Friday, April 28, 2006

मेरे शहर के कुछ छायाचित्र

Thursday, April 27, 2006

यादों के झरोखे से (पहला भाग)

यादों के झरोखे से
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तीन पोस्ट के बाद मन फिर इस सोच में पड गया कि अब क्या लिखूँ?

मेरी एक नौकरी की बातें याद आ रहीं हैं। नौकरी थी एक प्रोद्योगिकी इकाई में।

कई सालों पहले की बात है। मेरे एक दोस्त ने मुझे पत्र द्वारा सूचित किया कि वह इस प्रोद्योगिकी इकाई में बतौर विद्युत अभियन्ता नियुक्त हुआ है और कार्य प्रारम्भ करने जा रहा है, तो मैने सोचा कि चलो इसके पहले कि मै भी कहीं व्यस्त हो जाऊँ जाकर मिल आता हूँ उससे। बस मै मेरे ही प्रदेश के एक दूसरे जिले के बेहद अन्दरूनी इलाके में स्थित उस स्थान के लिये रवाना हो गया। कई आश्चर्यजनक घटनायें हुई, जैसे कि बीच के एक लौहपथगामिनी-स्थानक से मुझे दूसरी लौहपथगामिनी से जाना था। परन्तु वहाँ से मैने जिस लौहपथगामिनी से जाने का इरादा किया था और किराया अदा कर टिकट भी ले लिया था वह अनिश्चितकालीन विलम्बित हो गयी और मै कैसे जाऊँ, कोई नही बता पा रहा था। मै उस लौहपथगामिनी-स्थानक पर अटक सा गया था। क्या करूँ क्या न करूँ, क्या वापस चला जाऊँ, बडी दुविधा में था।

काफी पूछताछ करने के बाद एक सज्जन ने बताया कि मै वहाँ से मेरे गन्तव्य तक बस से जा सकता हूँ। बस फिर मै बस-स्थानक पंहुचा और काफी भागादौडी के बाद एक बस चालक ने हामी भरी कि हाँ मै आपको उस जगह के आसपास सुविधाजनक जगह पर उतार दूंगा। वो बोला वहाँ से आपको आगे जाने के लिये कुछ ना कुछ मिल ही जायेगा। खैर कोई तीन चार घन्टे बाद मै उस तथाकथित "सुविधाजनक" जगह, जहॉ मुझे बस चालक ने उतार दिया था, खडा था और दूर दूर तक कुछ नजर नही आ रहा था। मुझे विश्वास नही हो रहा था कि विश्व में दूसरे सबसे ज्यादा जनसँख्या वाले देश भारत में कोई जगह ऐसी भी हो सकती है जहॉ दिन के एक बजे भरी धूप में भी पक्की सडक पर ऐसा सन्नाटा हो। शायद मै किसी गलत जगह तो नही आ गया।

पता नही कैसे कितनी देर किँकर्तव्यविमूढ सा खडा रहने के बाद मै किसी एक दिशा मे चल पडा। सौभाग्यवश मेरा अन्दाजा सही निकला और आगे चलकर मुझे दूर एक प्रोद्योगिकी इकाई दिखाई देने लगी। यही कोई दो तीन किलोमीटर की दूरी पर। पैदल ही मै चलता गया। जैसे जैसे मै नजदीक पँहुचता गया, आश्चर्य बढता गया, वाह क्या सुन्दर प्रोद्योगिकी इकाई बनाई थी। तो इसको कहते है जंगल में मंगल सही अर्थों में। थोडी ही देर में मै उस इकाई के मुख्य द्वार पर था। सुरक्षा कर्मियो से मैने अतिथिगृह का पता पूछा, जहॉ मेरा मित्र ठहरा हुआ था। दोपहर के तीन बजे थे और थोडी देर मे मै अतिथिगृह के उस कमरे के बाहर खडा था। मेरा मित्र रात्रि पाली करके आया था और सो रहा था। मैने उसे उठा दिया और वो मुझे अप्रत्याशित देखकर बेहद खुश हुआ।

