Monday, July 31, 2006

फूलों की तरह मुस्कुराते रहना

पेशेखिदमत है कुछ दुर्लभ तस्वीरें पुष्पों की






Friday, July 28, 2006

कुछ विलक्षण, अद्भुत, विस्मयकारी तथ्य

कुछ विलक्षण, अद्भुत, विस्मयकारी तथ्य
मेहरबान, कदरदान भाइयों, बहनों, भाभियों और बहनोइयों (पानदान, पीकदान, थूकदान, कूडादान या नादान नही)
यहां पर आपको कुछ ऐसे तथ्यों के बारे में बता रहा हूँ, जो कि सचमुच विस्मयजनक हैं, अनूठे हैं, जिन्हे पढकर आप दांतों में उंगलियां दबा लेंगे। तो दिल थाम के बैठिये और पढते जाइये।

कोका कोला सबसे पहले हरे रंग की थी।
दुनिया में सबसे ज्यादा प्रचलित नाम है "मोहम्मद"।
विश्व में सारे महाद्वीपों का अंग्रेजी नाम उसी अंग्रेजी अक्षर से शुरू होता है, जिससे समाप्त होता है।
TYPEWRITER अंग्रेजी भाषा का सबसे बडा अक्षर है जो कि कीबोर्ड की एक ही पंक्ति से टाइप किया जा सकता है। क्या आप हिंदी भाषा का ऐसा शब्द ढूंढने में मेरी मदद करेंगे?

महिलायें पुरुषों से दुगुनी बार पलक झपकाती हैं।
चाहें भी तो आप अपनी सांस रोककर अपने आपको नही मार सकते।
आप अपनी कोहनी को जीभ से कभी नही चाट सकते।
छींकने पर लोग "Bless you" ब्लेस यू बोलते हैं क्योंकि छींकते वक्त आपका हृदय एक मिलीसेकण्ड के लिये रुक जाता है।

सुअरों के लिये आसमान की तरफ देखना शारीरिक संरचना के तौर पर संभव नही है।

अंग्रेजी का सबसे कठिन बार बार न बोला जा सकने वाला वाक्य है "sixth sick sheik's sixth sheep's sick", अब बतायें हिंदी का ऐसा वाक्य कौन सा है "चंदा चमके चमचम चीखे चौकन्ना चोर" या "पके पेड पर पका पपीता" या "कच्चा पापड पक्का पापड" या कोई और?

अगर आप बहुत जोर से छींकते हैं तो आप अपनी गले की हड्डी तोड सकते हैं।
और अगर आप बहुत जोर से आती छींक रोकते हैं तो आप सिर या गले की अपनी खून की एक नलिका तोड सकते हैं और मर भी सकते हैं।

ताश के पत्तों में मौजूद सारे चार राजा, ऐतिहासिक रूप से महान थे -
स्पेड - किंग डेविड
क्लब्स - महान सिकंदर
हर्ट्स - कार्लेमैग्ने
डायमण्ड - जूलियस सीज़र

१११,१११,१११ का १११,१११,१११ में गुणा करने पर प्राप्त होता है १२,३४५,६७८,९८७,६५४,३२१
(111,111,111 x 111,111,111 = 12,345,678,987,654,321)

अगर किसी पार्क में घोडे पर बैठे हुए किसी व्यक्ति या महिला की प्रतिमा में घोडे के दोनों सामने के पैर हवा में हैं, तो यह इस बात का संकेत है कि उस व्यक्ति या महिला की मृत्यु युद्ध में लडते हुए हुई थी, यदि घोडे का एक पैर हवा में है तो यह इस बात का संकेत है कि उस व्यक्ति या महिला की मृत्यु युद्ध से मिले घावों के कारण हुई थी, यदि घोडे के चारों पैर जमीन पर हैं तो यह इस बात का संकेत है कि उस व्यक्ति या महिला की प्राकृतिक मृत्यु हुई थी।

दुनिया में कभी खराब न होने वाला एकमात्र खाद्य पदार्थ है "शहद"।
एक घडियाल अपनी जीभ बाहर नही निकाल सकता।
एक घोंघा तीन वर्ष तक सो सकता है। (नींदप्रिय लोग भगवान से अगले जन्म में घोंघा बनाने की मांग कर सकते हैं)
सारे ध्रुवीय भालू (पोलर बियर) वामहस्त (left handed) होते हैं।
तितलियां किसी भी वस्तु को जीभ से चखती हैं।

दुनिया का एकमात्र न कूद सकने वाला जानवर हाथी है।
दुनिया में औसत तौर पर लोग मकडियों से मृत्यु से भी ज्यादा डरते हैं। (मकडी बोले तो शबाना आजमी, नही क्या)
'assassination' व 'bump' जैसे शब्दों का आविष्कार शेक्सपियर ने किया।
कीबोर्ड पर केवल बायें हाथ से टाइप किया जा सकने वाला अंग्रेजी शब्द है "Stewardesses"।
चींटी बेहोश होने पर हमेशा उसकी दाईं तरफ ही गिरती है।

"The electric chair" या बिजली की कुर्सी का आविष्कार एक दांतों के डाक्टर(dentist) ने किया था।
मानव हृदय कार्य करते समय खून को तीस फुट की ऊंचाई तक फेंकने लायक दवाब बनाता है।
चूहे बच्चे पैदाकर अपनी संख्या इतनी तेजी से बढाते हैं कि दो चूहे १८ महीनों में दस लाख से अधिक हो सकते हैं।
कान में एक घण्टे हेडफोन लगाने से आपके कान में बैक्टीरिया ७०० गुना बढ जाते हैं।
सिगरेट लाइटर का आविष्कार माचिस से भी पहले हुआ था।

९५ प्रतिशत लिप्स्टिक बनाने में मछली की खाल पर पाये जाने वाले स्केल्स का उपयोग होता है।
दुनिया में हर व्यक्ति की उंगलियों के अलावा जीभ का निशान भी अलग अलग होता है।

और अंत में
९९ प्रतिशत लोग जिन्होने इसे पूरा पढा उन्होने अपनी कोहनी को चाटने की कोशिश की है।

Wednesday, July 26, 2006

संजाल पर बीमारी के लक्षण व उपचार पायें

इंटरनेट पर उपलब्ध मायो क्लिनिक के इस संजाल पर आप अपने अस्वस्थता के लक्षणों के अनुसार यह जान सकते हैं कि आपको क्या हुआ है। आप न केवल संभावित उपचार जान सकते हैं, बल्कि आपको क्या सावधानी बरतनी चाहिये यह भी जान सकते हैं और साथ साथ पा सकते हैं और भी बहुत सी उपयोगी जानकारियां।

