन हैं तो कोंकनस्थ हैं या देशस्थ, मराठा या फिर सीकेपी या ....।
उडिया है पन्जाबी हैं या बंगाली हैं, भारतीय अजनबी के लिये आपकी जाति, क्षेत्र आपसे पहले आता है, और जब सवालों के जवाब मिल जाते हैं तो आपके लिये उसके पास पूर्वागृहों का पूरा पूरा खाका तैयार हो जाता है। अच्छा तो ये बन्दा हिन्दी बोलने वाला उत्तर भारतीय है, हुँह, गन्दे लोग, यही हैं जिन्होने भारतीयों की छवि खराब कर रखी है। या अच्छा तो ये बन्दा हिन्दी विरोधी, साम्बर खाने वाला दक्षिण भारतीय हैं, हुँह, पता नही अपने आपको क्यों श्रेष्ठ समझते हैं ये लोग।

भारत में इतने अन्तर्विरोध हैं और हम बाहर जाकर भी उनका टोकरा लादे घूमते हैं, क्यों?
लाख अमरीकी सभ्यता या सन्स्कृति से मै सहमत न होऊँ लेकिन इस बात की मै जरूर दाद दूंगा कि ज्यादातर अमरीकियों के लिये आप क्या हैं ये मायने रखता है कि आप वास्तव में क्या हैं? आप कितने काम के आदमी हैं? बस, आपकी जाति आदि बहुत पीछे छूट जाती है, पर मैने "ज्यादातर अमरीकियों के लिये" उपयोग किया क्योंकि, क्योंकि कुछ पागल आपको हर जगह, हर देश, हर सन्स्कृति में मिलेंगे।

बस अब बस करता हूँ। इस उम्मीद के साथ कि अब मुझसे मेरी पहचान नही पूछी जायेगी।

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Wednesday, May 10, 2006

दो कवितायें

दो कवितायें
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सबसे पहले एक निवेदन यह है कि मै कवि तो बिलकुल भी नही हूँ और मैने बस यूँ ही बैठे हुए मन के कुछ विकारों को कागज पर उकेर दिया है।

१)

याद नही आता पिछली बार
इस शहर में बिजली कब गई थी
याद आते हैं पुश्तैनी वो गॉव
जहॉ बिजली थी ही नही कभी

वातानुकूलित कमरों में पला मेरा बेटा
शायद ही समझेगा कभी
ये चिलचिलाती धूप कडी गर्मी
कडकडाती ठंड क्या है होती

सोचता हूँ वन्चित रह जायेगा
रंगों से जीवन के कितने ही
कितनी ही कहानियों से मुहावरों से
खेतों से रसों से कितने ही



२)

बहुत दिनों से छत पर कवितायें पढ पढ कर मैने सोचा मै भी कुछ छत का जिक्र वाली कविता लिखूँ

अट्टालिकाओं से भरे इस शहर में
एक आसमान ढूँढता हूँ
आसमान जिसमें मै बचपन में
गेंदों को ओझल हो जाने तक की
ऊँचाइयों तक फेंकता था
कभी गिनता था पंछियों को
कभी सितारों को
छत पर यूँ ही लेटे हुए
कभी दिखता था इन्द्रघनुष
कभी कोई विमान
और कभी दिखती थी कोई पतंग
दूर गगन में हवा में
हिचकोले लेते हुए
जैसे इठला रही हो
जश्न मना रही हो ऊँचाइयों का
जाने कहाँ खो गया है मेरा
वो आसमान वो पंछी वो पतंगें
पतंगें जो जानती थीं
कि आखिरकार
ये कुछ समय की बात है
और जमीन पर आना शाश्वत सच है
फिर भी इठलाती थीं


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Thursday, May 04, 2006

यादों के झरोखे से (दूसरा भाग)