अचानक बातें करते उसे याद आया कि आज तो साक्षात्कार चल रहे हैं, उसने मुझसे यूँ ही पूछा साक्षात्कार देना है, और थोडी ही देर में मै साक्षात्कार हेतु सुबह से आये उम्मीदवारों के बीच बैठा था, जो सुबह से इन्तजार कर करके थक और पक चुके थे। मुझे विश्वास नही हुआ जब तीन घन्टे बाद मै अकेला ही चुना गया। ये क्या था, चमत्कार या संयोग या और कुछ।

बाकी की कहानी अगली बार।

Monday, April 24, 2006

वो लटका हुआ छज्जा और मेरे बचपन का घर

अतीत आपका पीछा करता है।

यादों में बसा है एक छोटा सा घर, एक ऐसा घर, जो भारत के उस छोटे से उस कस्बे मे था जिसमें मेरा बचपन गुजरा। एक घर जिसके कमरे दिन के विभिन्न समयों पर भिन्न भिन्न रूप अदा करते थे। वही कमरा हमारा अध्ययन कक्ष होता था तो किसी मेहमान के आने पर वही कमरा हमारा बैठक कक्ष बन जाया करता था। रात में वही कमरा हमारा शयन कक्ष होता था। सामानों के रखने की जगह हमेशा ही कम पडती थी। एक छत थी, जगह जगह प्लास्तर निकला हुआ, छज्जा था कुछ लटका सा हुआ, और सामने थे बिजली के नंगे तार केवल दो तीन फुट की दूरी पर।

लटका हुआ होने के बावजूद हम बच्चे अकसर उसी छज्जे पर पाये जाते थे जिसके सामने थी एक सडक ज्यादातर आम भारतीय सडकों जैसी, गढ्ढों से भरी हुई और सँकरी सी, जहॉ लोग जिन्दगी की जद्दोजहद में बदहवास से इधर उधर भागते से नजर आते। याद है जब मै बहुत छोटा था कभी कभी सोचता था, ये लोग क्यों भागते हैं (आज मै खुद उनमें शामिल हूँ)।

उसी छज्जे से हुआ था मेरा पहला साक्षात्कार मौत से। सामने के घर में, गली के दूसरी तरफ एक व्यक्ति लम्बी बीमारी के बाद गुजर गया था। परिवार के लोगों का करुण क्रन्दन, दो छोटे छोटे से बच्चो के वो चेहरे, जिन्हे शायद ये भी मालूम न था कि जीवन में उन्होने क्या गवां दिया है, आज भी वैसे ही याद हैं।

उसी छज्जे से देखा था एक वीभत्स दृश्य जब मेरे सामने के एक घर के बाहर बन्धे हुए छोटे से पिल्ले को एक पागल कुत्ते ने काट काटकर मार डाला था। कुत्तों की पूरी प्रजाति से मुझे चिढ हो गयी थी जबकि मरने और मारने वाले दोनो ही कुत्ते थे।

उसी छज्जे से देखी थी कितनी ही शादियॉ, दूल्हे बने हुए नवजवान, नाचते हुए दोस्त यार "आज मेरे यार की शादी है" की धुनों पर।

ना जाने कितने ही उत्सव देखे थे उसी छज्जे से, नवदुर्गा में काली का जलसा, होली के हुडदंग और दीवाली की धूम। छज्जे पर होने का फायदा ये होता था कि होली में हम सबको भिगो सकते थे, जबकि कोई हमें नही भिगो पाता था। क्या कहा रंग, पानी की मात्रा इतनी ज्यादा होती थी हमारे रंग में कि रंग होकर भी नही सा होता था।

रोज सुबह पानी भरने के लिये हमें सन्घर्ष करना पडता। लेकिन पडोसी बेहद अच्छे थे। किसके घर में क्या पक रहा है ये सबको पता होता था। लोग सब मिल बॉट लेते थे, सुख हो या दुख, शादी हो या त्योहार, या हो मिठाइयॉ। उन दिनों घर घर में टेलीविजन नही होता था और लोगों के पास पडोसियों के लिये वक्त होता था। पडोसियों में भाईचारा इतना कि जब मॉ बीमार होती थी तो अपना चूल्हा जलाने से पहले पडोस की महिलायें (जिन्हे हम हम चाची कहा करते थे) हमारा खाना बना जातीं थीं।