Friday, July 21, 2006

ग्रीष्मावकाश - III

ग्रीष्मावकाश की पिछली दो किश्तों में मैने लिखा ग्रीष्मावकाश के मेरे इंतजार और दादा दादी के घर पर बिताई गई कुछ छुट्टियों के बारे में, इस बार पेश है मेरे नाना नानी के घर पर मेरे बचपन के अवकाश के क्षणों की बानगियां

मेरे नाना नानी का घर एक ऐसे देहात में था, जहाँ शायद आज भी बिजली नही है (कम से कम चार साल पहले तक तो नही थी, जब मै पिछली बार वहाँ गया था)। वहां पँहुचने के लिये हमें हर तरह के साधनों का इस्तेमाल करना पडता है। पहले रेल, फिर बस, फिर जीप (जिसमें इतनी सवारियां बिठाई जातीं हैं, कि गिनीज़ बुक वाले कभी भी उसे देख कीर्तिमान दर्ज कर सकते हैं), फिर घोडागाडी (जिसे वहां की स्थानीय भाषा में खडखडा कहते हैं, और जिसमें जुते हुए घोडे की पीठ से हमेशा खून रिस रहा होता है, वैसे खडखडे में एक बार बैठ कर ही आप जान सकते हैं कि उसे खडखडा क्यों कहते है?), फिर बैलगाडी (जो बेहद धीरे चलती है), बैलगाडी तक आते आते हम बेहद थके होते फिर भी क्या मजाल कि सो जायें, बराबर आस पास की उडती धूल, कौतूहल से हमें निहारती फटे कपडे पहने ग्रामीणों की निगाहों को और उनके मिट्टी के कच्चे घरों को ताका करते।

डाकुओं, भूतों, जातीय संघर्षों, वैमनस्य की दुनिया से परिचय हमारा नाना नानी के घर में होता। रास्ते में पडती एक बिना बांध की नदी, जो हर साल अपने रास्ते बदल लेती। जिसे पार करने के लिये बैलगाडी नदी के बीच में घुसकर निकालती, क्योंकि कोई पुल नही था, लेकिन ग्रीष्म में नदी सूखकर एक छोटे नाले का रूप ले लेती थी, इसलिये पार करना कोई खास परेशानी की बात नही होती।

नाना जी पुराने समय के बहुत बडे जमींदार थे इसलिये नाना नानी के घर दूर दूर तक फैले खेत थे, न जाने कितनी गायें, भैंसे, नौकर चाकर, ट्रैक्टर, हल, बगीचे (आम के पेड) आदि आदि। दुर्गम इलाके में होने के कारण भाला बरछी जैसे पारंपरिक हथियारों के साथ कुछ लायसेंसी हथियार भी थे (पहली बार बंदूक चलते भी वहीं देखी थी)। सुबह दिन निकलते ही जीवन शुरू हो जाता और सांझ ढलते ही सिमट जाता। बिजली न होने से लालटेन या ढिबरी की रोशनी से काम चलाया जाता, पर रातें जल्दी होतीं। झकाझक सफेद चादरों के बिस्तर में छत पर बहुधा नानी हमें कोई कहानी सुनातीं, ज्यादातर उस दुःखी राजकुमारी की, जिसे बचाने राजकुमार कहानी के अंत में आता और तब तक हमारी पलकें नींद से भारी हो चुकी होती।

कभी रात में कहीं दूर रोशनी चमकती दिखती और लोग सावधान होने लगते, डाकू तो नही आ गये।
मामा के पास कुछ घोडे भी थे। मुझे बेहद कौतूहल होता जब मै उन्हे घोडे पर बैठ पल में दूर पगडंडी पर ओझल हो जाते देखता।

घर का बना गुड, मक्खन, सिरका, दही खाते, घर की गायों का दूध पीते, अपने ही बगीचों की सब्जियां खाते, हैंडपंप या ट्यूबवेल में नहाते और अपने ही वृक्षों के आम खाते वो सुनहरे दिन कब बीत जाते, पता ही नही चलता।

वापसी के लिये पुनः होती एक रेल यात्रा। और हम वापस आ जाते अपनी दुनिया में। स्कूल, होमवर्क, कक्षा, प्रतिस्पर्धा और पढाई की दुनिया में। लेकिन वापस आते समय हमारे मन बुझे होते और फिर शुरू होता इंतजार अगले साल का जब हमारा अंतिम पेपर हो जायेगा।

साल दर साल यह इंतजार चलता रहा, जब तक कि मै विद्यालय छोडकर महाविद्यालय न पंहुच गया, जहाँ सेमेस्टर सिस्टम के कारण ग्रीष्मावकाश की पद्धति ही नही थी।

कभी सोचता हूँ अगर अभी भी किसी प्रकार से मुझे एक महीने का अवकाश मिले, और दूर कहीं ऐसी दुनिया में जाऊँ, जहाँ मोबाइल, पेजर, इंटरनेट, लैपटाप, कम्प्यूटर, ई-मेल, मीटिंग्स, प्रोजेक्ट जैसे शब्द न सुनने पडें। जहां काम पर न जाना हो।

ग्रीष्मावकाश - II पर की गई सुनील जी की टिप्पणी से मै सहमत हूँ, पर फिर भी कभी कभी मुझे समझ नही आता कि तब या अब ज्यादा दुःख मुझे ग्रीष्मावकाश न होने का है, या उस बचपन के जाने का, जो कभी लौटकर नही आ सकता। वो किस्सो कहानियों खेलों में डूबे हुए दिन, वो दिन जब हम सारे जहाँ की चिन्ताओं से मुक्त थे, सारी जिम्मेदारियों से परे, अगर लौट भी आयें तो क्या हम वैसे ही निश्छल, निश्चिंत होकर उसका आनंद उठा पायेंगे।

फिर याद आती है जगजीत व चित्रा सिंह की गाई गजल

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी

Thursday, July 20, 2006

ग्रीष्मावकाश - II

पिछली बार मैने मेरे बचपन के ग्रीष्मावकाश के बारे में लिखना शुरू किया था, उससे आगे-