यादों के झरोखे से (दूसरा भाग)
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हालांकि मुझे मेरी पिछली दो पोस्ट पर टिप्पणियॉ नही मिलीं, शायद मेरा लिखने का उत्साह जाता रहता, अगर मेरी नजर स्टेट्सकाउन्टर पर ना पडी होती जो कहता है कि बहुत से इन्टरनेट प्रवासियों ने मेरे चिठ्ठे पर अपनी कृपादृष्टि डाली है। इतना ही बहुत समझ आगे लिखता हूँ। अगर आप भूले भटके मेरे ब्लोग तक आयें और टिप्पणी के लायक समझें कृपया कन्जूसी न करें। आपकी टिप्पणियॉ ही मेरे आगे लिखने का सम्बल हैं।

तो मैने पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि कैसे मै जंगल के बीच स्थित इस कम्पनी तक पँहुचा और आश्चर्यजनक तरीके से चुना गया उस साक्षात्कार में, जिसके बारे में मुझे कुछ भी पूर्वानुमान या पूर्वाभास न था। खैर मित्र का साथ था और कुछ वो एकान्त सी जगह, और वो सुन्दर सा संयन्त्र मुझे पसन्द सा आ गया था, तो बस फिर मैने वो नौकरी शुरू कर दी। रहने के लिये कुछ दिनों तक अतिथिगृह था और कुछ समय बाद कम्पनी द्वारा एक अपार्टमेन्ट दिया गया। अब उस उजाड जंगल में भला कौन मुझे घर देता, या मै कहॉ घर ढूँढता, तो कम्पनी ही सबके रहने का प्रबन्ध करती थी। कम्पनी की अच्छी खासी बस्ती थी। बस्ती क्या पूरी दुनिया थी जहॉ सब कुछ था जैसे गली, मोहल्ले, चौराहे, चबूतरे, चौपाल, ऊँच-नीच, क्षेत्रीयता, धर्म, जॉत-पॉत, बिरादरी आदि आदि।

मुझे शुरू में तो लोगों ने थोडा जाँचा परखा पर थोडे ही दिनों में अच्छा खासा मित्र वर्ग बन गया। काम था तकनीशियनों को देखना, उन्हे काम देना, हाजिरी लेना, घन्टों का हिसाब रखना, कुल मिलाकर प्रबन्धन करना और कुछ वरिष्ठ अधिकारी थे ही। तो वे वरिष्ठ अधिकारीगण मुझे काम देते थे जो मै मेरे तकनीशियनों को देता था, कुल मिलाकर middleman या बीच वाला काम था। संयन्त्र बहुत बडा था तो काम भी बहुत था और पूरा पूरा दिन भागते भागते ही गुजर जाता था। रखरखाव तथा सुधार मेरा विभाग था। तमाम उपकरणों की देख रेख करना, उनकी बीमारियों का उपचार करना। तकनीशियनों की एक दवा थी जो उनसे काम करवा सकती थी और वो थी ओवरटाइम यानी अतिरिक्त घन्टे, जिसका उन्हे दोगुना पैसा मिलता था। ज्यादातर तकनीशियन अच्छे थे पर कुछ बेहद बददिमाग भी थे। उनसे काम करवाना तो दूर बात करना भी बडा कठिन था। उनके लिये ओवरटाइम भी काम का नही था। कुल मिलाकर अकल के दुश्मन किसे कहते हैं, ये तब समझ में आया।