बाद में महानगरों में रहते हुए मैने पाया जाने कहॉ से अदृश्य दीवारें आ जाती हैं अपने बीच। कितने ही बार महानगरों में मेरा पडोसी कौन है, मुझे नही मालूम होता था।

जीवन में कितने ही घर बदले, कितने ही शहर देखे, महानगर देखे, देश देखे, पर स्मृतियों मे वो घर कभी नही गया। आज वो मकान नही है, जब पिछली बार मै उस गली से गुजरा था कोई तीन साल पहले वहॉ एक बडी सी बहुमन्जिला इमारत दिखाई दी। पर मेरी स्मृतियों में आज बीसियों सालों बाद भी वो घर वैसा का वैसा जीवित है। सपनों मे मेरा उस घर मे आज भी बेरोकटोक आना जाना है।

Friday, April 21, 2006

आगे की कहानी, वो कुछ साल

अगली पोस्ट से आगे। जो पाठक गण पहली बार पढ रहे है उनसे अनुरोध है कि पहले मेरी पहली पोस्ट यहॉ पढ ले।

बस फिर क्या था ये सिलसिला तो बढता ही गया। मेरे प्रयासो का कोई नतीजा नही निकलता नजर आया और असहायता, मजबूरियॉ, एकाकीपन आदि मुझे घेरने लगे। मेरा खुद पर से विश्वास उठ सा गया। अपने यहॉ किसी भी व्यक्ति के सबसे बडे समर्थक उसके घर वाले ही होते है जो उस समय तक मुझे एक बडे होनहार छात्र के रूप मे देखते थे। खास तौर पर पिता जी तो बस उदास से हो गये थे। बस एक दिन सुबह सुबह चाय वगैरा पी कर कही चले गये, वापस आये तो बडे बुझे से थे। धीरे धीरे राज खुला किसी मित्र सन्स्कृत अध्यापक एवम अन्शकालिक ज्योतषी के पास गये थे जिसने भविश्यवाणी कर दी थी कि आगे चार पॉच सालो तक मेरा ज्यादा कुछ भी नही होगा मतलब ऐसे ही चलेगा कमोबेश।

"असम्भव" मै बोला, "अगर आगे चार पॉच सालो तक मै ऐसे ही नौकरी ही तलाशता रह गया तो क्या ऒवरएज नही हो जाऊंगा।" और भला मेरा अभियान्त्रिकी स्नातक मन भला कैसे ऐसी दकियानूसी बात मान लेता, क्या वैज्ञानिक आधार है भला इसका। तो क्या हुआ अगर मेरे बाबा खुद एक ज्योत्षी थे। बकवास है ये सब। विज्ञान इन बातो को नही मानता।
यहॉ एक बात और जोडुंगा कि मानव मनोविज्ञान यूं कि बडा जटिल विषय है पर ज्यादातर हम उन बातो को नकारने की कोशिश करते है जो हमे पसंद नही आतीं, और इसके लिये हम विज्ञान या किसी और चीज का सहारा लेते है। शायद मेरे साथ ऐसा ही कुछ था।

कुछ समय और गुजरा और जाने क्यो वो बात मेरे मन को खटकने सी लगी, सारे विज्ञान के सिद्धान्तों पर खरी ना उतर सकने वाली ये बात कैसे सच हो सकती है। पर कुछ तो है जो मुझे रोक रहा है। कहीं न कहीं मुझे लगने लगा था कोई शक्ति मुझे रोक रही है। क्या कुछ ऐसा है जो विज्ञान के सिद्धान्तों से ऊपर है। एक दिन मैने पिता जी से पूछ ही लिया, ये ज्योतिष क्या है? इसके क्या सिध्दान्त हैं? और उनका जवाब मुझे आश्चर्यचकित कर गया। वो बोले ये गणित है। "हुँह, गणित पर आपके मित्र तो सन्स्कृत अध्यापक हैं? गणित तो हमारा विषय है अभियन्ताऒं का। ठीक है मै खुद पढूंगा देखता हू क्या गणित है ये"