पिता के शिक्षा के क्षेत्र में होने का लाभ यह था कि कि ग्रीष्मावकाश उन्हे भी मिलता था, ३० अप्रैल के बाद हम सपरिवार निकल पडते दादा दादी, नाना नानी के घर एक - दो महीने के लिये। सामान बांधा जाता। हम भारतीय रेल के सामान्य श्रेणी के डब्बों में बैठ निकल पडते। जब तक मै स्कूल में पढा, हर साल उन्ही दिनों मैने साल दर साल कई रेल यात्रायें की हैं। रेल यात्राओं का असली आनन्द तो वही था। भीषण गर्मी, लेकिन परिवार का साथ, घर का बना ही खाते पीते, कई बार आवश्यकतानुसार हम रेल भी बदलते, साथ में होती, रेल्वे स्टेशन से खरीदी गई कुछ पुस्तकें।

ट्रेन की खिडकी पर बैठने को लेकर मारामारी होती। और खिडकी मिले या न मिले पुस्तक के समाप्त होते ही हम बस खिडकी से बाहर देखते रहते घण्टों चलती हुई रेल में बैठे, बिजली के तारों को, खेत, खलिहान, पर्वत, पठार, मैदान, पीछे छूटते स्टेशन, पटरियों के किनारे बनी झोपडियां और उनमें रेल के अस्तित्व से बेखबर लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में, सुरंग, पुल, नीचे भागता दौडता शहर, रेल-क्रोसिंग (इंतजार में रुके बेचैन लोग), नदियां, नहरें, आस पास से गुजरती दूसरी ट्रेनें, कल-कारखाने, कुल मिलाकर जिंदगी के भागते दौडते रूप एक बच्चे की आंखों में उतरते जाते।

दादा दादी का घर या नाना नानी का घर किसी जन्नत से कम नही था। जिसमें स्नेह ही स्नेह था, बोली में, कार्य व्यवहार में, जैसे पूरा वातावरण ही चाशनीमय था। एक अलग ही दुनिया। एक और छोटे कस्बे में स्थित दादा दादी के घर में जाने के बाद नदी में नहाना, खुले मैदानों में भागना दौडना, खेतों में जाना, जंगली जानवरों और सांपों से परिचय होता। सच्चे अर्थों में हमारा पढाई की दुनिया छोडकर असली दुनिया से परिचय वहीं होता था।

वहां पढने के लिये मिलता हमें धार्मिक साहित्य। रामायण, महाभारत और कल्याण की कुछ प्रतियां। कभी कभी हमें पुरानी दीमक चाटी हुई सरिता, मुक्ता, कादंबिनी, सारिका या धर्मयुग की कुछ प्रतियां मिल जाती और हम खोये रहते उन पुस्तकों में। कमलेश्वर, रवीन्द्र कालिया और मोहन राकेश की कहानियां, उनकी पत्नी अनीता औलक के आत्मकथात्मक धारावाहिक "चंद सतरें और" के कई भाग मैने पढे हैं। बहुत छोटी उम्र में बहुत बडे बडे लेखकों के कृतित्व से परिचय हो गया था। वहीं कहीं श्रीलाल शुक्ल जी के किसी रिश्तेदार के घर मुझे "रागदरबारी" मिल गई थी, जिसे मैने कुछ दिनों में ही चाट डाला था। रागदरबारी मैने उसके बाद फिर कई बार पढी और हर बार थोडा थोडा करके उसे समझ सका। मै उसे व्यंग्य की दुनिया का शिरोमणि ग्रन्थ मानता हूं।

मुझे याद है, जब भारत ने क्रिकेट विश्व-कप जीता था १९८३ में, मई-जून ही था और मै मेरे दादा दादी के घर पर ही था। कैसे लोगों में क्रिकेट का जुनून सा छा गया था और पिता व उनके कई मित्रों में कई दिनों तक उसी की चर्चायें हुआ करती थी। उस अवसर पर खरीदी गई क्रिकेट-सम्राट की प्रति मैने बहुत दिनों तक संजो कर रखी थी।

मैने टेलीविज़न भी वहीं पर पहली बार देखा था। एशियाड के पहले तक तो रेडियो ही घर घर में छाये हुए थे। बहुत से कार्यक्रम हम रेडियो पर नियमित रूप से सुनते थे। उनमें से बी बी सी लंदन के समाचार और रेडियो सीलोन से शिवाका या बिनाका गीतमाला प्रमुख थे। अमीन सयानी की वह अमर आवाज आज भी मेरे कानों को गुंजित कर जाती है, "इस हफ्ते दो पायदान ऊपर चढकर पहले पायदान पर है वो गाना जो पिछले हफ्ते था तीसरी पायदान पर"। मुझे मालूम नही पायदान कैसे निर्धारित किये जाते थे (शायद सुनने वालों के पत्रों या रिकार्डों की बिक्री से), लेकिन हर हफ्ते उत्सुकता होती थी, इस बार कौन सा गाना आयेगा पहले पायदान पर।

जब दादा जी के एक पडोसी के घर टेलीविज़न आया तो हम बुधवार व शुक्रवार ८ बजे चित्रहार का इंतजार करते थे और रविवार को किसी पुरानी फिल्म का। चैनलों में केवल दूरदर्शन ही उपलब्ध था और "एक चिडिया अनेक चिडिया" जैसे अनेक (झेलाऊ) कार्यक्रमों को भी हम लोग बहुत पसंद कर लिया करते थे।

अगली बार अंतिम किश्त में मेरे नाना नानी के घर पर बिताई मेरी छुट्टियों के कुछ सुनहरे दिनों के बारे में

Wednesday, July 19, 2006

ग्रीष्मावकाश - I

मई महीने में अमेरिका के ही एक स्कूल में पढ रहे मेरे बेटे के स्कूल टीचर ने हमें सूचित किया "ग्रीष्मावकाश शुरू हुए, क्या आप बाहर कहीं जा रहे हैं?"
मेरा जवाब था "नही"
"तो आप ग्रीष्मावकाश में भी स्कूल शुरू रखेंगे"
"हां"

ये बात तो वहीं समाप्त हो गई, लेकिन, ग्रीष्मावकाश - दिमाग में घंटियाँ बजने लगीं और मन उड चला पीछे, कई साल पीछे।