शाम को हम दोस्त (संयन्त्र के साथी) ताश खेलते थे। बाद में हमने चन्दा जमा कर एक टेलीविजन ले लिया था। पूरे तो नही पर कुछ चैनेल आते थे। रोज काम करने वाले दोस्तों के साथ रहने का सबसे बडा नुकसान था कि हम उस संयन्त्र की बातों से कभी बाहर नही निकल पाते थे। कभी कभी बडी कोफ्त भी होती थी। सप्ताह में छः दिन हम काम करते थे। रविवार हम देर से सो कर उठते, थोडा घूमने जाते। घूमने के लिये खास कुछ था ही नही। छोटी सी बस्ती, संयन्त्र और आसपास घना जंगल था, कुछ शहरी सभ्यता से दूर ग्रामीण बस्तियॉ भी थीं, जंगल में ही एक हनुमान जी का मन्दिर था। जब कभी कार्यदिवसो में मै संयन्त्र से जल्दी वापस आता, किसी एक मित्र के साथ उस मन्दिर हनुमान जी के दरबार में जाता। मन्दिर एकदम जंगल के बीच में होने के कारण पंडित जी उसे सूर्य ढलने के थोडी देर बाद ही बन्द कर देते थे। कितनी ही बार वो मन्दिर हमें बन्द मिलता था, तो बस बाहर से ही हाथ जोड लेते थे हनुमान जी बाबा को।

मन्दिर से लौटते वक्त अक्सर अन्धेरा हो जाता था। एक घटना याद आ रही है, एक बार कई अन्य मौकों की तरह मुझे और मेरे मित्र को मन्दिर बन्द मिला और हम दुःखी-भारी मन से वापस लौट रहे थे। ना जाने किस विषय पर बातें कर रहे थे और मेरा ध्यान सडक पर बिल्कुल भी नही था। अचानक मेरा मित्र चिल्लाया "सॉप, सॉप" और पलक झपकते ही वो दौडकर कुछ फुट आगे चला गया। अब नजारा ये था कि बीच मे था एक फन उठाये बैठा गेँहुअन नाग, जो अनिश्चय की सी स्थिति में था, मै एक तरफ और मेरा मित्र दूसरी तरफ। मै था जंगल की तरफ और मेरा मित्र संयन्त्र की तरफ। कितने ही क्षण हम ऐसे ही खडे रह गये, मै हनुमान चालीसा पढते हुये। शायद खुद ही ऊबकर सॉप पास की एक झाडी में चला गया और उसके बाद मै ऐसा भागा कि बस पूछिये मत, मेरे दोस्त को भी पीछे छोड दिया मैने, जो मुझे रुकने को कहता पीछे पीछे आया। सीधा अपार्टमेन्ट पँहुचकर ही दम लिया।

मन्दिर के पीछे एक रास्ता जाता था जिसके बारे में हम लोग रोज सोचते थे और विमर्श करते थे कि ये कहॉ जाता होगा यार ये रास्ता भला इस घने जंगल में। जिन्दगी और संयन्त्र की भागदौड में न हमें कभी वक्त मिला न साहस हुआ और न कभी हम लोग जा पाये उस रास्ते पर बहुत दिनों तक।

कई दिनों तक काम करने के बाद मन ऊबने लगा था, संसार से कटा हुआ जीवन। सप्ताह में दो बार कम्पनी की बस शहर जाती थी, फिर वही बस वापस आती थी। उससे शहर जाकर तीन घन्टों के अन्तराल में खरीददारी की जा सकती थी जिसका हम "छडे" भरपूर लाभ उठाते थे। कभी कभी हम शहर जाकर फिल्म भी देखते थे। लेकिन संयन्त्र, संयन्त्र और संयन्त्र ही दिमाग पर छाया रहता था ऐसा लगता था कि बाकी दुनिया से हम बहुत दूर हैं। हम एक ऐसी जगह थे, जहॉ सारे काफी पुराने से हो चुके उत्पाद पँहुचते थे। हम टेलीविजन पर उत्पादों के विज्ञापन देखते थे ये जानते हुए कि यह उत्पाद जब तक हम तक पँहुचेगा कई महीने गुजर चुके होंगे।