बस फिर क्या था मैने थोडा थोडा करके ज्योतिष पढना शुरू किया। बाबा जी के समय की कुछ पुस्तकें थीं, कुछ Astroligical magzene से और कुछ Times Of India में एक स्तम्भ आता था पहले, उससे धीरे धीरे सीखना शुरू किया। नया नया मुल्ला रोज पॉच बार नमाज पढता है, तो मैने मेरी ही कुन्डली बनाई और शुरू हो गया। धीरे धीरे मुझे समझ मे आने लगे ज्योतिष के पुरातन सिद्धान्त। मैने देखा सच मे वैसा ही होने वाला था। शायद ये भी होनी ही थी कि मुझे ज्योतिष मे रुचि हो जाये। मैने पाया कि ज्योतिष पढना भी था मेरी किस्मत मे। और शायद प्रकृति मुझे तैयार कर रही थी आने वाले कुछ वषों के लिये।

अब ज्यादा ना खीचते हुए इतना ही लिखूंगा कि कालान्तर मे वो सब कुछ सच हुआ। मैने नौकरियॉ की और छोडीं। सन्क्षेप में कहूं तो भटकता नाखुश ही रहा। मेरे जीवन के वो कुछ साल शायद बेहद बुरे थे पर मैने बहुत कुछ सीखा उन कुछ सालों में। उन दिनों में भटकाव था लेकिन मै बहुत से लोगो से मिलता था, बहुत कुछ पढता था, सीखता था, शायद भगवान के भी ज्यादा करीब था। उन्ही कुछ सालों में मै धमॅभीरू बन गया। वो दिन हैं और आज है मै मानता हूं कि हम जो कुछ भी करते है हमें वापस मिलता है इस जन्म में या अगले में।

शायद मैने इस लेख को बहुत बोझिल कर दिया है इसलिये यही समाप्त करता हूं। यहॉ तक पढने के लिये धन्यवाद। कोई और विषय अगली बार, तब तक के लिये अलविदा।

Thursday, April 20, 2006

पहली पोस्ट

बडे दिनो से सोच़ रहा था कि कुछ लिखू, अपना ब्लोग अकाउन्ट तो खोला पर लिखा कुछ भी नही, तो करता हू शुरुआत दोस्तो।
जय हिन्द जय भारत।
सबसे पहले मॉ को नमन "ॐ नमःश्चन्डिकायै"। समस्त गुरुजनो को नमन। माता पिता को नमन।

तो शुरु कहॉ से करू, क्या क्या लिखू, बडी दुविधा है। यादे है कि बस बान्ध तोड कर आती है। घटनाये रात दिन पीछा करती है। चेहरे यकबयक ही सामने आ जाते है। कोई क्रम नही, नियम नही। एक छोटी सी घटना से शुरुआत करता हू, आगे बहुत कुछ लिखूँगा। मेरे जीवन की अवसाद भरी घटना है ये।अभियान्त्रिकी स्नातक होने के बाद की बात है जब मुझे पता चला कि मेरे एक पडोसी बारहवी कछा के छात्र ने पी ई टी (अभियान्त्रिकी कोलेज मे दाखिला हेतु) देने से मना कर दिया है, क्यो? उसका कहना था, देखो (मेरी तरफ इशारा) इन्होने कौन सा तीर मार लिया है, बैठे है ना घर पर बेरोजगार। उसका कहना काफी हद तक सही था उन दिनो मै विविध परीछाऒ की तैयारी मे लगा था, लेकिन हर मिलने वाला था कि बस छूटते ही पूछता था "क्या कर रहे हो भैया" और फिर दुख प्रकट करता था कि "आजकल देखो, अभियान्त्रिकी स्नातक भी मारे मारे घूम रहे है"। यहा तक कि माता पिता लोगो से मुह चुराने लगे जब यही सवाल तरह तरह से पूछा जाने लगा। मैने छत पर घूमना कम कर दिया, बाहर जाता तो बिना किसी की तरफ देखे निकल जाता। शेष अगली बार।