पिता भारत में एक छोटे कस्बे में साधारण शासकीय शिक्षक थे। बेहद साधारण सा घर। पढाई ही हमारी पूजा थी। विद्यालय में मै अच्छा ही था। कारण था नियमित अध्ययन। पूरे साल भर नियमित तौर पर विद्यालय के अलावा सुबह दो घण्टे और शाम चार घण्टे अध्ययन अनिवार्य था। यही कारण था कि मेरी कापियां हमेशा दुरुस्त होती थीं और सबक हमेशा याद।

लेकिन यही कारण भी था कि ग्रीष्मावकाश का मुझे बेतरह इंतजार होता था, इस कठिन दिनचर्या से छुटकारा। कुछ ख्वाबों जैसे दिन। पूरे साल भर मै दिन गिनता, और आखिर वह दिन आ ही जाता। आज सोचता हूँ तो शायद दुनिया में कोई भी खुशी उस दिन की खुशी की बराबरी नही कर सकती। जब सालाना कक्षा का आखिरी इम्तहान होता और न जाने क्यों उस अंतिम पेपर को देने के बाद घंटी बजते ही दिल दिमाग और शरीर से जैसे मनों बोझ उतर जाता। उस एक पल में ही जाने क्या क्या बदल जाता। मन जैसे उडने लगता और पैर अपने आप गतिशील हो जाते।

अगर बोर्ड की परीक्षा नही है तो यह विद्यालय पर निर्भर करता था कि यह परीक्षा मार्च में हो या अप्रैल में। बोर्ड परीक्षायें (५वीं, ८वीं, १०वीं और १२वीं) मार्च में ही होती थीं। उस अंतिम पेपर के बाद वापस लौटते मै जैसे दुनिया का बादशाह होता था। लौटते ही पुरानी कक्षा की कापी किताबों को अपनी अलमारी से अलविदा कर देता। कहानी की भिन्न भिन्न पुस्तकों की गठरियां खुल जातीं। कई कहानियां, कई पुस्तकें तो मैने साल दर साल कितनी ही बार पढी होंगी। नंदन, चम्पक, पराग, इंद्रजाल कामिक्स, डायमंड कामिक्स, अमर चित्र कथा, लोटपोट, ट्विंकल, सुमन सौरभ, मधु मुस्कान आदि आदि तकरीबन दो तीन सौ पुस्तकें रही होंगी।

अगले दिन सुबह उठकर यह महसूस करता कि आज मुझे कुछ भी करना जरूरी नही है, कोई पढाई नही, कोई स्कूल नही, कोई होमवर्क नही, कोई जल्दबाजी नही, कुछ काम नही, बस मै, मेरी पुस्तकें और मेरे खेल, मेरे कुछ मेरे जैसे ही मित्र, जिनसे पुस्तकों का बाकायदा व्यावसायिक तरीके से लेन देन होता, मतलब इस हाथ ले, उस हाथ दे और इतना ही नही चार दे तो चार ही ले।

३० अप्रैल परीक्षा परिणाम का दिन होता था। ज्यादातर कक्षा में पहले दूसरे तीसरे किसी स्थान पर रहने के कारण कुछ पुरस्कार मिलता।

बाकी अगली बार...

Friday, July 14, 2006

अनुगूंज २१ कुछ और

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सरदार जी दिल्ली गये। घंटाघर के पास उन्हे लगातार घडी की ओर निहारता देख एक व्यक्ति ने उन्हे प्रस्ताव दिया "आप यह घडी खरीद सकते हैं, लाइये हजार रुपये"। सरदार जी प्रसन्न हुए, फौरन हजार रुपये निकाल दिये। वह व्यक्ति "अभी सीढी लाता हूँ" कहकर गायब हो गया। काफी देर इंतजार करने के बाद सरदार जी को भान हुआ कि वे ठगे गये हैं। निराश वे सराय वापस चले गये। अगले दिन उसी जगह फिर से घडी देखते हुए वही व्यक्ति उन्हे मिल गया और उसने फिर से वही प्रस्ताव उन्हे दिया, सरदार जी सतर्क थे बोले "लेकिन इस बार सीढी लेने मै जाऊंगा"।
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दो सरदार एक क्लिनिक के बाहर बैठे थे, उनमें से एक जोरों से रो रहा था।
उनके बीच का संवाद
दूसराः "क्यों रो रहा है?"
पहलाः "मै खून की जॉच कराने आया था"
दूसराः "तो, डर गया क्या"
पहलाः "अरे उन्होने मेरी उंगली में छेद कर दिया"
अब दूसरा सरदार जोरों से रोने लगा
पहलाः "अब तुझे क्या हुआ"
दूसराः "अरे मै पेशाब की जॉच कराने आया हूं"
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दो सरदार एक होटेल पंहुचे और चाय के साथ जेब से सैन्डविच निकाल कर खाने लगे। "आप अपने खुद के सैन्डविच यहां नही खा सकते", होटेल मालिक ने विरोध किया। दोनों सरदारों ने तुरंत सैन्डविच बदल लिये।
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जसमीत कौर ने अपने पति संता को टी वी के आस पास पागलों की तरह कुछ ढूंढते हुए देखा।
जसमीतः "क्या खो गया"
संताः "मै देख रहा हूं कि कैमरा कहॉ छुपा रखा है इन लोगों ने"
जसमीतः "कैमरा, किसने, तुम्हे कैसे लगा कि कैमरा है"
संताः "अरे उन्हे कैसे पता कि मै क्या कर रहा हूँ"
जसमीतः "किसे कैसे पता"
संताः "अरे इन स्टार प्लस वालों को, वो महिला बार बार कैसे कहती है, आप स्टार प्लस देख रहे हैं, उसे कैसे पता चला?"
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बंदर और गेंद
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कुछ महाशय एक मधुशाला में बैठे बियर की चुस्कियां ले रहे थे। एकाएक एक महाशय एक बंदर के साथ वहाँ प्रविष्ट हुए। बंदर ने लोगों को तो परेशान नही किया, लेकिन वहाँ रखी वस्तुओं से छेडछाड करनी शुरू कर दी। उसके मालिक ने मधुशाला के कर्मचारियों को आश्वस्त किया "घबराइये नही, वैसे तो वह कुछ तोडेगा फोडेगा नही, ज्यादा से ज्यादा कुछ खा जायेगा, उसका पैसा मै दे दूंगा"। बंदर तीन चार बियर पी गया, प्याले तोडकर खा गया, ऐसा करके वह छोटा छोटा कुछ कुछ सामान खा गया। उसका मालिक मुस्कराता रहा, उसे आश्वस्त देख बाकी लोग भी निर्विकार भाव से बंदर को देखते रहे। अचानक बंदर को एक बडी क्रिकेट की गेंद मिल गई। इसके पहले कि कोई कुछ समझ पाता बंदर उसे भी गडप कर गया। खैर, उसका मालिक उठा, उसने पैसे दिये और रुखसत हुआ। लोगों ने भी चैन की सॉस ली। कुछ दिनों बाद वही महाशय उसी बंदर के साथ मधुशाला में हाजिर हुए। बंदर पुनः वस्तुयें निगलने लगा, लेकिन इस बार वह हर वस्तु को पीछे ले जाकर पहले पीछे से अंदर डालता, फिर खाता। लोगों को कौतूहल हुआ। उनके सवाल का जवाब देते हुए बंदर के मालिक ने बताया "जब से उसे वह गेंद निकालनी पडी, वह हर वस्तु को खाने से पहले उसका पहले पीछे ले जाकर माप लेता है, फिर खाता है"।