आखिरकार डेढ साल बाद जब कुछ ही समय के अन्तराल में मैने आसपास कुछ दुर्घटनायें देखीं, तब मेरा पहले से ही कुछ उखडा सा मन उस जगह से पूरी तरह से उठ गया। संयन्त्र में एक उपकरण में एक दुर्घटना में एक तकनीशियन घायल हो गया और हमारे साथ काम करने वाले तथा साथ ही रहने वाले एक घनिष्ठ मित्र की संयन्त्र के बाहर अचानक एक दुर्घटना में अकाल मृत्यु हो गई। तब मुझे पता चला कि मन्दिर के पीछे का रास्ता श्मशानघाट को जाता था, जो नदी के किनारे था। शायद यह प्रकृति का हमें वह रास्ता दिखाने का, अपना तरीका था।

उन घटनाओं के कुछ ही दिनों बाद मैने वह जगह और वह नौकरी छोड दी। बाकायदा इस्तीफा दिया, कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश भी की। कई सालों पहले मैने उस जगह को आखिरी सलाम किया और फिर उस जगह को कभी नही देखा। आज सोचता हूँ तो लगता है जैसे मिली थी वह नौकरी वैसे ही छोड दी बिना किसी तैयारी के। भटकाव का कुछ समय, और जीवन के कुछ वो साल जिन्हे शायद हम दुबारा न जीना चाहें, उनमें मै मेरे जीवन के उस समय को शामिल करूंगा, पर यह अपने हाथ में तो होता नही। हम उस पत्ते की तरह है हवा जहॉ चाहती है उडाकर ले जाती है और हम भरते है दम्भ हमने ये किया वो किया। शायद ही कभी हम जो सोचते हैं वो यथार्थ में होता है। इटली की एक कहावत है "man proposes GOD disposes" या उसके कुछ करीब हिन्दी में जब इन्सान सोचता है तब भगवान हँसता है।

कभी कभी मै सोचता हूँ ये जीवन एक लौहपथगामिनी-स्थानक जैसा है। लोग मिलते हैं, कुछ दूर साथ चलते हैं और बिछडते हैं। सबका अपना अपना गन्तव्य है। कोई थोडी दूर साथ चलता है कोई बहुत दूर तक साथ देता है। कुछ लोग तुरन्त मित्र बन जाते हैं कुछ आपको परखते हैं और कुछ को परिस्थितियॉ आपका मित्र बनाती हैं। कुछ लोग साथ चलकर भी कभी मित्र नही बनते, कुछ मित्र बनकर फिर दूर हो जाते हैं। लोग आते जाते रहते हैं, और कुछ लोग अपने निशान छोड जाते हैं। कुछ से हम दुबारा मिलना चाहते हैं, कुछ जगहों पर दुबारा जाना चाहते हैं, भले ही अब कोई भी पहचानने वाला न बचा हो।

इसी सन्दर्भ में राजेश खन्ना अभिनीत अमर हिन्दी फिल्म "आनन्द" का वो सम्वाद याद आता है।

"हम सब रंगमंच की कठपुतलियॉ हैं जहॉपनाह; कौन, कब, कहॉ, कैसे उठेगा कोई नही बता सकता"

सार मात्र यह है कि "सब कुछ पूर्वनियोजित है, हम केवल नेक कर्म कर सकते हैं पर जीवन की ज्यादातर घटनाओं पर हमारा बस नही।"

फिर से फिल्मो की भाषा में कहूँ तो "जो होना है सो होना है, फिर किस बात का रोना है"।

या गीता के अनुसार "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"

"कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर ऐ इन्सान"

पर यादें, वो तो हैं आती हैं और बदस्तूर (सतत्) आती हैं। आज मुझे उस जगह को आखिरी बार देखे बरसों हो गये ना मै उस तरह के किसी संयन्त्र में हूँ और ना ही वहॉ काम कर रहे किसी व्यक्ति से मेरा कोई भी सम्पर्क बचा है। पर आज भी मै कभी कभी रात में सपनों में उन विद्युत उपकरणों के बीच चला जाता हूं या हनुमान जी का वो जंगल मध्य स्थित मन्दिर याद आता है।

[समाप्त]