Thursday, July 13, 2006

संतासिंह समुद्र तट पर

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संतासिंह जी समुद्र तट पंहुचे। बहुत से लोगों को धूप में रेत पर पसरा हुआ देख खुद भी चौडे हो गये। आने जाने वालों ने संता को सतत् खीसें निपोरता हुआ देख पूछना शुरू किया "आर यू रिलैक्सिंग"। संता साहब बोले "नो जी, आय्यम संतासिंह"। जब कई एक लोगों से उनका यही संवाद रहा तो संता से रहा न गया "स्साला ये रिलैक्सिंग कौन है, जो गुम गया है, और पब्लिक मेरा मगज खा रही है"। संता उठे और उन्होने ढूँढना शुरू किया। अब क्या है सरदार तो विश्व में कहीं भी मिल जाते हैं "ओम्नीप्रेज़ेंट" हैं, तो थोडी दूर में एक और सरदार मिल गया, बेचारा वो भी रेत में धूप सेंक रहा था। संतासिंह ने आव देखा ना ताव सवाल दाग दिया "आर यू रिलैक्सिंग"। दूसरा सरदार थोडा पढा लिखा समझदार टाइप था, बोला "यस आय्यम रिलैक्सिंग"। फिर क्या था संतासिंग का पारा चढ गया, दहाडे "ओये हरामखोर, तू इत्थे लेट्या है, और उत्थे पब्लिक मेरा दिमाग खा रई असी"।

Wednesday, July 12, 2006

२१वीं अनुगूंज में कुछ कार्टूनों की गूंज

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सरदार जी ने चप्पल सुरक्षित रखने का क्या उपाय ढूँढा?


मारो गोल, तेर्री तो, देखता हूँ


औलम्पिक मशाल


ऐसा भी क्या जोग रचाना


किरकिट का बुखार


संतासिंग बोक्सिंग


बीवी बेढब


गायन प्रतियोगिता

Tuesday, July 11, 2006

जिदान के सींग

अरे भाई मै फ्रांस के खिलाडी जिनेदिन जिदान साहब के विश्व-कप के फायनल के दौरान किये गये पागलपन की बात कर रहा हूँ। बिल्कुल मरकही गाय या भैंस की तरह ही उन्होने इटली के खिलाडी मेटरज्जी के पेट में सर घुसा दिया। अरे हाथों का प्रयोग भी कर सकते थे, पर वे फुटबाल के मैदान में थे तो हाथ का प्रयोग करना फाउल हुआ ना। मुझे लगता है फुटबाल खेलते खेलते जिदान साहब ने सर को इतना मजबूत कर लिया है कि वो हर संभावना पर उससे ही मार करते हैं या फिर दिमाग में यह बैठा लिया है कि हाथों का प्रयोग नही करना है, या फिर पिछले जन्म में कोई सांड, बैल या भैंसे रहें हों जिसकी छाप उनकी अंतरात्मा पर गहरी हो। बाद में पढा कि पहले भी कई एक बार जनाब ऐसा कारनामा कर चुके हैं। बहरहाल इस सर की मार के बारे में पूछना हो तो किसी ब्राजीलियन से पूछियेगा, १९९८ के विश्व-कप में फ्रांस में ही हुए फायनल मैच में उन्होने इसी सर से दो हेडर कर फ्रांस को विश्व विजेता बना दिया था, और बेचारा ब्राजील धूलधूसरित होकर रह गया था।

एक बात जिससे मं बिल्कुल भी सहमत नही था, वो यह कि जिदान के बाहर होने से ही इटली मैच जीत गया। अरे माना कि जिदान एक पैनाल्टी किक या फ्री किक ले लेते मगर बाकी नौ खिलाडी भी शामिल होते हैं फ्री किक में। ये भी हो सकता था कि जिदान ही बाहर मार देते अपनी फ्री किक। फ्रांस के राष्ट्रपति शिराक को गुस्सा आया और उन्होने कहा ये लॉटरी के समान है, है शिराक साहब बिल्कुल है, मगर हमेशा हारने वाली टीम को ऐसा क्यों लगता है। याद करें स्विटज़रलैण्ड के एक खिलाडी ने यूक्रेन से पैनाल्टी शूट में हारने के बाद कहा था "ये सबसे ज्यादा अन्यायपूर्ण खेल है"।

पूरी दुनिया के पत्रकार अब इसकी जॉच पडताल में लग गये कि आखिर ऐसा क्या था कि जिदान साहब इस कदर बौखला गये। किसी ने कहा उन्हे आतंकवादी कहा गया, किसी ने उनकी मॉ को गाली दिया जाना बताया तो किसी ने लिप रीडिंग के बाद कहा बहन को गाली दी जाने पर इतना भडक गये। जिदान तो कुछ नही बोले मगर मेटरज्जी ने बताया कि मैने कुछ अपमानजनक टिप्पणी की थी। जिदान साहब अल्जीरियाई मूल के मुस्लिम हैं, तो किसी ने अंदाजा लगाया कि उनकी नस्ल पर कुछ कहा गया। मै तो कहता हूँ अगर इनमें से एक बात भी सही है और उन्हे आतंकवादी, मॉ, बहन या नस्ल से संबंधित कुछ कहा गया तो मेटरज्जी को और भी ज्यादा पीटना चाहिये था, लेकिन मैदान के बाहर आकर।

वैसे तो हर विश्व-कप में थोडा बहुत विवाद होते रहे हैं, चाहे वो रिवाल्डो का मैदान में "एक्टिंग" करके विरोधी खिलाडी को लाल पत्रक दिलवाना हो, यो बेचारे १९८६ विश्व-कप के सबसे अच्छे खिलाडी मेराडोना को पूरी तरह घेर कर, कई बार पटक कर १९९० के विश्व-कप में अपंग जैसा कर देना हो। इसी विश्व-कप में कुछ मैच देखते हुए मुझे लगा कि जैसे मै युद्ध होता हुआ देख रहा हूँ। इटली और यू एस ए का मैच इसका एक उदाहरण था, जिसमें तीन खिलाडियों को लाल पत्रक (रेड कार्ड) से सम्मानित किया गया। मैदान में एक खिलाडी की आंख के पास से झर झर बहता हुआ खून भी दृष्टिगोचर हुआ और कुछ हाथापाई भी। वहीं दूसरी ओर पुर्तगाल और नीदरलैण्ड का मैच इस हाथापाई की पराकाष्ठा था, जहॉ चार खिलाडियों को लाल पत्रक सम्मान प्राप्त करने का गौरव हासिल हुआ। एक अकेले इस मैच में सत्रह पीत पत्रक (येलो कार्ड) दिये गये। पुर्तगाल की टीम तो पूरे टूर्नामेण्ट में २५ पीत पत्रक (येलो कार्ड) प्राप्त कर एक अनूठे सम्मान की हकदार बनी। उनके कृत्य की महानता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि दूसरे स्थान पर आई टीम उनसे बहुत बहुत पीछे रही।

कभी कभी मुझे लगता है, इन सब खिलाडियों को फुटबाल के साथ साथ "एक्टिंग" की ट्रेनिंग दी जाती है, जिससे एक पल पहले दर्द से तडपता सा खिलाडी विपक्षी खेमे को पत्रक मिलते ही, या रेफरी के "कुछ नही" कहते ही तुरंत फुरत उछल कर खडा हो जाता है। आपको याद होगा मैदान पर मृतप्राय पडे मेटरज्जी रेफरी द्वारा जिदान को लाल पत्रक दिखाये जाते ही कैसे उछल कर खडे हो गये थे, और हों भी क्यों ना, उद्देश्यप्राप्ति जो हो गई थी। मुझे विश्वास है भारतीय खेल मंत्रालय बहुतेरे सरकारी मंत्रालयों की तरह सोया नही पडा है और यह बात बराबर उसके ध्यान में है कि भारतीय टीम को भी अगले विश्व-कप के क्वालीफायर मैचों के पहले किसी ऐसे भारतीय अभिनेता से प्रशिक्षण दिलाना होगा, जिन्होने फिल्मों में मरने के सर्वाधिक दृश्य किये हों, अरे भाई प्रशिक्षण भी तो दर्द से तडपने का या मृतसमान पडे रहने का देना होगा ना। अब मुझे तो किसी अभिनेता का नाम याद नही आ रहा, अमरीश पुरी तो रहे नही, आप ही बताइये ऐसे किसी अभिनेता का नाम। वैसे अभिनेता न मिले तो नेता से भी काम चल जायेगा। "एक्टिंग" का ककहरा तो वो भी पढा ही देगा।

पुनश्चः और अंग्रेजी वाले बोलते हैं जिदान ने "हेड बट्ट" कर दिया, मेरी तो समझ से बाहर की बात है, अगर हेड किया तो बट कैसे किया, अगर बट किया हेड कैसे किया, खैर आपको समझे तो बताना भाई।

Friday, July 07, 2006

बिंदास जीवन

आज बगल में बैठने वाले सज्जन ने इस्तीफा दे दिया। आखिरी दिन था उनका मेरे कार्यालय में। ७ साल साफ्टवेयर में काम करने के बाद मिलिटरी में पायलट बनने के लिये चले गये। होता है ना आश्चर्य? असल में मैने गैर भारतीयों, खासतौर पर विकसित देशों के निवासियों में, यह बहुत देखा है, दिल की सुनते हैं, नौकरी वगैरा की चिन्ता नही करते ज्यादा। असल में सब जगह काम करने वालों की कमी है, तो जॉब सेक्योरिटी की चिन्ता तो होती नही ज्यादा। हम भारतीय कर सकते हैं ऐसा क्या?

अमेरिका में अस्थाई कर्मचारियों को कान्ट्रेक्टर कहा जाता है। बहुत से लोग स्थाई नौकरी का प्रस्ताव होते हुए भी कान्ट्रेक्टर बने रहना पसंद करते हैं। कान्ट्रेक्टर इम्प्लाई को पैसा ज्यादा मिलता है और कम्पनियों के लिये भी फायदे का सौदा। हायर एण्ड फायर। आजकल सुना है भारत भी पँहुच रही है हायर एण्ड फायर की नीति। नियमित कर्मचारी हमेशा अपने आपको कान्ट्रेक्टर से श्रेष्ठ मानते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि बहुत से भारतीय भी जब नियमित कर्मचारी बन जाते हैं, तो अपने ही देश वाले कान्ट्रेक्टर से अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं और थोडा रुतबा बना कर चलते हैं। कुछ हद तक शायद ये ठीक भी है, क्योंकि बहुत से कान्ट्रेक्टर्स को तो बस अपना टर्म पूरा करके निकल लेने की गरज होती है और बाद में उनका किया धरा कर्मचारी ही संभालते हैं।

इसके पहले एक अन्य सज्जन पिछले सप्ताह इस्तीफा देकर चले गये थे। वैसे कान्ट्रेक्टर ही थे। उन्होने बताया वो दस महीने काम करते हैं, फिर उसके बाद कुछ आठ या दस महीने किसी और गरीब देश जाकर रहते हैं, जैसे इक्वेडोर या ब्राजील। कोई कन्या पसंद आई तो शादी वगैरा भी कर लेते हैं। अब तक शायद दो चार कर भी चुके हैं। पैसा खत्म तो वापस काम पर अमेरिका में। पैसा है जेब में जब तक, दुनिया घूमते रहते हैं।

अब तो मुझे आदत पड गयी है, पर पहलेपहल बहुत आश्चर्य होता था। एक सज्जन सप्ताहांत में हर्ले डेविडसन दौडाते हैं, बहुत बडे समूह के साथ, उम्र है ७० वर्ष, और प्रोजेक्ट मैनेजर (कान्ट्रेक्टर) हैं। एक स्काई डायविंग करते हैं। एक तो बाकायदा प्रोफेशनल मेराथन दौडते हैं, उसके लिये कई देशों की यात्रा करते रहते हैं, बाकी समय में हमारे साथ काम करते हैं। ये लोग कितनी जिंदगियाँ एक साथ जी लेते हैं, और गजब की जीवटता और समर्पण है अपनी रुचियों हॉबियों के लिये।

कुछ दिनों पहले एक और अविवाहित महिला ने इस्तीफा दे दिया था। कारण कुछ दिन आराम से घर पर रहेंगे, फिर घूमेंगे घामेंगे, इच्छा हुई तो वापस आयेंगे, नही तो नही। वाह साहब क्या अंदाज हैं जीवन जीने के। सरकार भी काफी बेरोजगारी भत्ता दे देती है, नौकरियां भी बहुत सी हैं, चिन्ता किस बात की है।

बचपन से सुना है, नौकरी, नौकरी और नौकरी। पढो नही तो नौकरी नही मिलेगी। अंग्रेजी सीखो नही तो नौकरी नही मिलेगी। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के हर बच्चे के दिमाग में यही बैठा दिया जाता है कि नौकरी ही सब कुछ है। नौकरी ही भगवान है। किसी भी अन्य विकासशील देश की तरह ही भारत में फैली बेरोजगारी युवाओं को और कुछ सोचने या करने के लिये प्रेरित नही कर पाती। अपने आप को एक अदद नौकरी के लायक बना लो और जब मिल जाये तो करते रहो जीवन भर। लगी लगाई नौकरी छोडने वाला तो निरा बेवकूफ ही माना जायेगा भला। छोडना चाहे तो भी घर वाले या तो उसे किसी दिमागी दवाखाने में भर्ती करा देंगे या मना लेंगे कि ना छोडे।

जब सुनील जी ने कल्याण वर्मा के बारे में लिखा तो मैने उनके बारे में पढा। अच्छा खासा कैरियर दॉव पर लगा वर्मा जी ने वन जीवन फोटोग्राफी अपनाई और अब उसमें भी सफल हैं। पर हममें से कितने लोग ऐसा कर पाते हैं? कितने ही सपने अधूरे रह जाते हैं हमारी आँखों में, और हम उन्हे कभी पूरा कर नही पाते। शायद हम ऐसा बिंदास जीवन नही जी सकते। जो मन आया किया, जो मन आया घूमा, जिससे मन आया शादी की, मन आया छोड दिया। हम जीते हैं जीवन बंध के, नियम से, कायदे से, कानून से, शायद इसीलिये हम भारतीय ज्यादा सफल हैं। कुछ खोते हैं कुछ पाते हैं। पर इन्हे बिंदास जीवन जीते देख कभी कभी एक कसक तो उठती ही है मन में। इसी का नाम तो है जिंदगी।

Wednesday, July 05, 2006

देसी मनों की दहशतें

मेरे जैसे अमेरिका में रहने वाले "सीधे सादे" देसी दो चीजों से बहुत डरते हैं। एक तो है, ९११ और दूसरा है फायर अलार्म। अरे कुछ पूडी पराठे छोले शोल्ले बनाने शुरू किये कि फायर अलार्म बजना शुरू। जान की साँसत है ये। आजकल तो मेरा काम यह होता है कि जब भी धर्मपत्नी को कुछ मसालेदार या धुंएदार बनाना हुआ तो बस फायर अलार्म को कुछ समय के लिये टेम्परेरिली "निपटा" देता हूँ (बैटरी को निकालकर)। अगर कभी चूक गया और वह शैतान का नाना बज गया तो तुरंत खिडकी दरवाजे खोलकर धुंए मियाँ को बाहर का रास्ता दिखाना पडता है। यह फायर अलार्म बडी खतरनाक प्रकृति की बला है। ज्यादा देर बजते रह गया तो पूरी बिल्डिंग में बजने लगता है, और अगर थोडी देर में उसे चुप न कराया तो सीधे फायर ब्रिगेड या पुलिस को सतर्क कर देता है। एक बार पुलिस घर आई, तो है तो वो पुलिस ही ना (किसी भी देश की हो, भैया, थाना पुलिस से तो भगवान ही बचाये), एकाध बार चेतावनी देकर छोड देती है, पर कभी जुर्माना भी कर जाती है (जो कि जाहिर है डालर में ही होता है, तो बडा अखरता है)। यही कारण है कि ज्यादातर "सीधे सादे" लोग फायर अलार्म से बहुत घबराते हैं।

९११ की तो महिमा ही अपरंपार है। धोखे से भी फोन पर दब गया तो हजारों बार सफाई देते फिरो कि अरे बाबा, दब गया था धोखे से। ९११ अमेरिका में आपातकालीन सेवाओं के लिये दबाया जाने वाला नंबर है, जो एक आपातकालीन सेवाकेंद्र द्वारा पुलिस, फायर ब्रिगेड और/या एंबुलेंस को आपके पते पर पँहुचने के लिये तुरंत क्रियाशील कर देता है। विद्यालय में बहुत छोटी कक्षाओं में छोटे बच्चों को सिखाया जाता है, कि कोई मुसीबत आने पर तुरंत ९११ डायल करें। मुसीबत की परिधि या परिभाषा में बेचारे माँ बाप भी आते हैं। बेचारे माँ बाप डर डर कर जीते हैं, कहीं जोर से डांट दिया बच्चे को, और उसने डायल कर दिया यह शैतानी नंबर, तो पड जायेंगे लेने के देने भैया।

पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने न जाने कैसे ये कारनामा कर दिखाया। शायद गलती से ९११ दब गया। आपरेटर से बात होने पर भाई ने बडी कोशिश की समझाने की, कि गलती से दब गया है, और सब कुछ वाकई में ठीकठाक है। आपरेटर ने सहमत होते हुए फोन तो रख दिया लेकिन थोडी ही देर में बंदे के घर के दरवाजे पर पुलिस का एक छः फुटा लंबा तगडा जवान नमूदार हुआ, जिसने घर में बाकायदा झाँककर, और घर में मौजूद छोटी बच्ची से पूछकर तसल्ली की कि "वाकई" सब ठीक ही है, तब जाकर रुखसत हुआ। मित्रवर कह रहे थे, मेरी तो इच्छा हो रही है, क्विकफिक्स लगा कर ९ और १ वाली की को जाम कर दूँ टेलीफोन पर। ना कभी दबेगी ना मुसीबत आयेगी। पर क्या करूं दिल्ली (घर) का कोड ११ है।

वहीं एक दूसरे मित्र ने एक बार रात में सीने में भयानक दर्द होने पर हडबडा कर ९११ की शरण ली। हुआ कुछ यूँ कि जनाब डिस्कवरी चैनल पर कोई हृदय की शल्यचिकित्सा से संबंधित कार्यक्रम देख रहे थे, तो उन्हे दर्द उठा तो उन्हे लगा हो न हो ये हृदयाघात ही है। आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं से युक्त सायरन बजाती एंबुलेंस हाजिर हुई और जनाब को एक अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में थोडी देर तरह तरह के परीक्षण किये गये और बाद में जब ये पुख्ता हो गया कि ये और कुछ नही केवल "गैस" है, तभी जाकर दवाई दी गई। सुबह तक बंदे को छोड दिया गया। बेचारा असली बीमार तब हुआ, जब आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं का लंबा चौडा बिल उसे भेजा गया। अब वो तो इन्स्योरेंस था (अब अमेरिका में सभी का होता है,नही तो चिकित्सा सुविधाओं का बिल देखकर कितनों को रोज हृदयाघात हो जाय) तो जनाब २०० डालर देकर छूट गये। मर गई होगी बेचारी इन्स्योरेंस कंपनी। बहरहाल हम सभी ने उन्हे डिस्कवरी चैनल के चिकित्सा कार्यक्रमों से परहेज की सलाह दे डाली है। अब इन्स्योरेंस कंपनी को मालूम होता तो वो एक्सक्लूज़न या राइडर जोड देती उनके इन्स्योरेंस में, कि अगर आप डिस्कवरी चैनल देखकर बीमार "महसूस" करें और आपातकालीन सेवायें प्राप्त करें, तो कृपया इन्स्योरेंस कंपनी को माफी दें।।

पिछले दिनों न्यूयार्क में हुई एक घटना में, एक पाँच छः साला बच्चे की माँ को दिल का दौरा पडने पर उसका आकस्मिक देहांत हो गया, और बच्चे ने जैसा सिखाया गया था, ठीक वैसा ९११ घुमा दिया। झल्लाई हुई आपरेटर ने बार बार कहा, बच्चे खेल बंद करो, माँ से बात कराओ। बच्चा बेचारा सच बोलता रहा, मां मर चुकी है। आपरेटर ने सोचा ये मजाक कर रहा है। पाँच छः घष्टे बाद पिता के आने पर ही कुछ हो सका। लेकिन पिता ने ऊपर शिकायत कर दी, और उस आपरेटर पर विभागीय कार्रवाई हुई (कम से कम समाचार में तो ऐसा ही बताया गया)।

ऊपर के दो ९११ की घटनाओं में अजीब असमानता है। जहां एक ओर सब कुछ ठीक होने पर भी पुलिस घर भेज दी गई, वहीं दूसरी घटना में जरूरत होने पर भी कुछ नही किया गया। इसे कहते हैं "ह्यूमन एलीमेण्ट" यहाँ आपरेटर का निर्णय काम आता है। क्या करें वो भी तो इन्सान हैं। हमारे फोन के बिल से एक दो डालर की राशि अनिवार्य तौर पर इस ९११ की (अ)सुविधा के लिये कटती है। देसी मन है, और बचपन की देसी यादें अभी तक हैं जब वक्त जरूरत होने पर हम केवल "गोहार" लगाते थे और सारा मोहल्ला या गाँव जमा हो जाता था मदद के लिये। चाहे कोई बीमार हो या आग लगी हो या चोर चकार घुस आया हो। भारत में अभी भी यह पद्धति जीवित है, लेकिन आत्मकेंद्रित अमरीकी समाज में यह 911 सुविधा शायद जरूरी है और काम की भी है।

आमीन।

Monday, July 03, 2006

फुटबॉल पर एक नज़र (भाग 2)

तो अघट घट ही गया। (अन)होनी हो ही गई। इतिहास रच डाला गया। हजारों आँखें आँसुओं से डूब गईं। कितने दिल टूट गये। लोगों को आँखों पर विश्वास नही हुआ। जी हाँ, मै विश्व-कप में ब्राजील के हारने की बात कर रहा हूँ। पूरी दुनिया में करोडों-अरबों की पसंदीदा टीम आखिर हार गई। ब्राजील ने अपने प्रदर्शन से अपने चाहने वालों को निराश किया। विश्व के बेहतरीन सितारों से जडी टीम सेमी-फाइनल तक नही पँहुच सकी। १९९४ के विश्व-कप के बाद ब्राजील की टीम केवल दूसरा मैच हारी, और दोनों फ्रांस के खिलाफ। पहला मैच था १९९८ विश्व-कप का फाइनल, जब आठ साल पहले जिनेदिन जिदान पूरी दुनिया पर छा गये थे। जिदान ने एक बार फिर से वही करिश्मा कर दिखाया। अगर फ्रांस हारता तो जिदान का यह आखिरी मैच होता।

फीफा विश्व-कप का यह शायद पहला ऐसा विश्व-कप है, जिसमें दक्षिण अमेरिका का सेमी-फाइनल के पहले ही पूरी तरह पत्ता साफ हो चुका है। सेमी-फाइनल में पँहुचने वाली चारों टीमें यूरोपियन हैं। पूरी दुनिया की निगाहें अब इस महासंग्राम के आखिरी कुछ मैचों पर टिकी रहेंगी। अब कुछ भी अंदाजा लगाना गैर-जिम्मेदाराना होगा, क्योंकि इस स्तर पर कुछ भी संभव है। कौन होगा इस बार का विजेता, ये सवाल अभी भविष्य के गर्भ में छिपा है। आइये इंतजार करें, और देखें ये होगा कौन इटली (मैडम की टीम), पुर्तगाल (नीरज भाई के अनुसार गोवानियों की टीम), फ्रांस या मेजबान जर्मनी। मैने ने तो निश्चय किया है, कि मै जो भी अच्छा खेलेगा, उसका आनन्द उठाउंगा। तो बोलिये इस महायज्ञ की आने वाली समाप्ति पर "स्वाहा"।